नागरिकों का प्रजा में बदल जाना

asiakhabar.com | September 15, 2023 | 4:23 pm IST
View Details

-अजीत द्विवेदी-
सामंती और लोकतांत्रिक व्यवस्था में बुनियादी फर्क यह है कि लोकतंत्र में नागरिक होते हैं, जिनको संविधान से अधिकार मिले होते हैं और शासक उनकी जनरल विल यानी सामान्य इच्छा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि सामंती व्यवस्था में प्रजा होती है, जो राजा या सामंत की मर्जी का दास होती है। उसकी सामान्य इच्छा का कोई मतलब नहीं होता है। वहां राजा या सामंत सीधे भगवान का अवतार होता है। राज्य के उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत में इस बारे में विस्तार से बताया गया है। इसके मुताबिक राजा ईश्वर द्वारा चुना गया होता है। अच्छा राजा जनता के अच्छे कर्मों का प्रतिफल होता है और बुरा राजा उसके बुरे कर्मों की सजा देने के लिए होता है। आजादी के बाद भारत में लोकतंत्र अपनाया गया और एक भारी-भरकम संविधान भी बना, जिसमें नागरिकों को कई अधिकार दिए गए। सिद्धांत रूप में शासक को संविधान, संसद और जनता के प्रति जवाबदेह बनाया गया लेकिन धीरे धीरे शासक राजा बनता गया और नागरिकों को प्रजा में बदल दिया गया।वैसे यह प्रक्रिया तो आजादी के बाद से ही चल रही थी लेकिन पिछले कुछ समय से नागरिकों को प्रजा में बदलने की प्रक्रिया तेज हो गई है। पिछले दिनों रक्षाबंधन के मौके पर केंद्र सरकार ने घरेलू रसोई गैस सिलिंडर की कीमत में दो सौ रुपए की कमी की और उसके बाद कई तरह से यह बताया गया कि प्रधानमंत्री ने देश की बहनों को रक्षाबंधन की सौगात दी है। सोचें, क्या लोकतंत्र में इस तरह की शब्दावली के बारे में सोचा भी जा सकता है? सामंती व्यवस्था में इस तरह से राजा तीज-त्योहार या अपने जन्मदिन वगैरह के मौके पर सौगात बांटते थे। राजा खुश होता था तो प्रजा को उपहार दिए जाते थे। मोती लुटाए जाते थे। वही व्यवस्था अब भारत में लौट आई। यह सिर्फ केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री की बात नहीं है। सभी पार्टियों की सरकारें यह काम कर रही हैं। सब नागरिक को पौनी प्रजा बनाने में लगे हैं। सब उपहार बांट रहे हैं। कोई महिलाओं को उपहार बांट रहा है तो कोई युवाओं को। कोई किसानों को सौगात बांट रहा है तो कोई छात्रों को। साथ ही यह भी बताया जा रहा है कि अमुक राजा साहेब की ओर से यह सौगात दी गई है इसलिए जनता को उनका आभारी होना चाहिए, उनका धन्यवाद करना चाहिए और उनको चुनाव में वोट देना चाहिए।अभी भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार सामग्री जारी करने के क्रम में प्रधानमंत्री का एक पोस्टर जारी किया, जिसमें वे पगड़ी बांधे हुए लंबे डग भर रहे हैं और नीचे लिखा गया- भारत भाग्य विधाता! भाजपा ने प्रधानमंत्री को भारत भाग्य विधाता बना दिया! पांच हजार साल के इतिहास वाले देश और 140 करोड़ लोगों की आबादी के भाग्य विधाता प्रधानमंत्री हो गए! वह प्रधानमंत्री, जो खुद को कभी प्रधान सेवक कहते हैं, कभी चौकीदार कहते हैं तो कभी फकीर कहते हैं। उनको उनकी पार्टी भारत भाग्य विधाता बता रही है! रघुवीर सहाय की मशहूर कविता याद आ रही है- राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत भाग्य विधाता है, फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है। मखमल टमटम बल्लम तुरही पगड़ी छत्र चंवर के साथ, तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर जय-जय कौन कराता है। कितना दुर्भाग्य है कि कहां तो देश के 140 करोड़ लोगों को भारत का भाग्य विधाता होना था लेकिन उनकी सामान्य इच्छा से चुना गया शासक भारत भाग्य विधाता बन गया!प्रधानमंत्री या भारतीय जनता पार्टी अपवाद नहीं है। हर राज्य का मुख्यमंत्री छोटा मोटा भाग्य विधाता है। प्रधानमंत्री देश के 140 करोड़ लोगों के भाग्य विधाता हैं तो अरविंद केजरीवाल दिल्ली व पंजाब के लोगों के भाग्य विधाता हैं। शिवराज सिंह चौहान मध्य प्रदेश के तो अशोक गहलोत राजस्थान के लोगों के भाग्य विधाता हैं। देश का हर मुख्यमंत्री इन दिनों भाग्य विधाता बना है। हर राज्य में नागरिकों को प्रजा में तब्दील कर दिया गया है। उनको मुफ्त में अनाज दिया जा रहा है, मुफ्त में इलाज की सुविधा दी जा रही है, मुफ्त में बस यात्रा कराई जा रही है, सस्ती दर पर रसोई गैस के सिलिंडर दिए जा रहे हैं, महिलाओं के खाते में नकद पैसे दिए जा रहे हैं तो किसानों के खाते में सम्मान निधि भेजी जा रही है। केंद्र सरकार दावा कर रही है कि मुफ्त में वैक्सीन लगवा कर मोदीजी ने देश के 140 करोड़ लोगों की रक्षा की। संसद में खड़े होकर सत्तारूढ़ दल का एक सांसद कहता है कि देश के लोगों को प्रधानमंत्री का आभारी होना चाहिए कि उन्होंने मुफ्त में वैक्सीन लगवाई और करोड़ों लोगों को मुफ्त अनाज मुहैया करा रहे हैं। चुनाव में नमकहलाली के नाम पर वोट भी मांगे जा रहे हैं, जबकि नमक नागरिक का है। उससे सरकार हर साल करीब 40 लाख करोड़ रुपया कर वसूल रही है और कथित सौगात कितने की होगी, चार या पांच लाख करोड़ रुपए की!अगर इसे पूरे मामले का सरलीकरण करें तो यह वोट लेने का सबसे आसान तरीका बन गया है। सरकारी खजाने से पैसा निकाल कर सरकारें गरीब, महिला, मजदूर, किसान, युवा, छात्र-छात्रा आदि के नाम पर अलग अलग योजना के तहत कुछ उपहार या पैसे देती हैं। उसके बाद दावा करती हैं कि वह सौगात दे रही है या मुफ्त की रेवड़ीÓ दे रही है। देश की भोली जनता यह नहीं समझती है कि उसी के खून-पसीने की कमाई के पैसे से सरकार उसको थोड़ा बहुत कुछ दे रही है। यह दांव अभी कामयाब है। इसलिए सारी पार्टियां आजमा रही हैं। अगर इस पूरी प्रक्रिया को बारीकी से देखें तो पता चलेगा कि इस तरह के काम सरकारें अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए भी करती हैं। वोट तो उनको मिल ही रहा है, ऊपर से उनकी जिम्मेदारी कोई तय नहीं हो रही है। थोड़े से पैसे या कोई उपहार लेकर जनता खुश है। वह अपने शासकों से नहीं पूछती है कि उसने रोजगार के अवसर बनाने के लिए क्या किया या हर नागरिक के सम्मान के साथ जीने के संवैधानिक अधिकार को पूरा करने के लिए क्या किया?ऐसा लग रहा है कि सरकारों ने मुफ्त की रेवड़ीÓ बांटने या लोगों को सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने के उपायों के नाम पर फैक्टरी लगाने, उत्पादन बढ़ाने के उपाय करने, बुनियादी ढांचे का विकास करने, स्कूल-कॉलेज-अस्पताल बनवाने, नागरिकों के लिए सम्मान के साथ जीने की स्थितियां पैदा करने का काम छोड़ चुकी हैं। धीरे धीरे सब कुछ बाजार या निजी क्षेत्र के हवाले किया जा रहा है और उस स्थिति से निपटने के लिए जनता को तैयार करने की बजाय उसको थोड़े से पैसे देकर उसका रहनुमा बना जा रहा है। सरकारें रोजगार देने की बजाय आरक्षण का झुनझुना थमा रही हैं। यह वादा कर रही हैं कि निजी सेक्टर में आरक्षण की व्यवस्था करेंगे। लोग भी संतोष कर रहे हैं कि सरकारी सेक्टर में नौकरियां कहां हैं, जो सरकार कुछ करे। सवाल है कि सरकार नौकरियों के अवसर बनाने वाली योजनाएं क्यों नहीं बनाती हैं? अगर संविधान हर नागरिक को सम्मान से जीने का अधिकार देता है तो पांच किलो मुफ्त अनाज में क्या सम्मान है? असल में वोट हासिल करने के इस आसान उपाय की वजह से सरकारों ने दीर्घावधि की योजनाओं पर सोचना बंद कर दिया है और ठोस व ढांचागत विकास का काम हाशिए में डाल दिया है।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *