परीक्षा’ आधारित शिक्षा अंक तो दिलाती है ज्ञान नहीं दे पाती

asiakhabar.com | November 17, 2017 | 12:01 pm IST

17 Nov, शिक्षा का मकसद डर पैदा करना नहीं, बल्कि डर के चरित्र को समझ कर उससे कैसे जूझा जाए इसकी समझ देना है। लेकिन हमें शिक्षा की प्रकृति और इसकी अन्य सहगामी क्रियाओं को भी समझना होगा। शिक्षा जीवन जीने की बेहतर कला और समझ विकसित करने के लिए होती है। फिर यह सवाल ही क्यों उठा कि शिक्षा डरती है। कई बार बल्कि वर्तमान समय में शिक्षा बच्चों में भय का माहौल पैदा करती है। दरअसल शिक्षा की बुनियादी बुनावट की परतों को खोल लें तो यह दिक्कत नहीं आएगी। शिक्षा कोई व्यक्तिवाचक नहीं है कि वो किसी को भी डराए या भय सृजित करे। बल्कि शिक्षा निश्चित ही बेहतर जीवन के लिए मनुष्य को तैयार करने में योगदान देती है। वास्तव में डर शिक्षा नहीं बल्कि उसकी सहगामी परीक्षा की वजह से पैदा होता है। परीक्षा भी वह जो सिर्फ पठित, दस्तावेजित सूचनाओं और तथाकथित समझ एवं ज्ञान को पुनर्लेखन पर जोर देती है। परीक्षा की मूल प्रकृति छात्र की समझ, तर्कणा शक्ति, कल्पनाशीलता आदि की गहराई मापना नहीं है। परीक्षा सिर्फ पूर्व पठित पाठों की सूचना बैंक के खाते बही को जांचने का काम करती है।

परीक्षा की प्रकृति वस्तुपरक सूचना व ज्ञान को जांचना है न कि विषयी समझ की। यही कारण है कि शिक्षा आज के छात्रों के लिए न केवल बोझिल हो चुकी है बल्कि एक गैर जरूरी, गैर उत्पादक कार्य का रूप ले चुकी है। परीक्षा आधारित शिक्षा दरअसल कुछ सवालों, बहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर छांटने में बच्चों की तमाम ताकत लगा देती है। परीक्षा और शिक्षा के बीच के अंतरसंबंधों को कई बार परिभाषित और लागू करने पर जोर दिया गया है। कभी परीक्षा को अहम बनाया गया तो कभी परीक्षा की उपयोगिता को बच्चे की शिक्षा से दूर भी किया गया। बोर्ड परीक्षा की आवश्यकता को कुछ साल पहले हटा दिया गया था। लेकिन इस वर्ष विभिन्न शिक्षाविदों के समिति ने दुबारा परीक्षा की उपयोगिता को रेखांकित करते हुए 2018 से बोर्ड परीक्षा को लागू करने का निर्णय लिया गया है। एक बात तो स्पष्ट होती है कि जब जब सरकारें बदली हैं तब तब शिक्षा की प्रकृति के साथ छेड़छाड़ किया गया है।
बच्चे शिक्षा को बाजार और रोजगार के औजार के रूप में देखते और परखते हैं। यदि शिक्षा तथाकथित पाठ्यक्रम रोजगार, मोटे पैकेज, मान प्रतिष्ठा आदि दिला सकती है तो वह शिक्षा ही बेहतर है। ज्ञान और समझ से उन्हें कुछ लेना देना नहीं है। उनके अभिभावकों को अपने विषय व पठित सामग्रियों की कितनी समझ और बोध है उससे उन्हें कोई खास वास्ता नहीं है। उन्हें इससे भी कोई दरकार नहीं है कि उनके अभिभावकों ने अपने जीवन में कितनी मेहनत व परिश्रम किए। उनके लिए वह महज तात्कालिक और समय के अनुसार जायज श्रम रहा होगा। आज की तारीख में ढिबरी, लालर्टन में पढ़ने, चना फांक कर स्कूल जाने जैसे श्रम सिर्फ हास्य के विषय हैं। वे कह सकते हैं कि ठीक है आपने अपने समय में इन्हें किया होगा। लेकिन आज की तारीख में तकनीक है, संचार माध्यम हैं हमें वे सब करने की क्या आवश्यकता है आदि। कहीं न कहीं उनके तर्क शास्त्र को समझने की कोशिश करें तो पाएंगे कि उनका तर्कज्ञान और समझ कहीं न कहीं तात्कालिक प्राप्ति जैसे बाजार सृजित लाभ के दर्शन से संचालित होते हैं। उन्हें अपने भविष्य की रणनीति बनाने में भी यही बाजार दर्शन मदद करता है।
बाजार दर्शन जब आज के बच्चों की शिक्षा और परीक्षा की प्रकृति को संचालित और गठित करने लगे तो यह एक गहरे शैक्षिक चिंतन की मांग करती है। बाजार शिक्षा और परीक्षा की किस प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कर रहा है इसे भी विमर्श के केंद्र में लाने की आवश्यकता है। परीक्षाएं जब भी आती हैं अपने साथ बाजारीय सलाहों, रायबहादुरों की दुकानें साथ लेकर आती हैं। मसलन क्या खाएं, कितना सोएं, क्या डाइट्स लिए जाएं, किन किन किताबों की मदद ली जाए आदि। अखबारों के पन्ने और न्यूज चैनल्स में एक्स्पर्ट अपनी रायों की बौछार करना शुरू कर देते हैं। लेकिन विचार करने की आवश्यकता यह है कि क्या उन रायों से बच्चों को कोई या किसी भी किस्म की मदद मिल पाती है। मां−बाप, अभिभावकों को विशेष चिंता यह होती है कि बारहवीं के बाद उनका बच्चा क्या करेगा? किस कोर्स में जाएगा? कितने मार्क्स आएंगे? आदि। यह सवाल तब उठने लगते हैं जब हमारे बच्चे हमारे सामने समय काटते नजर आते हैं। हमारी चिंता तो यह भी होती है कि आने वाले दिनों और चुनौतियों से उनका बच्चा कैसे सामना करेगा।
आज की शिक्षा वास्तव में परीक्षाएं तो पार लगा देती है लेकिन समझ की नैया नहीं पार हो पाती। इसे ऐसे समझें कि जब दसवीं, बारहवीं या ग्रेजूएट हो चुके बच्चों को कुछ गद्य लिखने को दिए जाते हैं तब उनकी भाषा साथ छोड़ देती है। न केवल भाषायी स्तर पर उन्हें दिक्कतें आती हैं, बल्कि वैचारिक तौर पर भी उन्हें बहुत मसक्कत करनी पड़ती है। इसके पीछे कारणों की पड़ताल करें तो पाएंगे कि शिक्षा के साथ साथ चलने वाली परीक्षा उन्हें महज वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के हल करना ही सिखाती है। बहुवैकल्विक सवालों के जवाब देकर अस्सी नब्बे प्रतिशत की सीमा भी आसानी से लांघ लेते हैं। लेकिन जब व्याख्या या अपने शब्दों में लिखने की बारी आती है तब उन्हें खासा परेशानी होती है क्योंकि इसकी तालीम तो उन्हें दी ही नहीं गई। अगर वर्ष याद करें तो 2006 से पहले सीबीएसई की प्रश्न पत्रों की प्रकृति विषयनिष्ठ हुआ करती थी। यानी जिसमें निबंध लेखन, व्याख्या, टिप्पणी आदि लिखना होता था। लेकिन 2006 के बाद तमाम प्रश्न पत्रों को वस्तुनिष्ठ कर दिया गया। क्या भाषा और क्या अन्य विषय। शिक्षा के क्षेत्र में वस्तुनिष्ठ प्रश्नों का प्रवेश एक प्रकार से बच्चे की विषयजन्य समझ को छिछला करना साबित हुआ। मसलन भाषा में बच्चे नब्बे से ज्यादा अंक लाते हैं लेकिन एक गद्यांश तक सही तरीके से नहीं लिख पाते।
असर की रिपोर्ट हो या ग्लोबल एजूकेशन मोनिटरिंग रिपोर्ट 2017−18 इन तमाम रिपोर्टों की मानें तो हमारे बच्चे प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने वाले लाखों बच्चों को बुनियादी किताबों को पढ़ने में दिक्कतें आती हैं। बच्चे साधारण से वाक्य को पढ़ और लिख नहीं पाते। यह एक गंभीर समस्या है जिस ओर जीइएमआर रिपोर्ट भी इशारा करती है। रिपोर्ट की मानें तो वैश्विक स्तर पर दस करोड़ से ज्यादा बच्चों को पढ़ना नहीं आता। एनसीइआरटी की रिपोर्ट स्वयं इसे स्वीकारती है कि पैंसठ प्रतिशत बच्चों को छपे हुए टेक्स्ट को पढ़ना तो आता है लेकिन उसके अर्थ की समझ नहीं है। प्राथमिक स्तर पर बच्चों के सामने पढ़ने और लिखने जैसी भाषायी कौशलों की चुनौतियां गंभीर हैं। इससे कैसे निपटा जाए इसके लिए विभिन्न तरह की शैक्षिक गतिविधियों और शिक्षण प्रक्रियाओं को अपनाया जा रहा है। शिक्षक प्रशिक्षक लगातार इस ओर काम कर रहे हैं कि कैसे बच्चों में भाषा की बुनियादी कौशलों को विकसित करने में मदद की जाए। हाल ही में एनसीइआरटी ने आरम्भिक स्तर पर पठन की समस्या को दूर करने के लिए इ-कंटेंट एक्सपर्ट की टीम गठित की है जो बच्चों के लिए रोचक कंटेंट निर्माण करेंगे। क्योंकि पढ़ने की आदत तकरीबन बच्चों और बड़ों के बीच से कूच कर चुकी है। बच्चों में इस आदत को जगाने के लिए कंटेंट को कैसे रोचक और आकर्षक बनाया जाये, इस ओर कार्य करने की आवश्यकता है।
शिक्षा से बड़ी होती परीक्षा की भी परीक्षा की जानी चाहिए कि हम परीक्षा के नाम पर किस प्रकार की शैक्षिक समझ और जीवन मूल्यों की परीक्षा करना चाहते हैं। क्या बच्चों को वस्तुनिष्ठ सवालों यानी कुछ रटे रटाए तथ्यों, आंकड़ों, सूचनाओं या फिर दस्तावेजों की पुनर्प्राप्ति करना हमारा लक्ष्य है या फिर पठित सूचनाओं की व्याख्या, निहितार्थों की संदर्भगत विश्लेषण की समझ जांचना चाह रहे हैं। परीक्षा के मकसद स्पष्ट होने चाहिए तभी हम बच्चों को परीक्षा से समुचित परिणाम दिला पाएंगे।
आगामी अकादमिक सत्र में दसवीं कक्षा में बोर्ड परीक्षा को दुबारा शुरू किया जा रहा है। परीक्षा को लेकर विभिन्न घटकों में मंथन हुए और निर्णय लिया गया कि परीक्षा का भय व परीक्षा न होने की वजह से बच्चों में पढ़ने के प्रति ललक कम हो रही है। ललक से ज्यादा जिम्मेदारी के भाव कम हुए हैं। दीगर बात है कि पिछले दस सालों में जब परीक्षा प्रणाली को खत्म किया गया शिक्षक वर्ग की शिकायत यह रही कि बच्चों में शिक्षा, पढ़ने के प्रति स्वाभाविक लगाव व प्रतिबद्धता कम होती चली गई। जब से बच्चों को मालूम चल गया कि उन्हें कोई फेल नहीं कर सकता तब से बच्चों ने शिक्षा और शिक्षक को गंभीरता से लेना छोड़ दिया। बच्चे मुंह पर कह कर जाने लगे कि फेल कर के दिखाओ। अब हमें फेल नहीं कर सकते। यह डर काफी हद तक जायज भी है। बच्चों में परीक्षा के भय जैसे ही खत्म हुए उनमें पढ़ने−लिखने के प्रति स्वाभाविक रूझान की कमी होती रही। सवाल यह भी उठता है कि परीक्षा को दुबारा हम ला रहे हैं क्यों न परीक्षा के रूप पर भी पुनर्विचार किया जाए। किस प्रकार के सवाल, सवालों की प्रकृति आदि होंगी। केवल सूचना पुनर्लेखन के लिए परीक्षा ली जाएगी तो यह एकल समग्र विकास को धत्ता बताना ही होगा।

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