-डॉ. रामकिशोर उपाध्याय-
समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव जिन्ना वाले अपने वक्तव्य पर न केवल अडिग हैं अपितु वे दूसरों को
भी जिन्ना की भूमिका पर पुनर्विचार का परामर्श दे रहे हैं।
वे इस बात पर जोर दे रहे हैं कि जिन्ना भी गाँधी, नेहरू और पटेल की भांति आजादी के नायक हैं अर्थात
समाजवादी पार्टी के लिए तो आदरणीय हैं। अब प्रश्न यह है कि यदि आदरणीय हैं तो अनुकरणीय भी होंगे ही !
उनके विरोधी पूछ रहे हैं कि क्या उत्तर प्रदेश की राजनीति पुनः एक और मुस्लिम लीग को जन्म देने की ओर
अग्रसर है ? क्या उत्तर प्रदेश के मुसलमान अभी भी गाँधी-नेहरू, पटेल और यहाँ तक कि डॉ. राम मनोहर लोहिया
के स्थान पर मुहम्मद अली जिन्ना को ही अपना आदर्श मानते हैं ? ये ज्वलंत प्रश्न यदि समय रहते नहीं सुलझाए
गए तो देश पुनः हिन्दू-मुस्लिम समस्या के द्वंद्व में फँस जाएगा।
यूपी की समाजवादी पार्टी पर अबतक ये आरोप लगते रहे हैं कि उसने मुस्लिम वोटरों को लुभाने के लिए हिन्दू
कारसेवकों को गोलियों से भूनने में संकोच नहीं किया। निहत्थे कारसेवकों की हत्या के लिए बदनाम सपा सरकार
2013 में तुष्टिकरण की सारी सीमाओं को लाँघ गई। हर थाने में मुसलमान सिपाहियों की तैनाती से लेकर
कब्रिस्तान के लिए अनुदान देने तक के कई उदाहरण हैं। इन घटनाओं के उल्लेख का उद्देश्य यह है कि पाठक इस
बात को समझ सकें कि इतना सबकुछ करने के पश्चात् भी समाजवादी पार्टी मुसलमानों का विश्वास क्यों नहीं जीत
सकी ? कांग्रेस पार्टी जिस प्रकार सब-विधि मुसलमानों का हित (तुष्टीकरण) करने के बाद भी उनकी नफरत का
शिकार हुई, क्या सपा के साथ भी वैसा ही होगा ? गाँधीजी देश की स्वतंत्रता और अखंडता के लिए लड़ते रहे, वहीं
जिन्ना केवल मुसलमानों को संगठित कर इस्लामिक देश बनाने के लिए अड़े रहे। डायरेक्ट एक्शन के नाम पर
हिन्दुओं का रक्त बहाने वाले जिन्ना की तुलना गाँधी से करने वालों को पता ही नहीं है कि भविष्य में इसो क्या
दुष्परिणाम हो सकते हैं?
इरफान हबीब जैसे कट्टर मुस्लिम इतिहासकार भारत के मुसलमानों के मन में जिन्ना के प्रति श्रद्धा जगाने के
लिए झूठे नेरेटिव सेट करते रहते हैं। वे चाहते हैं कि भारत का मुसलमान जिन्ना को स्मरण करता रहे ताकि समय
आने पर पुनः कोई जिन्ना पैदा हो सके और इसके नाम पर संगठित किया जा सके। हैदराबाद के असदुद्दीन
ओवैसी जिन्ना के पदचिह्नों पर चल पड़े हैं। जैसे आरंभिक दिनों में मुस्लिम लीग सीधे-सीधे पाकिस्तान की बात
करने के बजाय मुस्लिम हितों की बात करती थी, ठीक वैसी ही बातें आजकल कथित मुस्लिम नेता करने लगे हैं।
अखिलेश यादव की सरकार ने जब लैपटॉप बांटकर उत्तर प्रदेश के विद्यार्थियों को आकर्षित और लाभान्वित करना
चाहा तब उनके दो मुसलमान मंत्रियों ने इस योजना की प्रशंसा करने के स्थान पर बार-बार यही बात दुहराई कि
सरकार मुसलमानों की सुरक्षा की चिंता करे। यदि कथित हिन्दू विरोधी तत्कालीन राज्य सरकार और कथित
धर्मनिरपेक्ष केंद्र सरकार (कांग्रेस गठबंधन) में भी अल्पसंख्यक असुरक्षित थे तब फिर उनकी सुरक्षा की गारंटी और
कौन दे सकता है ?
समाजवादी पार्टी कहने को तो स्वयं को डॉ. राम मनोहर लोहिया के आदर्शों पर चलने वाली पार्टी कहती है किन्तु
अब उसके नायकों में मुहम्मद अली जिन्ना सर्वोपरि हो गए दिखते हैं। अखिलेश यादव को राजनीतिक पद प्रतिष्ठा
विरासत में मिली है। उन्हें अभी वैचारिक प्रतिबद्धता और विचारधाराओं के अच्छे-बुरे प्रभाव का कोई अनुभव नहीं
है। इसीलिए वे उस विचारधारा वाले व्यक्ति का गुणगान कर रहे हैं जिसने भारत के मुसलमानों को हिन्दुओं के
साथ रहने और हिन्दू नेताओं की सरकार को स्वीकार करने का प्रबल विरोध किया था। जिसने देश के सभी
मुसलमानों को पृथक इस्लामिक देश माँगने और लड़कर लेने के लिए एकजुट किया था।
जब कुछ मुसलमानों ने कहा कि गाँधीजी तो महात्मा हैं, वे हम सबके आदरणीय हैं। हमें उनकी बात माननी चाहिए
तब मुस्लिम लीग ने यह वक्तव्य दिलाया कि हिन्दुओं का बड़े-से-बड़ा महात्मा भी किसी पथभ्रष्ट मुसलमान के
समकक्ष नहीं हो सकता। आज अखिलेश यादव उसी मुस्लिम लीग और जिन्ना को देश की आजादी के लिए गाँधीजी
के समतुल्य बता रहे हैं। गाँधीजी ने कहा था कि देश का बँटवारा मेरी लाश पर होगा और जिन्ना ने निर्दोष हिन्दुओं
की हत्या करके विभाजन की विभीषिका को जन्म दिया। गांधीवाद और जिन्नावाद दो विपरीत विचार धाराएँ हैं ठीक
वैसे ही जैसे नेहरूवाद और जिन्नावाद। फिर न जाने क्यों अखिलेश यादव को इसमें समानता दिखती है।
संभवतः अखिलेश यादव को डर है कि कहीं उत्तर प्रदेश का मुसलमान समाजवादी पार्टी को छोड़ ओवैसी की पार्टी के
साथ न चला जाए इसलिए वे जिन्ना का महिमामंडन कर रहे हैं। वे भूल रहे हैं कि उनका जिन्ना कार्ड कहीं ओवैसी
के लिए ट्रंप कार्ड न बन जाए। क्योंकि जिन्ना का अर्थ है हिन्दू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते तथा
मुसलमानों का नेता केवल मुसलमान ही हो सकता है।