संयोग गुप्ता
भारतीय संविधान के एक अनुच्छेद 370 में संशोधन से पाकिस्तान इतना बौखलाया हुआ है कि भारत के
खिलाफ इस मुद्दे को लेकर विभिन्न देशों का समर्थन पाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है,
लेकिन उसे इसमें रत्ती भर भी सफलता नहीं मिलती दिखाई दे रही। पिछले दिनों जेनेवा में संयुक्त राष्ट्र
मानवाधिकार परिषद का सम्मेलन हुआ था , जिसमें भारत और पाकिस्तान दोनों ने भाग लिया था।
पाकिस्तान ने प्रयास किया कि इस सम्मेलन में भारत के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया जाए। पाकिस्तान
की इच्छा यह थी कि सम्मेलन कहे कि कश्मीर घाटी में मानवाधिकारों का हनन हो रहा था जिसे रोका
जाना चाहिए। लेकिन वह अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद उतने सदस्यों का समर्थन नहीं जुटा सका
जिनके समर्थन से प्रस्ताव पेश किया जा सकता था। प्रस्ताव के पारित करवाने की बात तो बहुत दूर की
कल्पना थी, अलबत्ता जेनेवा के इस सम्मेलन में बहुत से बलोच पाकिस्तान पर यह आरोप लगाते हुए
प्रदर्शन करते रहे कि बलूचिस्तान में पाकिस्तान मानवाधिकारों का हनन ही नहीं बल्कि उनकी हत्या भी
करवा रहा था। जेनेवा में पाकिस्तान हाय तौबा करता रहा, लेकिन सभी देशों ने अनुच्छेद 370 को भारत
का आंतरिक मसला ही माना। जेनेवा के इस सम्मेलन के बाद अमरीका में संयुक्त राष्ट्र संघ की
महासभा का सम्मेलन था। सम्मेलन से कई दिन पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान के
प्रधानमंत्री इमरान खान नियाजी अमरीका में थे। ह्युस्टन में भारतीय मूल के लगभग साठ हजार
अमरीकी नागरिक एक जनसभा में नरेंद्र मोदी को सुनने के लिए एकत्रित हुए, जो अमरीका के
राजनीतिक इतिहास की अकल्पनीय घटना थी। इतना ही नहीं उस जनसभा में अमरीका के राष्ट्रपति ट्रंप
भी हाजिर थे और उन्होंने जनसभा में बोलते हुए भारत की प्रशंसा ही नहीं की बल्कि यह भी माना कि
दुनिया भर में रेडिकल इस्लाम ही आतंकवाद का जिम्मेदार था। इसके कई दिन बाद तक इमरान खान
सफाई देते रहे कि इस्लाम का आतंकवाद से कुछ लेना-देना नहीं है। इमरान खान अमरीका में बहुत
प्रयास करते रहे कि अमरीका कश्मीर को लेकर भारत को प्रश्नित करे। लेकिन ट्रंप से लेकर वहां के
सांसद तक यही मानते रहे कि यह भारत का आंतरिक मामला है और पाकिस्तान को इस पर भारत से
ही बात करनी चाहिए।
ट्रंप का कहना था कि अमरीका तो तभी मध्यस्थ बनने की सोचेगा यदि भारत भी इस पर सहमत हो।
इस पर मोदी ने पत्रकार वार्ता में ट्रंप के सामने ही स्पष्ट कर दिया कि भारत इसके लिए अमरीका को
कष्ट नहीं देगा। इतना ही नहीं मोदी ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि 1947 से पहले पाकिस्तान भी
हमारा ही हिस्सा था। इसलिए भारत और पाकिस्तान को बातचीत के लिए किसी तीसरे देश की
मध्यस्थता की जरूरत नहीं है। पाकिस्तान को आशा थी कि कम से कम मुसलमान देश तो एक जुट
होकर पाकिस्तान की सहायता करेंगे, लेकिन तुर्की को छोड़कर किसी भी देश ने पाकिस्तान का साथ नहीं
दिया। इतना ही नहीं अनेक मुस्लिम देशों ने तो स्पष्ट कहा कि कश्मीर भारत का आंतरिक मामला है।
जिन दिनों पाकिस्तान मुस्लिम देशों का समर्थन पाने के लिए नगर-नगर भटक रहा था, उन दिनों
मुसलमान देश नरेंद्र मोदी को अपने देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान प्रदान करने के लिए कार्यक्रमों का
आयोजन कर रहे थे। पाकिस्तान इस खामख्याली में था कि दुनिया के मुसलमान देश उसे अपना नेता
स्वीकार कर रहे हैं और आनन-फानन में भारत के खिलाफ , उसके साथ खड़े नजर आएंगे। लेकिन यह
पाकिस्तान का सबसे बड़ा भ्रम था। अरब लोग पाकिस्तान के मुसलमान को अव्वल तो मुसलमान मानते
ही नहीं, यदि मानते भी हैं तो उन्हें अपने मुकाबले दोयम दर्जे का समझते हैं। उनके लिए हिंदुस्तान या
पाकिस्तान का मुसलमान भला अरब के मुसलमान का लीडर कैसे हो सकता था? इमरान खान को यह
बात कितनी समझ आई होगी, इसके बारे में कहना तो मुश्किल है, लेकिन पाकिस्तान का अकादमिक
जगत इस बात को निश्चय ही समझ गया है। पाकिस्तान के जाने माने पत्रकार जावेद नकवी ने जिन्ना
द्वारा स्थापित अंग्रेजी अखबार डॉन में पूरे घटनाक्रम पर टिप्पणी करते हुए लिखा कि कश्मीर के इस
घटनाक्रम से हमें एक ही सीख लेनी चाहिए कि पाकिस्तान को मजहबी घेराबंदी से बाहर निकल कर
अपनी पुरानी सांस्कृतिक जड़ों की तलाश करनी चाहिए और उससे जुड़ना चाहिए। शायद यही बात एक
और तरीके से मोदी ने अमरीका में कही थी कि 1947 से पहले भारत और पाकिस्तान एक ही थे।
पाकिस्तान को बात समझ में आ जाए तो शायद दोनों देशों में कोई समस्या बचे ही न।