एक स्कूल की नाबालिग छात्रा ने अपने स्कूल के दोािक्षकों के यौन उत्पीड़न करने और बाद में फेल होने की वजह से आत्महत्या कर ली। खबर लगी है कि दो शिक्षकों के खिलाफ पॉक्सो के साथ-साथ भारतीय दण्ड संहिता की आपराधिक धारा 306 और 506 में केस दर्ज किया गया है। इस छात्रा के परिवारजनों का कहना कि वह कई दिनों से बहुत दबाव व तनाव में थी। तकलीफ की बात है जिस विद्या के मंदिर में रक्षक ही भक्षक बन जाएं वहां हम समाज को क्या संदेश दे पाएंगे। कहना न होगा कि देश व प्रदेशों के मुख्तलिफ हिस्सों में लड़कियों व महिलाओं के साथ घटने वाली यौन उत्पीड़न की वारदातों ने देश व समाज को झकझोर कर रख दिया है। लगता है निर्भया यौन उत्पीड़न की घटना के बाद समाज की सोच में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। इसी कारण देश में यौन हिंसा की लगातार बढ़ती घटनाओं को लेकर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं भी आ रहीं हैं। केवल इतना ही नहीं ऐसी घटनाओं को रोकने के सभी उपाय भी निष्फल हो रहे हैं। देश-विदेश के स्तर पर जो भी रिपोर्ट आ रहीं हैं, वे भी सब की सब यौन हिंसा के बढ़ते ग्राफ की ओर ही इशारा कर रहीं हैं। देश में यौन उत्पीड़न की लगातार इन वारदातों से न केवल देश में,बल्कि विदेशों तक में अपनी किरकिरी हो रही है। यौन उत्पीड़न की अधिकांश घटनाएं आज कानूनविदों व समाजशास्त्रियों को सोचने को मजबूर कर रहीं हैं। इस संदर्भ में गृह मंत्रालय से जुड़े आंकड़े खुलासा करते हैं कि भारत में यौन उत्पीड़न के मामले में लगभग 93 फीसद दोषी पीड़िता के ही परिचित होते हैं। आंकड़ों से यह भी साफ हुआ है कि 49 फीसद बलात्कार की घटनाओं में तो पीड़िता की आयु 18 साल से भी कम पाई गयी। दूसरी ओर, 18-20 आयु वर्ग में यह दर 34 फीसद तक रही। इन आंकड़ों की तकलीफदेह तस्वीर यह है कि 31 फीसद यौन हिंसा व छेड़खानी में पीड़ित लड़कियों की उम्र 14 साल से भी कम रही। दरअसल, मामला चाहे महिला छेड़छाड़ का हो अथवा यौन हिंसा का, इन सभी घटनाओं को अब किसी एक सामाजिक पैमाने से नहीं मापा जा सकता। आज इसके गहन अध्ययन के लिए एक बहुआयामी वस्तुनिष्ठ उपागम की जरूरत महसूस की जा रही है। लेकिन फिर भी लगातार बढ़ती यौन हिंसाओं की इन घटनाओं पर कम-से-कम एक हालिया समाज-मनोवैज्ञानिक दृष्टिपात जरूरी हो जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि सूचना तकनीक ने आज की दुनिया में एक खलबली मचा दी है। गांवों से लेकर महानगरों तक मोबाइल व इंटरनेट ने बच्चों, युवाओं व महिलाओं के बीच अपना पूरा दखल बना लिया है। असल स्थिति यह है कि आप सड़क के किनारे तक से दस-बीस रुपयों का इंटरनेट सिम खरीदकर पूरी दुनिया की सैर कर सकते हैं। यहां तक कि पोर्न साहित्य तक भी इन्हीं सिम में कैद है। संयुक्त परिवार के टूटने और छोटे परिवारों में मां-बाप और बच्चों के बीच बढ़ती दूरी व संवादहीनता ने टीन एजर्स के बीच सोशल मीडिया के रूप में संवाद का एक नया ‘‘नेटीजन पीयर ग्रुप’ पैदा कर दिया है। ध्यान रहे यह नेटीजन समूह ही उनके हर तरीके के सुख-दुख में पूरी तरह हमसाज है। मां-बाप को इस सचाई को समझने की फुर्सत ही नहीं है कि पोर्न उनके बच्चों के बेडरूम तक पहुंच गया है। उल्टे वे इस सचाई से दूर भाग रहे हैं। सच तो यह है कि पोर्न का प्रभाव ही यौन सबंधों के ढांचे को नई यौन प्रयोगशाला में रूपांतरित कर रहा है। बढ़ते यौन आवेग के पीछे कहीं-न-कहीं इस मुद्दे को भी समाहित करना समीचीन होगा। दूसरी ओर, इस संदर्भ में यह भी देखने में आ रहा है कि आज सबसे अधिक हिंसा उन लड़के-लड़कियों पर हो रही है, जो समाज के कमजोर सामाजिक-आर्थिक वर्ग से आते हैं। आज इस यौन शोषण में बाहुबलियों और दबंगों के नाम लिखाना भी बड़ी शान की बात मानी जा रही है। इसके अलावा, इसमें खाप पंचायतों के निर्णय, जादू-टोने और ऑनर किलिंग की बातें भी सामने आ रहीं हैं। तीसरे; यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 16 दिसम्बर को दिल्ली में हुए निर्भया कांड के पश्चात बलात्कार के दोषियों के प्रति कानून की सख्ती हुई है। सबसे दुखद तो यह है कि यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों में राजनीति और कानून से जुड़े पुरोधाओं के गैरजिम्मेदाराना बयानों ने भी इन व्याभिचारियों के हौसले बुलंद किए हैं। कड़वा सच यह है कि यौन दुष्कृत्यों से जुड़ी इन सभी घटनाओं के पीछे छिपा वह सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण भी है, जिसे हमने अपनी खुली बाजारू अर्थव्यवस्था और जाति व धर्म पर आधारित सामाजिक वैमनस्य और दबंगई राजनीति से तैयार किया है।