-ओम प्रकाश उनियाल-
बरसात का मौसम शुरु होते ही पानी अपना जलवा दिखाने लगता है। पानी की ताकत का कोई निश्चित पैमाना नहीं होता। कब किधर का रुख कर बैठे पता नहीं चलता। विनाशलीला बनकर कहर ढाहता है पानी। पहाड़ों में कई नदियां उफान पर नजर आने लगती हैं। जगह-जगह पहाड़ दरकने लगते हैं। नए-नए जल-स्रोत फूटने लगते हैं। जो सूख चुके होते हैं या विलुप्ति के कगार पर होते हैं बरसात में वे भी पुनर्जीवित हो जाते हैं। पहाड़ हरियाली से लकदक हो जाते हैं। वहीं मैदानी इलाकों में भी पानी अपनी सीमा लांघने में कोई कसर नहीं छोड़ता। महानगर, जो कि दिखावे की चकाचौंध से अपनी ओर हरेक को आकर्षित करते हैं एवं जल-निकासी की सुविधा का दावा ठोकते हैं उनके दावे भी पहली ही बरसात में फुस्स हो जाते हैं। जलभराव की समस्या हर बरसात में आड़े आती ही है। इसे प्रकृति की नहीं अपितु अनियोजित विकास की मार कहा जाए तो कोई दोराय नहीं। छोटे कस्बों, गांवों एवं नदियों के किनारे बसने वालों के हालात तो पूछिए ही मत। नर्क का जीवन जीने को मजबूर होना पड़ता है बरसात में। कहीं दलदल, तो कहीं पानी ही पानी। हर प्रकार की क्षति भी उठाने को मजबूर होना पड़ता है। सूखे इलाकों के लिए बरसात वरदान बनकर आती है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण खतरा भी बन रही है। इसी पानी की उपयोगिता तब महसूस होती जब बूंद-बूंद के लिए तरसना पड़ता है। बरसात के पानी का संचय कर भी जहां पानी की कमी हो, को पूरा किया जा सकता है। यह सच है कि प्रकृति पर किसी का वश नहीं चलता फिर भी इंसान उस पर हरदम हावी होने की चाह में रहता है। जिसका भयंकर परिणाम पिछले कुछ सालों से भुगतते आ रहे हैं। ‘पानी से बचिए भी, पानी बचाएं भी’ का नारा देकर जागरुकता लाएं।