प्रकृति ने पृथ्वी पर नदियों का निर्माण निकास प्रणाली के लिए ही नहीं किया, वह तो नदी की गौण भूमिका है, जिसे अंग्रेजी भाषा ने ड्रेनेज सिस्टम कहकर और ओछा बना दिया। नदी, जो जल के रूप में प्राण प्रवाह को धरती के कोने-कोने तक पहुंचाने की व्यवस्था का हिस्सा है, उसे ड्रेनेज जैसे शब्दों ने गंदी नाली में बदलने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। जल को संस्कृत में रस भी कहा जाता है, ‘रसो विष्णु’ कहकर जल को पालन कर्ता विष्णु का रूप घोषित किया गया। यह भारत की पर्यावरणीय प्रबुद्धता का प्रमाण था। इसलिए जल को अशुद्ध करने को पाप की श्रेणी में रखा गया था। जल की शुद्धता का आदिकालीन सूत्र इस कहावत में प्रकट होता है कि रमता जोगी और बहता पानी, सदा शुद्ध रहता है। यानी पानी की शुद्धता को बनाए रखने की यह वैज्ञानिक समझ हमारी संस्कृति में पहले से ही विद्यमान रही है। आस्ट्रिया के वैज्ञानिक डा. विक्टर शौबरजर ने पिछली सदी में ही यह सिद्ध कर दिया था कि पानी बहते हुए ही अपने को शुद्ध करता है और ठहरा हुआ पानी अपनी पोषक गुणवत्ता खोने लगता है। इसलिए बांधों में रोक कर पानी की गुणवत्ता भी नष्ट होती है और नदी की अविरलता भी नष्ट होती है।
नदी का बहाव अवरुद्ध होने से नदी की अपने पानी को सतत् शुद्ध करते रहने की शक्ति भी नष्ट हो जाती है। आज के समय में नदियां ड्रेनेज सिस्टम बना दी गई हैं, जिनमें शहरों की गंदगी, कारखानों का प्रदूषित जल बहाना एक सामान्य घटना बन गई है, जिसको लेकर कोई चिंता जैसी बात दिमाग में कम ही आती है। परिणामस्वरूप देश की अधिकांश नदियां प्रदूषित होकर जीवनदायिनी स्वरूप खो कर गटर में बदलती जा रही हैं। यमुना, हिंडन, काली, गंगा, हिमाचल की सिरसा आदि अनेक नदियां, जो शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों से गुजरती हैं, भयानक प्रदूषण का शिकार हो चुकी हैं। ऐसा लगने लगा है कि नदियों की अविरलता और निर्मलता दोनों ही गौण मुद्दे हो गए हैं। हालांकि नदी शुद्धिकरण के लिए हजारों-करोड़ रुपए की योजनाएं दशकों से ही चलाई जा रही हैं, फिर भी परिणाम दिखाई नहीं देता, क्योंकि अधिक से अधिक नदियों पर बांध बनाकर उनकी अविरलता को नष्ट किया जा रहा है और सभ्यता की गंदगी को निर्लज्जता से नदियों में बहाया जा रहा है। जब सारा रासायनिक, औद्योगिक, जैविक-शहरी मल, सब तरफ से नदियों में बहाया जाता रहेगा, तो आप कितना भी प्रयास कर लें, नदी सफाई के कोई भी प्रयास पूरे नहीं पड़ सकते। अतः सबसे पहले कुछ मूल मान्यताओं को संशोधित करना जरूरी हो जाता है, पहली, नदी को बांध कर उसके बहाव को रोककर नदी के जल की शुद्धता को बनाए रखना संभव नहीं है। अतः नदी के बहाव को अवरुद्ध करने से यथासंभव बचना होगा और उसकी सीमा निर्धारित करनी होगी। दूसरी, नदियां ड्रेनेज सिस्टम नहीं, पृथ्वी की जीवनदायी रस वाहिनियां हैं, अपनी पुरानी पर्यावरण के प्रति जागरूक सभ्यता से इनकी इज्जत करना हमें सीखना होगा। इसलिए उनमें कोई भी गंदगी बहाना पाप भी है और अपराध भी। फिर नदी चाहे छोटी हो या बड़ी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। वर्तमान सभ्यता में विकास का जो रूप घड़ दिया गया है, उसमें ऐसी बात करने पर विकास विरोधी ठहराए जाने का खतरा उठाना पड़ता है। तमाम राजनीतिक दल नदियों की शुद्धता की बातें करते हैं, कसमें खाते हैं और फिर ऐसी योजनाओं को आगे बढ़ाते हैं, जो नदियों के विध्वंस के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार होती हैं। इस दोहरे चरित्र का नाम ही राजनीति होता है। यह भी है कि समाज को आगे बढ़ाने के कार्य में कुछ समझौते करने पड़ते हैं, किंतु उनकी भी सीमाएं निर्धारित की जानी चाहिएं, क्योंकि जीवन चक्र चलाए रखने के लिए शुद्ध पानी का कोई विकल्प नहीं हो सकता। 90 के दशक में जब टिहरी बांध विरोधी आंदोलन चल रहा था, तब भी ये मुद्दे उठ रहे थे। सुंदरलाल बहुगुणा जी के नेतृत्व में मैं भी दो बार बांध स्थल पर लगभग एक महीने तक धरने पर बैठा था। रोज सुबह प्रभात फेरी निकाल कर ‘गंगा को अविरल बहने दो, गंगा को निर्मल रहने दो’ के नारे लगाते हुए और भजन गाते हुए पुराने टिहरी शहर की परिक्रमा करके जनजागरण के साथ अपने संकल्प को दोहराया जाता।
बहुगुणा के लंबे उपवास आंदोलन का संबल होते एक बार तो बांध पर पुनर्विचार का वादा करने के लिए सरकार ने तत्कालीन स्पीकर रबी राय और सांसद जॉर्ज फर्नांडीस को बहुगुणा के उपवास को खुलवाने के लिए भेजा था। टिहरी तो बन गया, किंतु वह संघर्ष नए रूप में प्रो. जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद द्वारा आगे बढ़ा। उन्होंने तपोवन-विष्णुगाड, विष्णुगाड-पीपलकोटी, और सिंगोली-भटवारी बांधों, जो गंगा पर बन रहे हैं, को बंद करवाने की आवाज उठाई और अपने उपवास के 111 दिन बाद ऋषिकेश एम्स में अपने प्राणों की आहुति दे दी।
उनके संकल्प को अब आगे बढ़ा रहे हैं केरल के ब्रह्मचारी आत्म्बोधानंद। वह भी मातृ सदन में 24 अक्तूबर से उपवास पर हैं। खेद का विषय है कि स्वामी सानंद बातचीत के इंतजार में ही स्वर्गस्थ हो गए और अभी तक आत्म्बोधानंद से भी किसी ने बात नहीं की है। हम केंद्र सरकार से और उत्तराखंड सरकार से आशा करते हैं कि वे उपवासरत साधू से बात करके उनकी प्राण रक्षा का कर्त्तव्य निर्वहन करें। वर्तमान सरकार गंगा के शुद्धिकरण के लिए भी प्रतिबद्ध होने का दावा करती है। दोनों जगह एक ही दल की सरकार होने के कारण इसमें कोई वैचारिक टकराव की अड़चन होने की बात भी आड़े नहीं आ सकती है। देश में कई स्थानों से सांकेतिक उपवास द्वारा उनका समर्थन भी व्यक्त किया जा रहा है। हमारे प्रधानमंत्री ने जीरो-डिफेक्ट और जीरो इफेक्ट विकास की बात बार-बार की है। जीरो इफेक्ट का अर्थ है पर्यावरण पर शून्य प्रभाव डालने वाला विकास। इस आदर्श को ध्यान में रखा जाए, तो आत्म्बोधानंद की भावना का तत्काल आदर करते हुए उनकी प्राणरक्षा की जानी चाहिए, इससे स्वामी सानंद की आत्मा को भी कुछ शांति प्राप्त हो सकेगी।