सुनील चौरसिया ‘सावन
गरीबी और भूख की न कोई जाति होती है न धर्म। जैसे कुछ लोगों को कण-कण में भूत और भगवान दिखता है वैसे ही भूखों को कण-कण में रोटी की उम्मीद दिखती है, लेकिन वह उम्मीद उम्मीद ही रह जाती है। दुनिया की सबसे गंभीर लाइलाज बीमारी है भूख; जो मरते दम तक ग़रीब का पीछा नहीं छोड़ती है।
आदर्श से मुक्त और यथार्थ से युक्त कहानी सुनिए। वर्ष 2010 की बात है। जाड़े की रात थी । मैं गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर घर अर्थात् रामकोला जाने वाली गाड़ी का इंतजार कर रहा था। रात्रि के लगभग 12:00 बज रहे थे। कुछ यात्री रेलवे स्टेशन के फर्श पर चादर बिछा कर सो रहे थे तो कुछ बैठे- बैठे ऊंघ रहे थे। कुछ यात्री गुफ्तगू कर रहे थे तो कुछ फिल्में देख रहे थे। कुछ रेलगाड़ी पर चढ़ा रहे थे तो कुछ उतर रहे थे। सबकी अपनी ज़िंदगी , सबकी अपनी दुनिया, सबकी अपनी हस्ती,सबकी अपनी मस्ती।
मेरी नज़र एक बालक पर पड़ी। फटे पुराने कपड़े। अपनी पीठ पर मैला कुचैला बोरा रखकर इधर-उधर मानो स्वतंत्रता के पश्चात् की वास्तविक आजादी को ढूंढ रहा था। उम्र लगभग 10 वर्ष। अर्धरात्रि में इतनी बेचैनी! उस बालक के प्रति मेरी जिज्ञासा बढ़ी। अपलक उसको देखता रहा।
वह बालक कूड़ेदान की तरफ बढ़ा। बोरा नीचे रखकर कूड़ेदान में हाथ डालकर कुछ ढूंढने लगा। कुछ ही देर बाद उसके चेहरे पर खुशी झलकने लगी मानो उसने पल भर के प्रयास में सत्य की खोज कर ली हो। उसने उस कूड़ेदान से 2-4 पूड़ियां निकालीं और एक पॉलीथिन भी। वहीं पॉलिथीन को खोला जिसमें से जूठी खिचड़ी निकली। कूड़ेदान के बगल में ही बैठकर पहले उसने पूड़ियां खाई फिर खिचड़ी। उसके खाने की गति इतनी तेज थी मानो कोई उससे खाना न छीन ले। ऐसा लग रहा था उसे कई दिनों बाद खाना मिला था। उसने खाने का एक दाना भी नहीं छोड़ा। खाकर पॉलिथीन उसी कूड़ेदान में फेंक दिया और हाथ काटते हुए पानी की ओर बढ़ चल दिया।
मैंने बड़ी ध्यान से उसे देखा। कड़ाके की ठंड थी। चमचमाते रेलवे स्टेशन पर पूंजीपतियों का मेला था , धनाढ्यों का रेला था। भोजन करने के बाद शायद उस भारत के भविष्य को सुकून भरी नींद लगने लगी और वहीं फर्श पर बोरा बिछा कर गहरी नींद में सो गया। मैं उसके धूमिल जीवन को समर्पित ‘रोटी और संसद’ के भावार्थ में खो गया।