शिशिर गुप्ता
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने वाली कांग्रेस पार्टी इन दिनों निश्चित रूप से संकट के दौर
से गुज़र रही है। पार्टी को इस समय जहां भारतीय जनता पार्टी जैसे मज़बूत संगठन व सत्ता के सामने ज़ोरदार
विपक्ष की भूमिका अदा करने की चुनौती है वहीं पार्टी के भीतर से ही कुछ वरिष्ठ नेता पार्टी नेतृत्व व
कामकाज को लेकर सवाल उठा रहे हैं। चार दशकों से भी अधिक समय तक पूरे देश में एकछत्र राज करने
वाली कांग्रेस के नेतागण दरअसल अपने जीवन का अधिकांश समय सत्ता में गुज़ार चुके हैं इसलिए उन्हें न तो
लंबे समय तक विपक्ष में रहने की आदत है न ही विपक्ष की राजनीति करने का अधिक अनुभव। इसलिए
वर्तमान 'संकटकालीन' समय में यदि किसी नेता का राज्य सभा का कार्यकाल समाप्त हो जाए तो स्वाभाविक
रूप से वह पुनः कम से कम राज्य सभा की सदस्यता का ख़्वाहिशमंद तो होगा ही। और यदि राज्य सभा की
सदस्यता के उसके सपने भी बिखरने लगें फिर 'इधर उधर झाँकना' या नेतृत्व अथवा नेतृत्व की कार्य क्षमता व
कार्य शैली पर सवाल उठाना भी स्वभाविक है। नेहरू-गांधी परिवार पर सीधे तौर पर उंगली उठाने का साहस
पार्टी के भीतर तो प्रायः कम ही नेताओं द्वारा किया जाता रहा है जबकि कांग्रेस विरोधी दलों के लोग कांग्रेस
में परिवारवाद की बात कहकर नेहरू-गांधी परिवार पर ऊँगली उठाने का शग़ल हमेशा ही अंजाम देते रहे हैं।
कांग्रेस पार्टी के भीतर नेहरू-गांधी परिवार की लगभग सर्व स्वीकार्यता तथा विरोधियों द्वारा नेहरू-गांधी परिवार
के विरुद्ध चलायी जाने वाली झूठी-सच्ची मुहिम,इन दोनों के ही अलग अलग कारण हैं।
कांग्रेस का प्रत्येक नेता व कार्यकर्ता इस बात से बख़ूबी वाक़िफ़ है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक यदि किसी
परिवार के लोगों को व उनके नेतृत्व को लोकप्रियता के आधार पर स्वीकार किया जाता रहा है तो वह केवल
नेहरू-गांधी परिवार ही है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि कांग्रेस आज तक कई बार विभाजित हुई, पार्टी
के कई दिग्गज नेता संकट के समय पार्टी छोड़ कर इधर उधर गए,यहां तक कि कई नेताओं ने 'अपनी अपनी
कांग्रेस' भी बना डाली परन्तु उसके बावजूद कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व नेहरू-गांधी परिवार में ही रहा। शरद पवार
जैसे ज़मीनी दिग्गज नेता ने पार्टी से अलग होकर अपनी पार्टी ज़रूर बनाई परन्तु वह भी अपनी पार्टी को
क्षेत्रीय पार्टी तक ही सीमित रख सके। इसीलिए कांग्रेस के अधिकांश बड़े छोटे नेताओं से लेकर पार्टी कार्यकर्ताओं
तक शिद्दत से यह महसूस करते हैं कि कांग्रेस को नेतृत्व प्रदान करने तथा पार्टी को एकजुट रखने से लेकर
जनता के मध्य लोकप्रियता व स्वीकार्यता तक के लिए केवल नेहरू-गांधी परिवार ही सबसे योग्य एवं उपयुक्त
घराना है।
अपनी उपरोक्त बातों के समर्थन में यहां एक घटना का उल्लेख करना चाहूंगा। केंद्र सरकार में इंदिरा गाँधी के
मंत्रिमंडल में रेल मंत्री रहे स्वर्गीय ए बी ए ग़नी ख़ान चौधरी एक बार सऊदी अरब के दौरे पर गए थे। वहां से
वापसी में वे इराक़ स्थित करबला भी गए। करबला में उन्होंने हज़रत इमाम हुसैन के रौज़े पर दोनों हाथ
उठाकर ज़ोर ज़ोर से यह दुआ मांगी कि 'ए मौला हिंदुस्तान में मोहतरमा इंदिरा गांधी को हमेशा इक़्तेदार
(पावर) में रखना '। उनके साथ खड़े उनके एक सहयोगी ने बाद में उनसे पूछा कि आपने इमाम हुसैन के रौज़े
पर अपने लिए कोई दुआ नहीं मांगी सिर्फ़ इंदिरा गांधी के इक़्तेदार के लिए ही दुआ की ? इस पर चौधरी
साहब ने जवाब दिया कि जब तक इंदिरा जी सत्ता में हैं हम लोग भी सत्ता में हैं वरना हम लोगों का अकेले
वजूद ही क्या है ? आज कांग्रेस चाहे जितनी कमज़ोर स्थिति में क्यों न हो परन्तु आज भी जितनी भीड़ देश
के किसी भी कोने में सोनिया-राहुल-व प्रियंका गाँधी को देखने व सुनने को उमड़ती है उतना आकर्षण किसी
अन्य नेता का नहीं है। लोकप्रियता की यही स्थिति पंडित जवाहर लाल नेहरू,इंदिरा गाँधी व राजीव गांधी की
भी थी। नेहरू-गांधी परिवार की इस लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण यही था कि वे पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में
बाँधकर चलने की कोशिश करते थे तथा भारतीय संविधान के अनुरूप देश को विश्व के सबसे बड़े धर्मनिरपेक्ष
लोकतंत्र के रूप में स्थापित करना चाहते थे।
नेहरू-गांधी परिवार की यही धर्मनिरपेक्ष सोच व उनकी राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता कांग्रेस विरोधियों विशेषकर संघ
परिवार व भारतीय जनता पार्टी को हमेशा खटकती रहती है। इसीलिये कभी इस परिवार पर मुस्लिम तुष्टीकरण
का आरोप लगा कर यहाँ तक कि कांग्रेस को मुसलमानों की पार्टी प्रचारित कर तो कभी देश में परिवारवाद की
राजनीति को बढ़ावा देने वाला दल बताकर,कभी भगवान राम विरोधी कहकर तो कभी पंडित नेहरू के चरित्र व
उनके ख़ानदान के बारे में भ्रमित करने वाला झूठा प्रोपेगंडा कर इस परिवार को हमेशा बदनाम करने की एक
सुनियोजित मुहिम चलाई गयी। कभी नेहरू को नेताजी सुभाष चंद्र का विरोधी प्रचारित किया गया तो कभी
सरदार पटेल का विरोधी दुष्प्रचारित किया गया। अभी एक भाजपाई नेता ने तो यह तक कह दिया कि चंद्र
शेखर आज़ाद को भी पंडित नेहरू ने ही मरवाया था। दूसरी ओर खांटी हिंदुत्व की राजनीति कर तथा अयोध्या
जैसे विषयों भावनात्मक मुद्दे उठाकर कॉंग्रेस के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी माहौल बनाया गया। यह सब इसी मक़सद
से किया गया ताकि नेहरू-गांधी परिवार के संरक्षण से कांग्रेस को अलग कर भाजपा के 'कांग्रेस मुक्त भारत '
के सपनों को साकार किया जा सके। उधर गत कुछ वर्षों से तो नेताओं की ख़रीद फ़रोख़्त का एक ऐसा दौर
शुरू हो चुका है जिससे यह पता ही नहीं चलता कि किसी भी राज्य की निर्वाचित सरकार चलेगी या गिरेगी।
सिद्धांत विहीन नेता केवल पैसों या सत्ता की लालच में धर्मनिरपेक्ष राजनीति करते करते अचानक हिंदुत्ववादी
राजनीति का चेहरा बन जाते हैं। अपराधी व भ्रष्ट नेता दल बदल कर गोया 'गंगा स्नान' कर लेते हैं।
इस अति प्रदूषित व सिद्धांतविहीन राजनीति के दौर में भी एक ओर तो राहुल व प्रियंका गांधी अपनी पूरी
क्षमता से सत्ता पर ज़बरदस्त प्रहार कर रहे हैं तो दूसरी ओर पार्टी के ही कुछ नेता सत्ता हासिल करने की
जल्दबाज़ी में कुछ ऐसे काम कर रहे हैं जो पार्टी को और भी कमज़ोर करने वाले हैं। इन सभी नेताओं को
नाम,दाम,इज़्ज़त,पहचान,शोहरत,सत्ता आदि सब कुछ इसी कांग्रेस पार्टी ने तथा इसी नेहरू-गांधी परिवार ने ही
दिया है। इनमें से ही ग़ुलाम नबी आज़ाद सरीखे कई नेता पार्टी आलाकमान के विश्वस्त सहयोगी व सलाहकार
भी रहे हैं। यह सब उस समय भी साथ थे जब राजीव गांधी शाह बानो मामले में संसद में विधेयक लाये थे,यह
तब भी साथ थे जब राजीव गाँधी ने अयोध्या में राम मंदिर का ताला खुलवाकर संघ के अयोध्या आंदोलन को
और धार दी थी। और यह तब भी साथ थे जब अमिताभ बच्चन के त्यागपत्र के बाद इलाहाबाद उपचुनाव में
विश्वनाथ प्रताप सिंह के विरुद्ध पार्टी ने सुनील शास्त्री जैसे कमज़ोर प्रत्याशी को खड़ा कर देश में गठबंधन
राजनीति का दौर शुरू किया था। यदि कांग्रेस के इन्हीं सत्ताभोगी नेताओं ने सत्ता सुख भोगने से इतर
आलाकमान को सही सलाह देने व ज़मीनी स्तर पर पार्टी का जनाधार बढ़ाने की कोशिश की होती तो शायद
आज पार्टी को यह दिन न देखने पड़ते। आज भी इनका नकारात्मक रवैया कांग्रेस को नुक़सान पहुँचाने तथा
भाजपा के 'कांग्रेस मुक्त भारत 'की आकांक्षाओं को परवान चढ़ाने वाला है। परन्तु इतिहास तो यही बताता है
कि नेहरू-गांधी परिवार के बिना कांग्रेस का भविष्य न कल कुछ था न आज है और न ही निकट भविष्य में
रहने वाला प्रतीत होता है ?