प्रदूषण रोकने को कोर्ट ने जो राह दिखाई उस पर आगे बढ़ना होगा

asiakhabar.com | October 26, 2017 | 11:39 am IST

पिछले कुछ सालों के दौरान दिवाली में पटाखों की वजह से होने वाले भयावह प्रदूषण के चलते इस बार सर्वोच्च न्यायालय ने एनसीआर यानी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पटाखों की खरीद-बिक्री पर पाबंदी लगा दी थी। भले ही पटाखों का धुआं कम हुआ हो लेकिन न्यायालय के आदेश का धुआं खूब जमकर उड़ा। पिछले साल की तुलना में इस बार प्रदूषण का स्तर कम दर्ज किया गया, दिल्ली में पटाखे बेचने पर बैन की वजह से दिल्ली की जनता को थोड़ी राहत की जरूर मिली, लेकिन दिल्ली, नोएडा, गुरुग्राम, गाजियाबाद, फरीदाबाद के लोगों ने जुगाड़ करके खूब पटाखे जलाए। हिन्दू धर्म के प्रमुख त्यौहार पर न्यायालय की दखलअंदाजी को कुछ लोगों ने अनुचित माना लेकिन प्रदूषण के नाम पर आम से लेकर खास तक हर कोई चिन्तित दिखा, यह स्वास्थ्य के प्रति लोगों की जागरूकता को ही दर्शाता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया है, उसके पीछे भावना काफी अच्छी है, क्योंकि पिछले साल दीवाली के दिनों में दिल्ली का प्रदूषण सामान्य स्तर से 29 गुना बढ़ गया था। कई बीमारियां फैल गई थीं लेकिन यह खतरा तो साल में तीन-चार दिन ही कायम रहता है जबकि फसलों के जलने का धुंआ, कारों का धुंआ, उड़ती हुई धूल का प्रदूषण तथा अन्य छोटे-मोटे कारणों से फैलने वाले सतत प्रदूषण पर हमारी नजर क्यों नहीं जाती।
दिल्ली के लिये प्रदूषण एक नये खलनायक की तरह है, जिसकी अनदेखी जानलेवा साबित हो रही है। न्यायालय का निर्णय हो या दिल्ली सरकार के प्रयास, प्रदूषण के मामले में जिस तरह की सख्ती चाहिए, वैसी दिखाई नहीं दे रही है। ऐसा होता तो पुराने वाहनों पर नियंत्रण होता, कल-कारखानों से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण पर कार्यवाही होती, नदियों की सफाई की जाती, कचरे के ढेरों में लगने वाली आग का कोई समाधान निकाला जाता, कचरे के निष्कासन की समुचित व्यवस्था की जाती, प्रदूषण नियंत्रण कार्यालय की सक्रियता दिखाई देती मगर ऐसा कुछ न होना जनता के स्वास्थ्य के प्रति सरकार की उदासीनता को ही दर्शाता है। साथ ही आम लोगों की पर्यावरण के प्रति लापरवाही एवं उदासीनता भी परेशान करने वाली है। लोग जानते हैं कि पटाखों के धमाकों और धुएं की वजह से कैसे सांस लेना तक मुश्किल हो जाता है, आंखों में जलन की वजह से कुछ भी देखना सहज नहीं रहता। इसके बावजूद पटाखे बेचने और खरीदने पर पाबंदी के अदालत के आदेश का आशय समझने की जरूरत नहीं समझी गई। इस अनुभव को देखते हुए अगली बार से प्रशासन को सख्त होना ही पड़ेगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रदूषण के कारण दिल्ली में सालाना 10,000 से 30,000 जानें जा रही हैं। प्रदूषण हर दिन भारत की राजधानी में औसतन 80 लोगों की जान ले रहा है। इस नई रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में 13 भारत के शहर हैं। इनमें राजधानी दिल्ली सबसे ऊपर है। इसके बाद पटना, रायपुर और ग्वालियर का नंबर आता है। बाकी बचे शहरों में तीन पाकिस्तान के, दो बांग्लादेश के, एक कतर और एक ईरान का शहर है। इस ताजा रिपोर्ट ने एक बार फिर दिल्ली में प्रदूषण की समस्या की ओर ध्यान खींचा है। एनवायरनमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी पत्रिका में छपी इस रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में अधिकतर मौतें दिल की बीमारी और स्ट्रोक के कारण होती हैं। दिल्ली की हवा में पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) 2.5 की मात्रा प्रति घन मीटर 150 माइक्रोग्राम है। यह देश में निर्धारित सीमा का चार गुना और डब्ल्यूएचओ की तय सीमा का 15 गुना है। रिपोर्ट के अनुसार पीएम 2.5 पर काबू पा कर दिल्ली में प्रदूषण के कारण होने वाली मौतों को 45 से 85 फीसदी तक कम किया जा सकता है।
दुनिया भर में वायु प्रदूषण का ब्योरा लेती इस रिपोर्ट में चीन और भारत पर खास ध्यान दिया गया है। रिपोर्ट में चेतावनी भरे स्वर में कहा गया है कि अगर ये दोनों देश प्रदूषण पर नियंत्रण कर पाएं, तो बड़ी संख्या में लोगों की जान बचाई जा सकती है। रिपोर्ट के अनुसार दोनों ही देश संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित नियमों का पालन नहीं करते और इस कारण प्रदूषण की समस्या बढ़ती जा रही है। साथ ही यह भी कहा गया है कि वाहनों की बढ़ती संख्या, बिजली के लिए कोयले से चलने वाले संयंत्रों पर निर्भरता और सड़कों पर लकड़ी और कूड़ा जलाने जैसी आदतों के कारण हालात में सुधार की कोई उम्मीद भी नहीं है, लेकिन अगर स्थिति को और बिगड़ने ना दिया जाए, तो कम-से-कम भविष्य में प्रदूषण से होने वाली बीमारियों के कारण मरने वाले लोगों की संख्या को और बढ़ने से रोका जा सकता है। ऐसा किया जाना जरूरी भी है। लोगों को मरने भी तो नहीं दिया जा सकता।
एक अन्य रिपोर्ट भी हमें सावधान करती है। स्वास्थ्य जगत की पत्रिका मेडिकल जर्नल द्वारा इसी गुरुवार को जारी रिपोर्ट हमें और भी डराती है और सतर्क होने की चेतावनी देती है। जिसमें बताया गया है कि वर्ष 2015 में प्रदूषण से होने वाली बीमारियों से पूरी दुनिया में 90 लाख लोग मारे गये, जिनमें 25 लाख भारत के थे। भारत के लेकर ऐसे खतरनाक आंकड़े आ रहे हैं। कई भारतीय एजेन्सियां भी वायु प्रदूषण के घातक एवं जानलेवा बन जाने की बात कह रही हैं। विडम्बनापूर्ण तो यह है कि भारत में सरकार और जनता, दोनों के लिये यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया है। दुखद तो यह भी है कि राजनीतिक दलों के लिये तो इस तरह के मुद्दे कभी भी प्राथमिकता बनते ही नहीं। हां, न्यायालय का दीपावली पर आतिशबाजी न करने का फैसला जरूरी साम्प्रदायिक एवं धार्मिक रंग लेकर राजनीतिक मुद्दा बन जाता है। उनके लिये जीवन नहीं, जीवन-निर्वाह के मसले महत्वपूर्ण हैं। वे अपने राजनीतिक हितों एवं वोट बैंक पर ही नजर रखते हैं, वे कैसे पर्यावरण सुरक्षा को बढ़ावा दे सकते हैं? इसलिये जनता को ही जागना होगा।
हाल के वर्षों में अनगिनत वाहनों सहित दूसरे तमाम कारणों से हवा में जहरीले तत्त्वों में इजाफा दर्ज किया गया है। इसमें दिवाली के दौरान पटाखों की वजह से और बढ़ोतरी हो जाती है। यह बेहद अफसोस की बात है कि पिछले साल दिवाली के दिन और उसके बाद भी कई दिनों तक दिल्ली का वातावरण जैसा दमघोंटू बना रहा उसे जानते हुए भी कुछ लोगों ने सर्वोच्च अदालत के आदेश के औचित्य पर सवाल उठाए और उसे नाहक धार्मिक चश्मे से देखने की कोशिश की। पर्यावरण की फिक्र वक्त का तकाजा है। त्योहार की दलील पर असीम प्रदूषण की इजाजत नहीं दी जा सकती।
प्रदूषण से मरने वालों की संख्या मलेरिया से होने वाली मौतों से तीन गुणा और एचआईवी एड्स के कारण होने वाली मौतों से करीब 14 गुणा अधिक है। हालांकि प्रदूषण को वैश्विक समुदाय से थोड़ा ही महत्व मिलता है। प्योर अर्थ ब्लैकस्मिथ इंस्टीट्यूट ने इस विश्लेषण को तैयार किया है। यह स्वास्थ्य और प्रदूषण (जीएएचपी) पर विश्वव्यापी गठबंधन का हिस्सा है। जीएएचपी द्विपक्षीय, बहुपक्षीय और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों, राष्ट्रीय सरकारों, शिक्षाविदों और समाज की सहयोगी संस्था है।
इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष रिचर्ड फुलर के मुताबिक, ‘वायु और जल प्रदूषण के साथ टॉक्सिक साइटें विकासशील देशों की स्वास्थ्य प्रणाली पर भारी बोझ थोपती हैं।’ जीएएचपी के विश्लेषण में विश्व स्वास्थ्य संगठन और दूसरे अन्य डाटा को एकीकृत कर यह निर्धारित किया गया है कि 74 लाख लोगों की मौत की वजह वायु और जल से होने वाले प्रदूषण स्रोत हैं। गरीब देशों में दस लाख अतिरिक्त मौतें छोटे और मध्यम आकार के उत्पादकों के औद्योगिक कचरे और जहरीले रसायन, वायु, जल, मिट्टी और भोजन में मिलने के कारण हुई। ब्लैकस्मिथ इंस्टीट्यूट के तकनीकी सलाहकार और न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में पर्यावरणीय स्वास्थ्य के प्रोफेसर जैक कैरावानोस के मुताबिक इन देशों में संक्रामक रोग और धूम्रपान के मुकाबले, पर्यावरण प्रदूषण का स्वास्थ्य पर ज्यादा बुरा प्रभाव है। एक तरह से स्वास्थ्य के प्रश्न पर पूरी दुनिया में सन्नाटा है, हर कोई विकास की बात कर रहा है। इस तथाकथित विकास ने स्वास्थ्य एवं इंसान के जीवन को गौण कर दिया है। करीब 20 करोड़ लोग सीधे तौर पर प्रदूषित पर्यावरण में जीने को मजबूर हैं।
भारी धातुओं से दूषित मिट्टी, हवा में घुलने वाले रासायनिक कचरे या फिर नदी के पानी में इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ को बहाना, त्यौहारों के नाम पर आतिशबाजी-खतरे की घंटी बजाने वाले ये कुछ खतरनाक उदाहरण हैं एवं ऐसी विनाशकारी स्थितियां हैं, जिनका आम लोगों के स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव पड़ता है, जिस पर ध्यान देना देना जरूरी है, अन्यथा तब तक भयानक परिणाम सामने आते रहेंगे। भविष्य धुंधला होता रहेगा। दिल्ली और देश में ऐसा कोई बड़ा जन-आन्दोलन भी नहीं है, जो पर्यावरण के लिये ही जनता में जागृति लाता है, जो हर नागरिक को प्रेरणा दें कि वह दो-चार पेड़-पौधे लगाए। राजनीतिक दल और नेता लोगों को वोट और नोट कबाड़ने से फुर्सत मिले, तब तो इन मनुष्य जीवन से जु़ड़े बुनियादी प्रश्नों पर कोई ठोस काम हो सके।

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