नहर किनारे विकसित बूंदों की संस्कृति

asiakhabar.com | July 10, 2019 | 5:26 pm IST
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शिशिर गुप्ता

असंतुलित पर्यावरण धीरे धीरे धरती को गर्म भट्टी की तरफ धकेल रहा है। इस साल की गर्मी ने देश के
कई शहरों में एक नया रिकॉर्ड बनाया है। स्वयं देश की राजधानी दिल्ली ने इतिहास का सबसे गर्म दिन
भी देखा है। समूचा यूरोप प्रचंड गर्मी का प्रकोप झेल रहा है। ऐसी परिस्थिती में रेगिस्तानी क्षेत्रों का क्या
हाल होता होगा इसका अंदाज़ा केवल वहां के रहने वाले ही लगा सकते हैं। मानसून की देरी और सामान्य
से कम होना आग में घी का काम कर रहा है। वैसे भी थार के रेगिस्तान में बादलों से गिरने वाली बूंदों
को घी से भी महंगा माना गया है। यह गए जमाने की बात हो सकती है कि रेगिस्तान के किसी गांव में
राहगीर या मेहमान द्वारा पीने का पानी मांगे जाने पर यह कहा जाता था कि घी मांग लो, पानी मंत
मांगो। इसे गुजरे जमाने की बात मान लेना शायद भूल होगी। भले ही आज रगिस्तान में इंदिरा गांधी
नहर के पानी को देख कर लोग इतराएं, लेकिन भविष्य में वह दिन आने वाले हैं, जब जेब में पैसे तो
होंगे, लेकिन पानी नहीं होगा।
पूर्वजों ने आकाश में छाए बादलों से टपकने वाली एक-एक बूंद को मोतियों से महंगी मान कर उसे
संजोने की संस्कृति विकसित की और आने वाली पीढ़ी को पारंपरिक जल स्रोतों का एक बहुमूल्य खजाना
सौंपा था। उन्हें अपनी आंखों से सामने उजड़ते देख कर चुप रहना और संकट को देखकर कबूतर की तरह
आंख मूंद लेना विकसित होती मानव सभयता की सबसे बड़ी भूल साबित हो सकती है। एक तरफ
सरकार, राजनेताओं, स्वार्थी तत्वों की छत्रछाया में भू-माफिया, खदान माफिया और पानी माफिया पूर्वजों
द्वारा हजारों सालों से विकसित किए गए इन अमूल्य खजानों को लूटने में मशगूल हैं वहीं दूसरी तरफ
कुछ लोग और संस्थाएं पारंपरिक तरीकों व नई तकनीकों को जोड़कर ऐसे उदाहरण भी प्रस्तुत कर रहे हैं,
जिससे थार के मरूस्थल में बूंदों की संस्कृति का अस्तित्व बना रहे।
ऐसा ही एक उदाहरण पिछले कई वर्षों से बीकानेर जिले में कार्यरत एक स्वैच्छिक संगठन उरमूल ट्रस्ट
नेटवर्क से जुड़ी उरमूल सीमांत संस्था ने प्रस्तुत किया है। कोलायत ब्लॉक के बज्जू स्थित इस संस्था का
कैंपस जल संरक्षण का बेहतरीन उदाहरण है, जिसे देख कर नहर किनारे बसे लोगों को सीख मिल रही है
वहीं सरकार की पानी को लेकर बनी बड़ी-बड़ी भीमकाय योजनाएं इसके उदहारण के सामने छोटी दिखने
लगती है। उरमूल के कैंपस में बने स्टाफ क्वाटर्स, मेस, छात्रावास और कार्यालय की इमारतों की छतों पर
बरसने वाली वर्षा की एक-एक बूंद को बड़े कुंडों में सहेज कर जैविक खेती व बागवानी के कार्यों में
इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रणाली से तक़रीबन 400 फलदार पौधों को सिंचित कर बड़ा किया गया है।
इसके अतिरिक्त वर्मी कंपोस्ट खाद की यूनिट स्थापित की गई है। दूसरी ओर पांच थार नस्ल की राठी
गाएं पाली जा रही हैं, जिनका दूध कैंपस की मेस में काम आता है और गोबर से वर्मी कंपोस्ट खाद
बनाकर पौधों को दी जाती है। गायों के लिए हरा चारा और अजोला घास भी बरसात से एकत्रित किए
गए पानी से उगाई जाती है। उरमूल सीमांत के इंन्चार्ज हरबंश सिंह बताते हैं कि बरसात के बेकार बहकर
जाने वाली पानी को उपयोग कर खेती, पशुपालन और बागवानी मिश्रित टिकाऊ खेती का ऐसा माडल

विकसित करने का प्रयास किया गया है, जिसको देखकर कर हमारे क्षेत्र के किसान प्रेरित होकर इसे
अपना सकें।
उरमूल ट्रस्ट के सचिव अरविंद ओझा बताते हैं कि बज्जू का हमारा कैंपस नहर किनारे है। लेकिन कैंपस
को हरा-भरा बनाने के लिए हमने नहर के पानी का उपयोग नहीं किया, बल्कि रेगिस्तान की जल संग्रहण
की परंपरा से प्रेरित हो कर यह मॉडल बनाने का विचार आया। उन्होंने बताया कि पश्चिमी राजस्थान में
नहर आने के बाद लोग यह सोचने लगे कि अब पानी का संकट खत्म हो गया। पारंपरिक फसलों को
छोड़कर नकदी फसलो का उत्पादन करने लगे। सरकार द्वारा मुहैया कराई गई खाला पद्धति से जरूरत
से ज्यादा सिचाई करने लगे। 1991 में उरमूल ट्रस्ट के बैनर तले की गई नहर यात्रा के दौरान नहर के
अच्छे प्रभाव के साथ वाटरलागिंग जैसी समस्या भी सामने आई। नहर यात्रा के अनुभव सरकार के साथ
बांटे। सरकार ने भी सिंचाई पद्धति में कई बदलाव किए। किसानों के खेतों में डिग्गियां बनाकर फव्वारा
सिंचाई को बढ़ावा दिया गया। पर बरसात के पानी को सहेजने की बात भूल गए। नहर का पानी आना
इस क्षेत्र के लिए नेक कार्य है। लेकिन नहर आने के बाद पारंपरिक जलस्रोतों की अनदेखी का खामियाजा
नहर बंदी के दौरान देखने को मिला। नहरी क्षेत्र में पेयजल संकट उन क्षेत्रों से ज्यादा देखा गया जहां
समुदाय की निर्भरता आज भी पारंपरिक जलसंग्रहण पर निर्भर है। इसे फिर से जिंदा रखने के लिए ऐसे
उदाहरण प्रस्तुत करना जरूरी है। जिससे समुदाय को परिणाम देखकर प्रेरित किया जा सके।
यह वही नहरी क्षेत्र है, जहां लोग बूंद-बूंद पानी को सहेज कर पेयजल की व्यवस्था करते थे। पशुपालन
मिश्रित खेती करते थे। अकालों की मार झेल कर परेशान होते थे, लेकिन टूटते नहीं थे। नहर आने के
बाद सब कुछ बदल गया। ऐसे में हमने एक मॉडल विकसित किया जो वर्तमान में जलवायु परिवर्तन,
पेयजल संकट और कृषि पर आने वाले संकट के प्रभाव को कम कर सकता है। आज सरकार के पास
संसाधनों की कमी नहीं है। रेगिस्तान में बूंदों की संस्कृति के उदाहरणों की भरमार है। अलग-अलग क्षेत्रों
में समुदाय व संस्थाओं ने ऐसे मॉडल खड़े किए हैं जिनसे सीख लेकर रेगिस्तान में सदैव के लिए पानी
की समस्या को दूर किया जा सकता है। मनरेगा के तहत अपना खेत-अपना काम योजना, बोर्डर एरिया
डवलपमेंट प्रोजेक्ट, वित्त आयोग, मरू विकास, जलग्रहण, कृषि विस्तार विभाग, प्रधानमंत्री किसान
सम्मान निधि योजना आदि सभी को मिलकर ऐसे मॉडल को विस्तार रूप देने की आवश्यकता है जिससे
थार का रेगिस्तान जैविक खेती और बागवानी के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान बना सकता है। समय
आ गया है कि जैव विविधता और पर्यावरण संरक्षण को अधिक से अधिक बढ़ावा दिया जाये, ताकि
पेयजल संकट, आकाल और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम किया जा सके। आखिर बूंद-बूंद भरने
की संस्कृति ही सागर को जन्म देती है।


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