गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, कनाडा
पटल पर बदलता विश्व रहता,
कोई नट एक सा कहाँ रहता;
रूप रंग रास रचे नव चलता,
राजा या रंक सदा कब रहता!
आत्म उसका न कोई रंग बदले,
शरीर मन बदल के नाट्य करे;
दृश्य दिखलाए सबका उर निरखे,
भाव में कितने आए वह देखे!
कवि सुना रचना जग का मन बदले,
कला दिखलाके शिल्पी सुर बदले;
जगत-पति जगत रचे नित बदले,
गात चित इत्र भुरक सूक्ष्म करे!
लिप्त वह सबसे फिर भी मोह कहाँ,
नित्य प्रति जन्मे मारे जिंदा रखे;
लड़ाता कितनों को वो अपने से,
विशेष विधि सुधाये सपने ले!
चितेरा चित्त से खेल करता,
वित्त में उलझा चित चुरा लेता;
मधुमाखी से ‘मधु’ है बनवाता,
कभी नवनीत हृदय आ खाता!