देह को लेकर हमारी चिंता आज अनेक दिशाओं में डोलती फिरती है, हो भी क्यों न। इसी के सहारे तो दुनिया में हमारा संचरण होता है। इसे संभाल और संजो कर रखना जरूरी होता है। देह से हमारा नेह बड़ा गहरा होता है। हम देह का उत्सव मनाते हैं पर जीवन का यह उत्सव आसन्न मृत्यु-भय की छाया तले होता है। पैदा होना, जीना और समेटना जीवन का क्रम अटूट सांसारिक नियम है। याद रहे कि देह की अनोखी रचना का मूल स्वभाव या फितरत यह भी है कि वह जीवन में अपना रूप बदलता रहता है। मोटे तौर पर बचपन, युवा, प्रौढ़ता और बुढ़ापे के पड़ावों से गुजरते हुए शरीर स्थिर न रह कर निरंतर बदलता रहता है। शरीर को हमने अपनी परंपरा में कई नाम दे रखे हैं, जिनकी अलग-अलग अर्थ-छटाएं हैं। उसे काया, गात्र, कलेवर, मूर्ति, विग्रह, पिंड और भी जाने क्या-क्या नाम दिए गए हैं। हमारा शरीर शुद्ध भौतिक है पर उसे परमात्मा का गेह माना जाता है, उसका अंश भी। आप उसे जो भी समझ लें पर शरीर निरंतर बदलता रहा है। नाशवान और क्षरणशील होने पर भी पर उसकी शक्ति और उपलब्धि विलक्षण होती है। जीवनी-शक्ति (प्राण) शरीर में ही रहता है, और शरीर की सारी शक्ति उसी प्राण के जरिए ही आती है। यह अजीब-सा अंतर्विरोध है कि खुद क्षण भंगुर होने पर भी शरीर माध्यम बनता है बड़ी-बड़ी उपलब्धियों का जो खुद उसके समय के पार बहुत दूर तक जाती हैं। सचमुच शरीर कर्तृत्व की साधना का निमित्त है, और वह (जो वह नहीं है) उसे करके मिसाल स्थापित करता है। वह ऐसी भौतिक रचना वाला जैविक यंत्र है, जो बड़ा लचीला है, सीख सकता है, और स्वयं अपने को भिन्न तरीकों से ढाल सकता है यानी अनित्य होकर नित्य रचने-रचाने के लिए उद्यत यह शरीर स्वयं को निर्देशित तथा नियमित कर सकता है। भारतीय सोच में अक्सर एक रूपक की शैली में शरीर और शरीरी की जोड़ी बनती है। हम शरीर को ‘‘पुर’ (प्रासाद) यानी घर मानते हैं, और उस ‘‘पुर’ में रहने वाला ‘‘पुरु ष’ होता है। इसे आठ चक्रों और नौ द्वारों वाली देव-नगरी माना गया है। निश्चय ही देह एक संरचना है, जो स्वयं तो चेतन नहीं है पर जिसमें चेतना जरूर बसती है। जो सतत विकासशील या कहें परिवर्तनशील है अर्थात इसमें अनंत संभावनाएं छिपी हुई हैं। शरीर के रूप में मन, बुद्धि, वाणी और सारी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को साथ लेकर हमें एक अद्भुत पर बेहद नाजुक उपकरण मिला हुआ है, जो स्वतंत्र भी है और परतंत्र भी। शरीर की गति या व्यवहार सिर्फ मन और बुद्धि से ही नहीं संचालित होते; उसके लिए बाहरी परिस्थितियां भी महत्त्वपूर्ण होती हैं। दोनों संयुक्त रूप से मिल कर काम करते हैं। उपनिषद् और गीता में शरीर को रथ, आत्मा को रथ पर आरूढ़ सवारी (रथी), बुद्धि को सारथी और मन को लगाम (प्रग्रह) कहा गया है। इन्द्रियां घोड़ों की तरह हैं, जिन्हें अनियंत्रित छोड़ दिया गया तो वे शरीर को किसी भी दिशा में ले जा सकती हैं, और उसके घातक परिणाम हो सकते हैं। मात्र शरीर के साथ जुड़ने से अहंकार का भाव प्रबल होता है। इन्द्रियां और उनसे जुड़ी इच्छाएं प्रबल होती हैं, और चंचल मन को अपनी ओर खींचती रहती हैं। उनका नर्तन निरंतर चल रहा है। वैसे शरीर में त्वचा के नीचे जो कुछ भरा है, वह वीभत्स है और मलयुक्त भी। पञ्च महाभूतों अर्थात पृवी, जल, अग्नि, आकाश और वायु से निर्मिंत यह स्थूल शरीर वैसे तो कोई विशिष्टता नहीं रखता पर चैतन्य उसे प्राणवान बनाता है, और सक्रिय करता है।नचिकेता ने शरीर और भौतिक वैभव की नश्वरता और आत्मज्ञान की आवश्यकता की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया था। सांसारिक विषयों की ओर आकर्षण कठिनाइयों को जन्म देता है क्योंकि विषयों की श्रृंखला चलती ही रहती है। एक चाह पूरी हुई नहीं कि दूसरी जग जाती है। शायद इसीलिए अपने को जानो ‘‘आत्मानं विद्धि’ का आह्वान किया गया है। जो आत्मविद् नहीं होते उनके लिए शरीर भार होता है। शरीर आत्मानुभवों का साधन (भोगायतन) है। प्रिय और अप्रिय का पता शरीर के माध्यम से चल पाता है। चेतना का संस्कार शरीर को उदात्त मूल्यों की ओर ले जाता है। देह के साथ शील और करुणा जैसे मूल्यों को जीवन में इतर कर जीवन में ही मुक्ति का अनुभव संभव है। देहातीत होना संभव है, यदि देह का अनुशासन हो। योग में चित्त वृत्तियों के नियमन की बात भी यही कहती है। कहा गया है,‘‘ब्रह्म का व्यक्त रूप आनंद है, और वह शरीर में ही व्यवस्थित है।’ अत: शरीर बंधन नहीं है बशर्ते उसे संभाल कर रखा जाए। देह से देहातीत की यात्रा संभव है।