-सोनम लववंशी-
वर्तमान दौर में हम वैश्विक स्तर पर कई मायनों में मजबूत बनकर उभरे हैं। फ़िर वह बात चाहें लीडरशिप की हो
या फिर अर्थव्यवस्था की। जी हां हमारे देश की अर्थव्यवस्था विश्व की तीसरे नंबर की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।
वहीं खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में हम दुनिया में दूसरे स्थान पर आते है, लेकिन जब बात स्वास्थ्य और कुपोषण
जैसे मुद्दों की होती है। फ़िर आंकड़े चौकाने वाले होते है। इतना ही नहीं कोविड महामारी ने कुपोषण की समस्या
को ओर गम्भीर बना दिया है। हमारे देश में हर चौथा बच्चा कुपोषण का शिकार है। सरकार गाहे बगाहे कुपोषण को
ख़त्म करने की बात तो करती है। पर स्थिति वही ढाक के तीन पात वाली ही रहती है। देश में कुपोषण कोई नया
मुद्दा नहीं है। आए दिन कुपोषण की खबरें मीडिया जगत की सुर्खियां बनती है। सरकार भी कुपोषण को खत्म
करने के लिए तमाम योजनाएं लागू करती है। लेकिन इन योजनाओं का धरातल पर कोई खास असर दिखाई नहीं
देता है।
वहीं बात जब हम ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2020 की करें तो रिपोर्ट में भारत 107 देशों की सूची में 94 वें नम्बर पर
है। जो बेहद ही गम्भीर बात हैं। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने भी माना है कि देश में 9.3 लाख से भी
अधिक बच्चें गम्भीर कुपोषित की श्रेणी में आते है। ऐसे में सोचिए कितनी अजीब बिडम्बना है कि एक तरफ हम
दुनिया के दूसरे सबसे बड़े खाद्यान उत्पादक देश है लेकिन कुपोषण के आंकड़े कुछ और ही तस्वीर बयां करते है।
हमारे देश में सितम्बर माह का पहला सप्ताह राष्ट्रीय पोषण सप्ताह के रूप में मनाया जाता है। जिसका उद्देश्य
लोगो को कुपोषण के प्रति जागरूक करना होता है। लेकिन यह सप्ताह मात्र कागज़ी कार्रवाई बनकर रह जाता है।
धरातल पर इसका कोई खास असर नहीं दिखाई देता है।
कोरोना महामारी ने लोगो को गरीबी के दलदल में धकेल दिया है। जिससे स्थिति और अधिक चिंताजनक बन गई
है। बता दें कि भारत सरकार ने 2022 तक कुपोषण मुक्त भारत निर्माण के लिए राष्ट्रीय पोषण मिशन शुरू किया।
मिड डे मील जैसी योजना लागू की जिससे स्कूली बच्चों के पोषण स्तर को सुधारा जा सके, लेकिन इन योजनाओं
में खामियां रही और जिसे देखते हुए अभी हाल ही में केंद्र सरकार ने 'प्रधानमंत्री पोषण योजना' शुरू करने का
निर्णायक फैसला लिया है। गौरतलब हो कि इस योजना के माध्यम से गुणवत्ता युक्त शिक्षण के साथ साथ पोषण
पर भी विशेष ध्यान दिया जाएगा, ऐसा सरकार का कहना है। इतना ही नहीं इस योजना से बच्चों का शारीरिक
और मानसिक विकास हो सके। इसलिए योजना के लिए केंद्र सरकार ने 1.31 लाख करोड़ रुपये खर्च करने की बात
भी कही है। इस योजना का लाभ 8वीं क्लास तक के लगभग 12 करोड़ बच्चों को मिलने की बात कही जा रही है।
अब ऐसे में सवाल यही उठता है कि क्या योजनाओं का नाम बदल देने मात्र से ही समस्या का रामबाण इलाज
मिल जाएगा? एक साधारण सी बात है हमारे देश में आज़ादी के बाद कितनी ही योजनाओं के नाम बदले गए,
लेकिन क्या नए नाम से शुरू हुई योजनाएं सफ़ल ही होगी? इसकी कोई गारंटी है?
वहीं एक बात यह भी स्पष्ट है कि सिर्फ़ योजनाओं के निर्माण या नाम बदलने से सीरत और सूरत नहीं बदलती,
बल्कि उन योजनाओं का क्रियान्वयन यह निर्धारित करता है कि वह योजना कितनी सफ़ल होगी। ऐसे में सबसे बड़ा
सवाल यही कि आख़िर नई पोषण योजना जो प्रधानमंत्री के नाम से जोड़कर शुरू की जा रही, क्या उसके
क्रियान्वयन का कोई ठोस ढांचा तैयार किया गया है? या सिर्फ़ योजना का नाम बदलकर वाहवाही लूटने की तैयारी
है? बता दें कि अभी हाल के दिनों में ही मध्यप्रदेश के श्योपुर से एक तस्वीर मीडिया जगत की सुर्खियां बनी थी।
यह तस्वीर कुपोषण का दंश झेल रहे 2 वर्षीय बालक आकाश की थी। आकाश विजयपुर ब्लॉक से 45 किमी दूर
शुकरवार गांव का रहने वाला है। इस बच्चें का वजन मात्र 4 किलो 700 ग्राम था जबकि डॉक्टरों का कहना था कि
2 साल के बालक का वजन 12 किलो होना चाहिए। सोचिए यह तो एकमात्र उदाहरण स्वरूप बच्चा है, जिसका
सामान्य वज़न निर्धारित वज़न से काफ़ी कम है। फ़िर ऐसे में समझ सकते हैं कि हमारे देश में योजनाओं के एलान
और धरातल पर कितना अंतर देखने को मिलता है। वैसे बात सिर्फ़ मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले की ही करें तो 800
बच्चे अतिकुपोषित की श्रेणी में यहां पर आते है। पूरे जिले में करीब 6000 बच्चे कुपोषण का शिकार हो चुके है।
ऐसे में यह हम सभी जानते है कि एक स्वस्थ शरीर मे ही स्वस्थ मन का विकास होता है। पोषण न केवल हमारे
शारीरिक विकास में बल्कि मानसिक विकास में भी अहम भूमिका निभाता है। लेकिन जिस तरह से हमारे देश में
कुपोषण गम्भीर समस्या बनता जा रहा है उसे देखकर यही लगता है कि भारत एक कुपोषण का शिकार देश बनता
जा रहा है। यह सच है कि सरकार ने कुपोषण के लिए योजनाएं लागू की है। लेकिन इन योजनाओं का लाभ वंचित
समुदाय तक नहीं पहुंच रहा है। बात अर्थव्यवस्था को लेकर करे तो भारत से कमज़ोर देश माने जाने वाले
पाकिस्तान, नेपाल , बांग्लादेश व इंडोनेशिया जैसे देश हंगर इंडेक्स में भारत से कहीं बेहतर स्थिति में है। वहीं
भारत में कुपोषण केवल पिछड़े और ग्रामीण राज्यों की समस्या नहीं है। बल्कि राजधानी तक में अपने पैर पसार
चुका है। राजधानी दिल्ली से जब 3 लड़कियों की मौत की खबर मीडिया जगत में आई तो यह बात साफ जाहिर हो
गई कि कुपोषण किसी राज्य विशेष तक सीमित नहीं रह गया है। ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि हमारे देश मे
45 सालों से भी अधिक समय से जब आंगनवाड़ी कार्यक्रम चलाए जा रहे है। लेकिन ऐसी क्या वजह है कि भुखमरी
ओर कुपोषण के आंकड़े कम होने का नाम नहीं ले रहे है। फ़िर वास्तविक समस्या क्या है, उस तरफ़ रहनुमाओं का
ध्यान जाना चाहिए, न कि योजनाओं के नाम परिवर्तन पर। एक आंकड़े की बात करें तो हमारे देश में 20 करोड़
लोगों को पर्याप्त पोषण तक नहीं मिल पाता है। फ़िर बात तो इसकी होनी चाहिए कि समस्या का समाधान आख़िर
क्यों नहीं मिल पा रहा। वैसे चलिए अब योजना का रंग-रोगन करके नाम बदल ही दिया गया है तो यह तो
सुनिश्चित होना ही चाहिए कि पोषण की नई योजना भ्रष्टाचार के भेंट न चढ़ें। साथ ही साथ मिड-डे-मिल योजना
किन दुविधाओं के पेशोपेश में फंसकर अपने उद्देश्य से भटक गई। उसका पता लगाकर नई योजना को उससे
बचाना होगा, शायद तभी गुणवत्तापूर्ण शिक्षण और सम्पूर्ण पोषण का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।