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विजय कनौजिया
कभी करो न जिक्र भले ही
एहसासों में बना रहूँगा
लाख भुला लो मुझे भले तुम
यादों में मैं बना रहूँगा..।।
ग्रीष्म ऋतु है आज भले ही
शरद ऋतु भी कल आएगी
आज भले चाहो न मुझको
कल की चाहत बना रहूँगा..।।
रिश्तों का अनुबंध सदा ही
भाव समर्पण पर निर्भर है
तुम अनुबंध तोड़ दो चाहे
मैं रिश्ते में बना रहूँगा..।।
मूल्यवान हर प्रेम रहा है
जीवन का आधार रहा है
तुम चाहे आधार बदल लो
मैं जैसा हूँ बना रहूँगा..।।
प्रेम संधि में जितना चाहो
पराजय मैं स्वीकार करूँगा
“विजय” प्रेम की अभिलाषा में
प्रेम पुजारी बना रहूँगा..।।
प्रेम पुजारी बना रहूँगा..।।