नयी विश्व व्यवस्था की कगार पर दुनिया

asiakhabar.com | July 28, 2020 | 4:49 pm IST

राजीव गोयल

जब कोविड-19 की महामारी का दौर खत्म हो जाएगा और सब कुछ सामान्य हो जाएगा तो हमारी यह दुनिया वैसी
नहीं रहेगी, जैसी इस महामारी के पहले थी। बहुत कुछ बदल चुका होगा साथ ही बदल चुका होगा मानव के सोचने
का तौर-तरीका और दुनिया की यह व्यवस्था। लगभग तीन दशक पहले जब सोवियत संघ का विघटन हो रहा था
तो उस समय उम्मीद की जा रही थी कि उदारवाद की विभिन्न विचारधाराओं तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं के बीच
का ऐतिहासिक द्वंद्व अब समाप्त हो जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसके विपरीत कुछ मजबूत राष्ट्रवादी पहचान
वाले नेताओं का दुनिया के क्षितिज पर उदय हुआ और इससे एक नए किस्म की आक्रोशवादी राजनीति शुरू हो
गयी। इस आक्रोशवादी राजनीति को अगर ध्यान से देखें तो महसूस होगा कि हमारे सामने एक नयी दुनिया अब
तक धीरे-धीरे उभर कर आ रही है। कोविड-19 की महामारी के प्रकोप ने बड़े ही धीमे ढंग से इस उभार को बढ़ावा
देना आरंभ कर दिया है। इसने कई प्रक्रियाओं को न केवल गति दी है बल्कि उसमें तेजी लाने की कोशिश में लगी
हुई है। इस बदलाव की गति में तेजी आने के फलस्वरूप एक नयी परिस्थिति का जन्म हुआ और अब उससे
संतुलन पैदा करने के लिए विभिन्न देशों की सरकारों, वाणिज्य संगठनों तथा विभिन्न समुदायों के पास बहुत
ज्यादा समय नहीं रह गया है क्योंकि उसने अपनी पूरी ताकत कोविड-19 से मुकाबले में झोंक दी है। अब उन्हें
जल्दी ही भविष्य के लिए भी निर्णय करना पड़ेगा। कोविड-19 की महामारी जैसे ही खत्म होगी, वैसे ही उदारवादी
अर्थव्यवस्था के अशक्त होने और उसके अप्रासंगिक होने के आसार बढ़ जाएंगे। चीन की अकड़ को देखकर ऐसा
लग रहा है कि अमेरिकी प्रभुत्ववादी व्यवस्था अब खत्म हो रही है और उसे चुनौतियां मिलने लगी हैं। इस महामारी
के कारण पश्चिमी देशों की इस सामाजिक और प्रशासनिक कमजोरियों को दुनिया देख रही है। यहां तक कि
यूरोपीय संघ भी अपने सदस्य देशों के बीच संसाधनों के समान वितरण को लेकर परेशान हैं। यूरोपीय संघ के कई

देशों ने साफ तौर पर चीन पर अपनी निर्भरता का इजहार किया है। उत्तरी और दक्षिणी यूरोप बंटता हुआ दिख रहा
है। उदारवादी व्यवस्था का केंद्रबिंदु कमजोर होता जा रहा है। महामारी की समाप्ति के बाद उदारवादी अर्थव्यवस्था
के और भी अप्रासंगिक होने की संभावना बढ़ती जा रही है। लेकिन यह अभी साफ नहीं हो सका है कि कौन सी
महाशक्ति आने वाले दिनों में विश्व का नेतृत्व करेगी। नेतृत्व के ध्रुव के रूप में चीन उभरता देश लग रहा है
लेकिन दुनिया के अधिकतम राष्ट्र उससे नाराज हैं। इस नाराजगी की शुरुआत कोरोना वायरस के प्रकोप की शुरुआत
के कारण हुई। उसने अपनी छवि चमकाने के लिए कई क्षेत्रों में उपकरण भी देना शुरू किया। इसके अलावा यूरोपीय
संघ के देशों में भी विभेद पैदा करने की कोशिश की। जिस तरह से उसने हांगकांग, ताइवान तथा दक्षिणी चीन
सागर से जुड़े सीमा विवाद में अपनी दादागीरी दिखाने की कोशिश की, भारत पर हमले कर और नेपाल को भारत
के विरोध में खड़ा कर जो पैंतरेबाजी की, उससे कई देश और समुदाय नाराज हैं तथा उस पर निर्भरता की फिर से
समीक्षा कर रहे हैं। या कह सकते हैं कि समीक्षा के लिए मजबूर हुए हैं। दूसरी तरफ चीन और पश्चिमी देशों के
बीच के समीकरण को देखते हुए कई देश चीन से संतुलन बनाने में लग गए हैं। उदाहरण के लिए चीन के समर्थन
में रूस खड़ा है और तब तक खड़ा रहेगा, जब तक चीन उसकी हां में हां मिलाता रहेगा, उसकी सोच का समर्थन
करता रहेगा। अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में राजनीति उतार चढ़ाव जारी हैं लेकिन सब एक दूसरे से जुड़े हुए और
इससे जो धारा निकलती है, उसके प्रवाह से भी जुड़े हुए हैं। यह प्रवाह एक तरह से केंद्रीकृत राष्ट्रवादी ताकतों के
उभार का संकेत देता है। इस नयी अवधारणा से राजनीतिक प्रक्रियाओं को बल मिलेगा तथा राष्ट्रवादी सोच मजबूत
होगी। कई सरकारें तो इस नयी स्थिति का लाभ उठाकर खुद को राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर मजबूत बना लेंगी।
यही नहीं कई देश एक दूसरे की राष्ट्रीय सुरक्षा को कमजोर करने की कोशिश भी करते नजर आएंगे साथ ही कई
देशों के नेता अपनी जनता का व्यापक समर्थन हासिल करने की कोशिश करेंगे। इन बदलावों का सबसे स्पष्ट असर
होगा कि अब तक हम जिस भूमंडलीकरण को देखते आए हैं और उसका अर्थ समझते आए हैं, उसका अंत हो
जाएगा। कई देश दूसरे देशों पर अपनी निर्भरता कम करेंगे। भारत ने जिस तरह से ‘आत्मनिर्भर राष्ट्र’ की
अवधारणा को बढ़ावा देना शुरू किया है, उससे स्पष्ट है कि वह चीन की आपूर्ति शृंखला पर अपनी निर्भरता को
कम करने के प्रति निश्चित रूप से प्रतिबद्ध है। ऐसे फैसलों का भविष्य पर भी व्यापक असर पड़ता है। इस स्थिति
में सबसे बड़ी चिंता यह है कि वैश्विक प्रयासों से सामूहिक चुनौतियों से निपटने की अंतरराष्ट्रीय समुदायों की
क्षमता पर भारी असर पड़ेगा। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने भी अपनी क्षमता का सही परिचय नहीं दिया है।
डब्ल्यूएचओ अंतरराष्ट्रीय संगठनों और कूटनीतिक हथकंडों का शिकार हो गया है। यह महामारी यकीनन दुनिया भर
में फैली अव्यवस्था पर भयंकर प्रभाव डाल रही है। अधिकांश लोग गरीबी, बेरोजगारी और गैर बराबरी के शिकार हो
रहे हैं। इन चुनौतियों को पराजित करने की बजाए महाशक्तियां संसाधनों को बचाकर भविष्य में अपनी जनता के
हितों की पूर्ति के लिए रख रही हैं। अब प्रश्न है कि क्या ऐसे संगठनों पर पहले की तरह निर्भर रहा जा सकता है
या एक नयी वैश्विक व्यवस्था की शुरुआत होने वाली है?


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