अर्पित गुप्ता
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने फिर दुस्साहसी हमला किया है। जवान एक बार फिर निशाना बने। जिस समय यह
धारणा बन रही थी कि सुरक्षा बलों की सख्ती से नक्सलियों की कमर टूट गई है, उन्होंने अपना कहर ढाया है।
हमले से कुछ दिन पहले ही नक्सलियों ने राज्य सरकार को शांति वार्ता का प्रस्स्ताव दिया था। माना जा रहा था
कि छत्तीसगढ़ से लाल हिंसा को खत्म करने का रास्ता निकल सकता है, मगर ताजा हमले ने सब पर पानी फेर
दिया है। नारायणपुर जिले से करीब 40 किमी दूर धौड़ाई के पास कड़ेनार में मंगलवार 4.15 बजे नक्सलियों ने
जवानों से भरी बस को विस्फोट से उड़ा दिया। इसमें 5 जवान शहीद हो गए। आठ गंभीर रूप से घायल हैं।
विस्फोट से बस करीब 33 फीट ऊपर हाईटेंशन वायर से टकराई, जिससे जवानों को करंट का झटका भी लगा।
डीआरजी के ये जवान तीन दिन से नक्सल ऑपरेशन में थे और वापस लौट रहे थे। घटना के बाद बड़ी संख्या में
बैकअप फोर्स घटनास्थल के लिए रवाना हुई। घायलों को पहले धौड़ाई हास्पिटल फिर 108 से नारायणपुर लाया
गया। जिस इलाके में नक्सलियों ने ब्लास्ट किया है, वह नक्सलियों का लिबरेटेड जोन माना जाता है। यहां पूरी
तरह नक्सलियों का कब्जा है। नक्सलियों की माड़ डिवीजन यहां तैनात है। इसी इलाके में नक्सलियों ने दस साल
पहले 29 जून 2010 को सीआरपीएफ की 39 वीं बटालियन के 70 जवानों पर घात लगाकर हमला किया था,
जिसमें 26 जवान शहीद हुए थे। दस साल बाद नक्सलियों ने इसी इलाके में बड़ी घटना को अंजाम देकर अपने
लिबरेटेड जोन को बरकरार रखने का संदेश देने की कोशिश है।
पिछले कुछ दिनों से नक्सलियों के बड़े हमलों के न होने के पीछे कहा जा रहा था कि नक्सली संगठन अपनी
ताकत बटोरकर नए सिरे से हिंसक गतिविधियों को अंजाम देने में माहिर हैं। कई बार वे सुरक्षा बलों की सक्रियता
के चलते अपने कदम पीछे खींच लेते हैं, लेकिन अतीत में यह सामने आया है कि वे इस दौरान अपनी ताकत
बढ़ाने का काम करते हैं। अब ऐसा ही नारायणपुर में दिखा है। नक्सली हिंसा में आई कमी के पीछे एक बड़ा कारण
नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास योजनाओं को पहुंचाने में मिली सफलता है। अब इसमें कोई दो राय नहीं कि
नक्सली न केवल विकास विरोधी हैं, बल्कि वे निर्धन एवं वंचित तबकों की झूठी आड़ भी लेते हैं। नक्सलियों के इस
रवैये को बेनकाब करने की जरूरत है। यह काम मुश्किल इसलिए नहीं, क्योंकि आए दिन यह देखने को मिल रहा है
कि नक्सली किस तरह विकास के कामों में बाधा पहुंचाते हैं। वे न केवल सड़कों के निर्माण के विरोधी हैं, बल्कि
यह भी नहीं चाहते कि ग्रामीण इलाके संचार सेवा से जुड़ें और यही कारण है कि हाल के समय में सड़क निर्माण
कंपनियों को धमकाने और मोबाइल टॉवरों को नष्ट करने के मामले बढ़ते दिखे हैं।
अब यह एक सच है कि नक्सली संगठन निर्धन आदिवासियों एवं ग्रामीणों की आड़ में उगाही करने वाले संगठन में
तब्दील हो गए हैं। वे माफिया गिरोह की तरह से काम कर रहे हैं। गांव-गरीब के हित से उनका कोई लेना-देना
नहीं। यह तो पहले से ही स्पष्ट है कि संविधान और कानून में उनका कोई भरोसा नहीं। वे लोकतांत्रिक मूल्यों और
मान्यताओं को भी कोई महत्व नहीं देते। ऐसे लोगों के खिलाफ सख्ती दिखाने में संकोच नहीं किया जाना चाहिए,
लेकिन विडंबना यह है कि नक्सल प्रभावित राज्यों में कई ऐसे राजनीतिक एवं गैर-राजनीतिक संगठन हैं, जो अपने
स्वार्थों के चलते नक्सलियों की प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से मदद करते रहते हैं। इन संगठनों के खिलाफ भी सख्ती
बरतने की जरूरत है। इसके अतिरिक्त इस पर भी प्राथमिकता के आधार पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि आखिर
नक्सली संगठन आधुनिक हथियार एवं विस्फोटक कहां से हासिल कर ले रहे हैं? पता नहीं नक्सलियों की हथियारों
तक पहुंच को रोकने के लिए कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे हैं? दरअसल यह काम भी प्राथमिकता के
आधार पर किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह भी देखने की जरूरत है कि नक्सल प्रभावित राज्यों की पुलिस
और अधिक सक्षम कैसे बने। इस मामले में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि नक्सलियों की कमर तोडऩे का
काम मोटे तौर पर केंद्रीय सुरक्षा बलों ने किया है। नक्सली फिर से सिर न उठाने पाएं, यह सुनिश्चित करने का
काम राज्य सरकारों और उनकी पुलिस को ही करना चाहिए।