विनय गुप्ता
पंजाब के कद्दावर नेता एवं कई बार मुख्यमंत्री रहे सरदार प्रकाश सिंह बादल भाजपा-अकाली दल के संबंधों को
‘नाखून-मांस का रिश्ता’ करार देते थे। भाजपा का सबसे पुराना गठबंधन शिवसेना के साथ था, जो 1989 में हुआ
और दोनों ने मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ा। उसके बाद शिरोमणि अकाली दल का स्थान है, जो राष्ट्रीय जनतांत्रिक
गठबंधन (राजग) का स्थापना-सदस्य था। वे संबंध अटल बिहारी वाजपेयी के साथ ज्यादा थे, क्योंकि केंद्र की
जनता पार्टी सरकार में वाजपेयी और बादल दोनों ही मंत्री थे। वाजपेयी विदेश और बादल कृषि मंत्री थे, लिहाजा
वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के समीकरण सामने आए, तो पुराने राजनीतिक दोस्त लामबंद हुए। नतीजतन राजग
का गठन हुआ। आज शिवसेना, अकाली दल भाजपा और राजग से अलग हो चुके हैं। देश में बीजद, तृणमूल
कांग्रेस, तेलुगूदेशम पार्टी, अन्नाद्रमुक, टीआरएस, इनेलो और नेशनल कॉन्फ्रेंस आदि प्रमुख दल ऐसे हैं, जो
कमोबेश वाजपेयी काल में भाजपा-राजग के साथ रहे, लेकिन आज अलग हैं और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी बन
चुके हैं। इन दलों के नेता केंद्र में राजग सरकार के दौरान मंत्री भी रहे। कुल 25 से अधिक पार्टियों का भाजपा और
राजग से विच्छेद हुआ है। जाहिर है कि कारण बेहद महत्त्वपूर्ण होंगे और अलगाव को टाला नहीं जा सका होगा!
इन दलों ने वाजपेयी दौर के बाद घुटन महसूस की होगी। गठबंधन में उनकी अनसुनी होती रही होगी और नई
भाजपा का अहंकार भी अन्य दलों के अस्तित्व को हाशिए पर धकेल रहा होगा अथवा सहयोगी दल यह बोध
महसूस कर रहे होंगे! यकीनन ताजातरीन अलगाव भाजपा और अकाली दल का है। इसने बुजुर्ग नेता प्रकाश सिंह
बादल की संवेदना और भावुकता को झुठला दिया है और नाखून तथा मांस अलग-अलग हो गए हैं। ‘नाखून-मांस’
का रिश्ता टूट चुका है। अब पंजाब में दोनों दल एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ सकते हैं। अकाली दल अध्यक्ष
सुखबीर सिंह बादल राजग को ‘कागजी गठबंधन’ मानते हैं, क्योंकि बीते कई वर्षों से न तो कोई विमर्श है और न
ही कोई ठोस, सार्थक बैठक हुई है। प्रधानमंत्री मोदी अपने फैसले गठबंधन की दूसरी पार्टियों पर थोपना चाहते हैं
और किसी की सलाह मानने को तैयार ही नहीं हैं। बहरहाल अकाली दल का राजनीतिक प्रभाव पंजाब और हरियाणा
के बाहर बेहद सीमित है। हरियाणा में अकालियों का एक विधायक चुना गया था, जिसे भाजपा ने तोड़ लिया और
‘भाजपाई’ बना दिया। बुजुर्ग बादल इस हरकत से नाराज हुए थे। पंजाब में भी भाजपा-अकाली दल के सिर्फ 2-2
लोकसभा सांसद हैं, लेकिन करीब 37 फीसदी वोट गठबंधन के पक्ष में थे। भाजपा को भी नौ फीसदी से अधिक
वोट हासिल हुए थे। पिछले विधानसभा चुनाव से पहले ही ऐसी फुसफुसाहटें शुरू हो गई थीं कि अब भाजपा को
अकाली दल से अलग होकर चुनाव में उतरना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा अपने तरीके से
गठबंधन के संबंधों को परिभाषित करना चाहती है, लिहाजा जब लोकसभा में अंतरराज्यीय जल विवाद वाला बिल
पारित कराया गया, तो अकाली दल ने विरोध किया था। अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल ने प्रधानमंत्री मोदी को
पत्र लिखा था और पंजाब के जल-संसाधनों की कमी की आशंका जताई थी।
उसके बावजूद केंद्र में प्रचंड बहुमत वाली भाजपा सरकार ने परवाह तक नहीं की और एक वरिष्ठतम नेता की बात
को अनसुना कर दिया। कृषि के जो विवादस्पद बिल अब राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून बन चुके हैं, उन पर
विमर्श के दौरान भी देश के सर्वोच्च किसान नेता प्रकाश सिंह बादल की सलाह तक नहीं ली गई। अब तो राष्ट्रपति
भवन, संसद और प्रधानमंत्री दफ्तर, रक्षा और गृह मंत्रालयों के कार्यालयों से थोड़ी दूरी पर ही, राजपथ पर,
आंदोलित भीड़ ने एक टै्रक्टर जलाकर अपना रोष व्यक्त किया है। कृषि के नए कानूनों का विरोध और प्रदर्शन को
समझा जा सकता है। अकाली दल ने भी राजग से अलगाव इसीलिए लिया है। करीब डेढ़ साल बाद पंजाब में
विधानसभा चुनाव हैं। भाजपा और अकाली दल दोनों ही किसान और कृषि के मुद्दों पर जवाबदेही पेश करेंगे और
सत्तारूढ़ कांग्रेस हमलावर मूड में होगी। यकीनन नतीजे अप्रत्याशित ही होंगे! सतलुज-यमुना लिंक नहर के बेहद
विवादास्पद मुद्दे पर भी मौजूदा सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं कर पाई है, लिहाजा दशकों से पंजाब और हरियाणा के
बीच यह ऐसा विवाद मौजूद रहा है, जिसने कई जानें भी ली हैं। अब भाजपा-राजग के समीकरण भी पहले जैसे
सहज और स्वाभाविक नहीं रहे हैं। कृषि कानून तो बहाना बने हैं। बहरहाल राजग में जो बिखराव दिख रहा है,
उसकी नियति फिलहाल अनिश्चित ही मानी जाएगी।