एक प्रसिद्ध इटालियन नाटक है जिसका नाम है ‘एक लेखक की तलाश में छह चरित्र’। यह एक
विवादास्पद नाटक है जिसमें नाटक की प्रस्तुति पर बार-बार ‘मैड हाउस…मैड हाउस’ जोर से चिल्लाया
जाता है। यह एक शास्त्रीय नाटक है जो अन्य स्थानों पर निरस्त हो जाने के बाद मिलान में लोकप्रियता
हासिल कर लेता है। यह एक ऐेसी स्थिति की याद छोड़ जाता है जिसमें लेखक द्वारा स्वयं सृजित किया
गया एक कैरेक्टर गुम हो जाता है और खिन्नता में लेखक की तलाश शुरू हो जाती है। आज भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस भी ऐसी ही विशिष्ट स्थिति में है जहां लेखक की सृष्ट वस्तु नहीं जानती है कि वह कहां
है। हालांकि इस पार्टी की परिकल्पना एक अंगे्रज एओ ह्यूम ने की थी, इसके बावजूद इसे राष्ट्रपिता
महात्मा गांधी की पहचान से ज्यादा जोड़ा जाता है। गांधी ने इसे ज्वाइन किया तथा कभी सामने से तो
कभी दूरी से इसका नेतृत्व किया, किंतु वे इसे डिक्टेट करते रहे, वहीं से जहां वह थे। इस तरह यह पार्टी
गांधी की पार्टी का पर्यायवाची बन गई। चाहे खिलाफत आंदोलन रहा हो अथवा सुभाष चंद्र बोस का चुनाव
रहा हो या भगत सिंह को बचाने को लेकर लड़ाई रही हो, अंततः यह गांधी जी ही थे जो पार्टी की
अवस्थिति को निर्देशित करते रहे। यहां तक कि देश का प्रधानमंत्री कौन हो, इस संबंध में निर्णय भी
बापू के कहे अनुसार हुआ, भले ही बहुमत यह चाहता था कि सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाया जाए।
क्षेत्रीय नेताओं और कमेटियों की राय चाहे कुछ भी रही हो, पार्टी में सिर्फ गांधी जी की आवाज सुनी गई।
जवाहर लाल नेहरू का लोकतांत्रिक भारत के नेता के रूप में आरोहण भारत में एक महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम
था। यह इसलिए कि मोती लाल नेहरू के बाद जवाहर लाल ने उस वंश परंपरा की नींव रखी जिसने
कांग्रेस पार्टी को नेतृत्व उपलब्ध करवाया। हालांकि थोड़े-थोड़े अंतराल के लिए नरसिम्हा राव, देवेगौड़ा तथा
इंद्र कुमार गुजराल इस पार्टी में शीर्षस्थ पर रहे, किंतु अधिकतर समय गांधी परिवार ने ही इसका नेतृत्व
किया। इनमें नेहरू के बाद इंदिरा गांधी, राजीव गांधी व सोनिया गांधी के नाम शामिल हैं। सोनिया गांधी
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की चेयरपर्सन के रूप में आधिपत्य रखती थी, जबकि मनमोहन सिंह खुशी-
खुशी से छाया प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करते रहे। पार्टी पर गांधी परिवार का राज इस कदर रहा कि
राहुल गांधी ने एक बार बिना किसी आधिकारिक पद के प्रधानमंत्री के एक अध्यादेश को सार्वजनिक रूप
से फाड़ कर निर्वाचित सरकार के जनादेश को चुनौती पेश कर डाली। यह सभी को मालूम था कि पार्टी में
उत्तराधिकारी कौन था, किंतु इसके लिए आधिकारिक घोषणा की जरूरत थी जो कि नहीं हो रही थी। कोई
भी व्यक्ति कांग्रेस का सामने से नेतृत्व नहीं कर रहा था तथा इसकी जरूरत मुश्किल समय में, खासकर
चुनाव के समय में थी। राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद
कांग्रेस ने अक्खड़पन में यह परिकल्पना कर ली कि वह पुराने गौरव को वापस हासिल करने के रास्ते पर
आ गई है। यह परिकल्पना एक निश्चित मीडिया के गलत और आधारहीन प्रचार पर आधारित थी।
वास्तव में राहुल गांधी के कुछ सलाहकारों ने इन राज्यों में जीत के बाद पार्टी के लिए बहुमत की घोषणा
के लिए विस्तृत और खर्चीली रिसर्च की। इन तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव के जो परिणाम सामने
आए, उससे राहुल गांधी को विश्वास हो गया कि उनका नेतृत्व पार्टी को पुनर्जीवित करने में सफल हो
गया है। किसी ने भी यह अपेक्षा नहीं की थी कि भाजपा स्वयं ही बहुमत हासिल करके अपने बूते ही
सरकार बना लेगी। केवल इसी कॉलम में अनुमान व्यक्त किया गया था कि भाजपा अपने बल पर ही
सरकार का निर्माण कर लेगी। यह अनुमान हमारे अकाट्य सर्वे के आधार पर व्यक्त किया गया था,
हालांकि उस समय कुछ आलोचकों ने इसका मजाक भी उड़ाया था। यह अनुमान लगाया गया था कि
मिश्रित परिणाम परिदृश्य को धुंधला कर देंगे। लेकिन इन अपेक्षाओं के विपरीत आए परिणामों से कांग्रेस
व्यथित हो गई क्योंकि उसने कभी भी भाजपा के लिए इस तरह के शानदार बहुमत की बात सोची तक
नहीं थी। कांग्रेस परिवार से जुड़े नेताओं के चेहरों पर उदासी व भय के भाव आसानी से हर कोई पढ़
सकता है। राहुल गांधी ने अपने सपने का अनुगमन छोड़ दिया तथा पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे
दिया। उनके इस्तीफे की पेशकश को पहले पार्टी में गंभीरता के साथ नहीं लिया गया, लेकिन बाद में
एहसास हो गया कि राहुल गांधी इस विषय को लेकर गंभीर हैं तथा पार्टी की हार की जिम्मेवारी लेते हुए
वह इस्तीफा दे रहे हैं। अब पार्टी नेतृत्व के बिना ही चल रही है। पार्टी के साथ समस्या यह है कि इसमें
नेतृत्व का अभाव है। चुनाव से पहले महागठबंधन ने राहुल गांधी अथवा किसी और का नेतृत्व स्वीकार
नहीं किया। चुनाव के बाद परिणाम आने से पहले महागठबंधन में कई दावेदारों ने अपने-अपने दावे
जताने के लिए खूब भागदौड़ की। इनमें ममता बैनर्जी, चंद्रबाबू नायडू और मायावती प्रमुख रूप से शामिल
हैं। लेकिन चुनाव परिणामों ने उनके सपनों को इस तरह धो डाला कि उनके लिए अब कोई आशा ही नहीं
बची है। राहुल ने खुद को प्रधानमंत्री की कुर्सी के करीब पाया और वह इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने
‘चौकीदार चोर है’ जैसे आधारहीन नारे दे दिए और सोचा कि इसके जरिए वह जादुई जीत हासिल कर
लेंगे। लेकिन ये सब चुनाव के बाद बौने साबित हुए तथा उनके पुनरुत्थान के अब कोई अवसर नहीं हैं।
अब समस्या यह है कि कांग्रेस की पराजय से राजनीति में आया शून्य भरना मुश्किल हो गया है तथा
कांगे्रस परिवार में भी उदासी छाई हुई है। किसी ने भी यह नहीं सोचा था कि कांग्रेसी उन्हें उपलब्ध
गांधी परिवार की छत्रछाया से वंचित हो जाएंगे। कठिन दिनों में यही परिवार कांग्रेस की किश्ती को
किनारा लगाया करता था। कांग्रेस के आधिपत्य से एक के बाद एक राज्य बाहर हो रहे हैं। यहां तक कि
जिस कर्नाटक राज्य में सत्ता पाने के लिए कांग्रेस की सोनिया गांधी ने मास्टर स्ट्रोक खेला था, वह भी
उसके आधिपत्य से दूर होता चला जा रहा है। इस राज्य में कांग्रेस ने बहुमत हासिल किए बगैर ही अपने
मास्टर स्ट्रोक से सत्ता हासिल कर ली थी। अब पार्टी में परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। कोई युवा नेतृत्व
सामने आएगा अथवा पुराने कांग्रेसी इस मसले को मिलकर सुलझा लेंगे, यह देखना शेष है, किंतु गांधी
परिवार से इतर नए चेहरे की खोज के लिए योजना को अंजाम देना ही होगा।