सुरेंदर कुमार चोपड़ा
पिछले कई दशकों से भारतीय जनमानस में इस बात की भयंकर पीड़ा है कि हमारे बच्चों को विदेशी आक्रान्ताओं
के महिमामंडन वाला झूठा और भ्रामक इतिहास पढ़ाया जा रहा है। जिन महापुरुषों ने देश के लिए बलिदान दिया,
जिन्होंने अरब,अफगान,मुगल अँगरेज आदि लुटेरों को देश से खदेड़ने के लिए युद्ध लड़े उनमें से अधिकांश को
इतिहास से बिलुप्त कर दिया गया है अथवा महत्वहीन करके दिखाया गया है। मुगलों के विरुद्ध संघर्ष करने वाले
भारतीय राजाओं और महपुरुषों जिनमें रानी दुर्गावति और महाराणा प्रताप भी शामिल हैं, को सम्मान जनक स्थान
न देकर उल्टे उन्हें हीं भारत की एकता में बाधक सिद्ध करने का प्रयास किया गया है। गुरु गोविन्द सिंह जी और
शिवाजी महाराज तक को हमारे तथाकथित इतिहासकारों ने पर्याप्त स्थान नहीं दिया। क्या यह स्वतंत्र भारत के
मुसलमान शिक्षा मंत्रियों का दुराग्रह या भूल थी अथवा कम्युनिस्ट इतिहासकारों का षड्यंत्र, जो भी हो हमारे
इतिहास को केवल और केवल मुसलमान आक्रमण कारियों के महिमामंडन से भर दिया गया है। कितने दुःख की
बात है कि भगवान बुद्ध,महावीर,राम,कृष्ण आदि देवों की मूर्तियों को खंडित करने वाले,बलात्कारी हिंसक दरिंदों
तक को उदार सदचरित्र बता कर भरतीय पहचान को विस्मृत करने वाला भ्रामक इतिहास पढ़ाया जाता रहा है। इस
भयानक षडयन्त्र के कारण नई पीढ़ी अपने वास्तविक नायकों को भूलती जा रही है।
बहुत लम्बी प्रतीक्षा और संघर्ष के पश्चात नई शिक्षा नीति के आलोक में यह घड़ी आई है। शिक्षमंत्रालय से जुड़ी
संसद की स्थायी समिति ने देश के सभी बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों और विद्यार्थियों से पाठ्यक्रम में पढ़ाए जाने
वाले भ्रामक और तथ्यहीन इतिहास को ठीक करने के लिए सुझाव माँगे हैं। सुझाव शिक्षा मंत्रालय से संबंधित संसद
की स्थाई समिति को rsc_hrd@sansad.in मेल आईडी पर 15 जुलाई 2021 तक भेजे जाने थे।
समिति से इस निवेदन के साथ कि सुझाव आमंत्रित करने की अंतिम तिथि 15 जुलाई 2021 से बढ़ाकर 30 जुलाई
या 15 अगस्त 2021 तक कर देनी चाहिए। तथा एक दो अन्य मेल आईडी भी जारी की जानी चाहिए क्योंकि एक
मेल आईडी कई बार आधिक मेल आने या अन्य कारणों से बाधित हो सकती है। जब छोटी-छोटी नालियों के
उद्घाटन तक के लिए शासकीय धन से बड़े-बड़े विज्ञापन दिए जा सकते हैं तब इस महत्वपूर्ण कार्य के प्रचार-प्रसार
में कंजूसी ठीक नहीं है। चूँकि यह सर्व प्रतीक्षित एवं राष्ट्रिय महत्व का कार्य है अतः इसके लिए विद्यालयों,
महाविद्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षकों/प्राध्यापकों और विद्यार्थियों को भी सुझाव देने हेतु प्रोत्साहित किये जाने की
आवश्यकता है। मैंने भी कुछ सुझाव समिति को भेजे थे संभव है समिति को मेल न मिल पाया हो अतः इसबार मैं
सार्वजनिक रूप से अपने सुझाव भेज रहा हूँ –
मेरा पहला सुझाव है कि ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने भरतीय साहित्य, कला और संगीत के क्षेत्र में जो
योगदान दिया है उसे पाठ्यक्रम में पर्याप्त स्थान दिया जाना चाहिए। इससे यह भ्रम दूर होगा कि भारत में मुगलों
से पूर्व कला और संगीत में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई थी। दिल्ली और ग्वालियर के तोमर राजाओं के स्थापत्य को
उपेक्षित करने से भी उत्तर भारत की प्राचीन स्थापत्य कला उपेक्षित-सी हो गई है। हिन्दू मुसलिम सद्भाव की दिशा
में अकबर की नीति कपटपूर्ण थी किन्तु मानसिंह तोमर ने मुसलमानों के साथ जो कृपा पर्ण व्यवहार किया वह
हिन्दू राज्य की महानता और स्वाभाविक उदारता का प्रतीक है। अतः अकबरभाईचारे के प्रतीक के रूप में भ्रम है
और मानसिंह तोमर सत्य है। इस सम्बन्ध में हरिहर निवास द्विवेदी जी द्वारा लिखी गई पुस्तकों का भी उपयोग
किया जा सकता है।
मेरा दूसरा सुझाव है कि हमारी एनसीईआरटी की पुस्तकों में बाबर को भारत में आक्रमण के लिए बुलाने वालों में
महाराणा संग्राम सिंह जी का नाम जानबूझकर जोड़ा गया है जबकि सर्वविदित एवं प्रमाणिक सत्य यह है कि बाबर
को भारत पर आक्रमण के लिए बुलाने में केवल दो लोगों की भूमिका थी एक था पंजाब का शासक दौलत खान
और दूसरा था दिल्ली के शासक इब्राहीम लोदी का चाचा आलम खान लोदी जोकि दिल्ली का शासक बनना चाहता
था। स्वयं अशीर्वादीलाल जी श्रीवास्तव (इतिहासकार) ने इस बात को स्वीकार नहीं किया है कि काबुल में संग्राम
सिंह का कोई दूत (ऐलची) बाबर से मिलने गया था। अतः बाबर को बुलाने वालों में से राणा संग्राम सिंह का नाम
हटाया जाना चाहिए।
मेरा तीसरा सुझाव है हल्दीघाटी युद्ध को लेकर, इसमें अकबर की विजय की एक पक्षीय घोषणा कर देने से यह
इतिहास न होकर अकबर की अतिरंजित प्रशंसा जान पड़ती है। हल्दीघाटी के साथ दिबेर के युद्ध को भी पढ़ाया
जाना चाहिए जिससे पाठकों को स्वतः ही स्पस्ट हो जाएगा कि मुग़ल और महाराणा में कौन कब जीता, कब हारा।
मैं इस मत से सहमत हूँ कि हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप न तो पकड़े गए, न मारे गए और न हीं
उनका राज्य छीना गया अतः इस युद्ध में जय पराजय का कोई भी निर्णय नहीं हुआ ऐसा माना जाना चाहिए।
मेरा चौथा सुझाव है कि पाठ्यक्रमों में सिक्खों के योगदान की चर्चा के तहत कम से कम तीन सिख गुरुओं गुरु
हरगोविंद जी (उनके तीनों युद्दों के वर्णन के साथ), गुरु तेग बहादुर जी और गुरु गोविन्द सिंह जी (चमकोर युद्ध
के साथ) को पर्याप्त स्थान दिया जाना चाहिए । बंदा बैरागी का जीवन चरित्र और दोनों छोटे साहिबजादों जोराबर
सिंह जी और फते सिंह जी के बलिदान को भी सम्मान जनक स्थान दिया जाना चाहिए।
मेरा पाँचवा सुझाव है कि लाल किला, कुतुबमीनार आदि पुरातात्विक महत्व की इमारतों के निर्माणकाल और उनके
मूल निर्माताओं को लेकर भी अनेक भ्रम स्थापित किये गए हैं। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर इनके मूल
निर्माताओं के नाम पुनः प्रकाश में लाए जाने चाहिए भले ही जीर्णोद्धार कराने वालों में यदि मुगलों या अन्य
आक्रान्ताओं के नाम आएँ तो उन्हें उसी रूप में उद्दृत किया जाए।