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नेपाल में भारतीय कूटनीति के समक्ष नई चुनौती खड़ी हुई है। वहां केपी ओली के फिर प्रधानमंत्री बनने की संभावना बनी है, जिनके पिछले कार्यकाल में भारत-नेपाल संबंधों में नई पेचीदगियां पैदा हुई थीं। तब ओली अपने देश की विदेश नीति को चीन के करीब ले गए थे। स्थितियां तब बदलीं, जब कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओइस्ट सेंटर) के नेता पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड ने ओली की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूनाइटेड मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट) से संबंध तोड़ा और नेपाली कांग्रेस से मिलकर नई सरकार बनाई। मगर ताजा आम चुनाव से ठीक पहले प्रचंड ने फिर पाला बदला। उसके बाद उनकी और ओली की पार्टियां गठबंधन बनाकर आम चुनाव में उतरीं। अब तक आए चुनाव नतीजों से साफ है कि इस कम्युनिस्ट गठबंधन को बड़ा जनादेश मिला है। ओली की पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है। संसद के अलावा सात में से छह प्रांतीय चुनावों में भी यही गठबंधन सबसे आगे है। भारत समर्थक मानी जाने वाली नेपाली कांग्रेस बहुत पीछे रह गई। मधेसी पार्टियों का प्रदर्शन हालांकि पिछली बार से बेहतर है, लेकिन नई संसद की कार्यवाहियों पर कोई खास असर डाल सकने की उनकी हैसियत नहीं होगी।
इस तरह नए कार्यकाल में ओली की स्थिति अधिक मजबूत होगी। क्या इससे वे देश को स्थिरता और विकास के रास्ते पर ले जाएंगे? जाहिर है, इसका अवसर उनके पास है। लेकिन ऐसा तभी संभव है, अगर अगली सरकार नए संविधान के कुछ प्रावधानों पर मधेसियों की शिकायतों का संतोषजनक हल निकाले। इन शिकायतों के कारण ही 2015 में संविधान के लागू होने के बाद मधेसी आंदोलन शुरू हुआ था, जिसको लेकर भारत और नेपाल की तत्कालीन सरकार के बीच कड़वाहट पैदा हुई। तब ओली और प्रचंड ने मधेसी आंदोलन के पीछे भारत का हाथ होने का आरोप लगाया था। ओली सरकार ने इसका जवाब चीन का हाथ थामकर दिया। लेकिन ये साफ है कि उससे नेपाल की मूलभूत समस्याएं हल नहीं हुईं। समझा जा सकता है कि मधेसियों की उपेक्षा या भारत से टकराव का रुख अपनाने से फिर कोई लाभ नहीं होगा।
बहरहाल, नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियां अब चूंकि अपनी सत्ता को लेकर अधिक आश्वस्त होंगी, अत: आशा की जानी चाहिए कि भविष्य में उन्हें अनावश्यक रूप से भारत विरोधी भावनाएं भड़काने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वैसे भारत सरकार से भी अपेक्षित है कि वह नेपाल में अब सक्रिय कूटनीति अपनाए। नेपाल की जनता ने जिन नेताओं को सत्ता सौंपने का फैसला किया है, उनसे संपर्क और संवाद बनाने की आवश्यकता है। नेपाल में चीन की पैठ बढ़ना भारत के हित में कतई नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली नेपाल यात्रा के दौरान वहां की जनता की व्यापक सद्भावना उन्हें मिली थी। उस माहौल को पुनर्जीवित करने की जरूरत है। नेपाल से भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रिश्ते रहे हैं। इन्हें कायम रखना दोनों देशों के हित में है। भारत और नेपाल के नेता इस समझदारी से चलें, तो पुरानी बातों को भूलकर एक नई शुरुआत की जा सकती है।