विकास गुप्ता
देश की सार्वजनिक संपत्ति को यूं कुछ पूंजीपतियों में लुटाना और झूठ और सिर्फ झूठ के बल पर शासन चलाना
एक ऐसी नई परिपाटी है जो देश के पतन का कारण बनेगी। यह कोई मज़ाक नहीं है। यह बहुत गंभीर मामला है।
पीएम केयर फंड में किसने दान दिया और कौन पीछे रह गया, यह बहस का मुद्दा बन गया है। अर्थव्यवस्था में
क्या हो रहा है, नई नौकरियां किस तरह की स्किल के लोगों को मिलेंगी, युवाशक्ति का उपयोग कैसे हो, प्रशासन
में जनता की भागीदारी कैसे हो, ये मुद्दे गायब हैं…
अमरीका के डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस, यानी न्याय विभाग ने इसी वर्ष 20 अक्तूबर को गूगल के विरुद्ध एंटी-ट्रस्ट
का मामला दायर करते हुए आरोप लगाया है कि कंपनी सर्च सर्विसेज़ के मामले में गैरकानूनी ढंग से
एकाधिकारवादी नीतियां अपना रही है जिससे प्रतियोगिता पर अंकुश लग रहे हैं। ऐसा ही 1990 में माइक्रोसॉफ्ट के
साथ भी हुआ था। अमरीकी न्याय विभाग की इस कार्यवाही के मद्देनज़र जापान सरकार ने भी अपने यहां
बहुराष्ट्रीय टेक कंपनियों को प्रतियोगी कंपनियों के प्रति न्यायोचित रुख अपनाने को कहा है। गूगल के विरुद्ध
अमरीकी न्याय विभाग का यह मामला सालों-साल चल सकता है, यह एक अलग बात है, पर वहां का प्रशासन
किसी भी एक कंपनी को इस हद तक एकाधिकारवादी होने का मौका नहीं देता है कि प्रतियोगिता समाप्त ही हो
जाए। यह सही है कि न्याय विभाग की जद में आई कंपनियां साम, दाम, दंड, भेद आदि सभी साधनों का सहारा
लेकर अपने हितपोषण की कोशिशें करती हैं और कभी नई नौकरियां देकर, नया निवेश घोषित करके, कभी धमका
कर और कभी अपने राजनीतिक संपर्कों का लाभ उठाकर मामला दबाने की सभी संभव कोशिशें करती हैं, लेकिन
वहां कम से कम एक प्रावधान तो है जो प्रतियोगिता को जीवित रहने का मौका देता है। यह बहुत पुरानी बात नहीं
है जब फेसबुक को आस्ट्रेलिया में खबरों के लिए स्थानीय अखबारों से आय के बंटवारे की बात चली तो फेसबुक ने
आस्ट्रेलिया की खबरों को ही फेसबुक में स्थान न देने की धमकी दे डाली। यह समझना आवश्यक है कि किसी एक
बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी का किसी भी क्षेत्र में एकाधिकार देश के लिए शुभ नहीं होता और उसके लिए उचित प्रावधान
होने चाहिएं। भारत में कानूनों का जंगल है, लेकिन नई स्थितियों से पार पाने के लिए कानून हैं ही नहीं। हमारे
राजनीतिक नेता इस मामले में लगभग अनपढ़ हैं और नौकरशाही अपने में मस्त है। स्थानीय कंपनियों में निवेश
के समय सिर्फ शेयर देना या नियंत्रण की भी अनुमति देना, दो अलग-अलग बातें हैं, लेकिन इस संबंध में कोई
कानून न होने का ही परिणाम है कि विदेशी निवेश के कारण प्रोमोटरों के हाथ से प्रबंधन का नियंत्रण भी चला
जाता है और वास्तविक प्रोमोटर कंपनी से बाहर कर दिए जाते हैं। भारत का आईटी कानून 20 साल पुराना है।
बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसका अनुचित लाभ लेती हैं। पिछले वर्ष अमरीका में ही एमेजॉन ने एक ऐसा करतब
किया जो सबकी निगाह में आया। एमेजॉन के मंच पर स्वतंत्र विक्रेता अपने उत्पादों या अपने द्वारा बेचे जाने
वाले उत्पादों की लिस्टिंग कर सकते हैं और खरीददार अपने मनपसंद का सामान ले सकते हैं। एमेजॉन ने कुछ
उत्पादों की लिस्टिंग स्वयं की थी, यानी उन्हें किसी अन्य विक्रेता ने लिस्टिंग में शामिल नहीं किया था, वह
सामान सीधे एमेजॉन से ही खरीद पाना संभव था। एमेजॉन के इन उत्पादों की लिस्टिंग वहां शामिल कुल उत्पादों
का केवल एक प्रतिशत थी, लेकिन इन उत्पादों की बिक्री हुई 33 प्रतिशत। तो एमेजॉन की अपनी लिस्टिंग अपने
उत्पादों के लिए ऐसी थी कि वह सबकी नज़र में आए और उनकी बिक्री ज्यादा हो। एकाधिकार का यह भी एक
नमूना है। भारतवर्ष के संदर्भ में देखें तो विदेशी मुद्रा के संकट से निपटने के लिए नरसिंह राव सरकार ने
उदारीकरण की नीति अपनाई और विदेशी निवेश के नियमों में ढील दी। वाजपेयी सरकार में तो अरुण शौरी
विनिवेश मंत्री थे और एक पूरा मंत्रालय यह काम कर रहा था कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में निजी निवेश बढ़े
और सरकार पर उनका बोझ न रहे। सरकार बदल जाने पर वह क्रम टूट गया। अब मोदी सरकार ने निजीकरण को
लेकर बड़े कदम उठाए हैं और रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट, ओएनजीसी, इंडियन ऑयल आदि उपक्रमों में निजीकरण का
सहारा लिया है। इससे सरकार को धन कमाने का एक नया स्रोत मिला है। मैं सदा से ही निजीकरण का हिमायती
रहा हूं क्योंकि हमारे देश में सरकारी अमला ‘ग्राहक सेवा’ की अवधारणा से आज भी लगभग अनजान ही है। अंबानी
बंधुओं और अदानी जैसे कुछ गिने-चुने पूंजीपतियों ने इस नीति का दोहन किया है और देश में अपना फुटप्रिंट
बढ़ाया है। समस्या निजीकरण को लेकर नहीं है। निजीकरण तो होना ही चाहिए। व्यवसाय करना सरकार का काम
नहीं है। यह निजी संस्थाओं के हाथ में होना गलत नहीं है। समस्या है नीयत। जो उपक्रम निजी हाथों में दिए जा
रहे हैं, वे केवल अपने समर्थक कुछ पूंजीपतियों को ही दिए जा रहे हैं, चुन-चुनकर दिए जा रहे हैं, सौ रुपए का
माल दस रुपए से भी कम में बेचा जा रहा है और देश को एकाधिकारवाद की ओर धकेला जा रहा है। कानूनों के
अभाव में यह एकाधिकार अंततः इतना शक्तिशाली हो जाएगा कि सरकारें इसके सामने बौनी हो जाएंगी। चुनाव
जीतना अब इतना अधिक खर्चीला हो गया है कि कोई भी राजनीतिज्ञ काले धन के बिना चुनाव जीतने की कल्पना
ही नहीं कर सकता। चुनाव जीतकर सत्ता में बने रहने के लिए राजनीतिज्ञ इन पूंजीपतियों पर अत्यधिक निर्भर होते
चले जाएंगे और फिर इन पूंजीपतियों की मर्जी से देश चलेगा। आज राजनीति में अपराधीकरण बढ़ने का भी यही
ऐतिहासिक कारण है, अब उसके साथ बड़ी पूंजी का भी योग हो गया है जिसके परिणाम किसी भी हालत में शुभ
नहीं हो सकते। खेद का विषय है कि हम हिंदू-मुस्लिम और अर्नब-रवीश के चक्करों में ही उलझे हुए हैं और
सार्वजनिक बहस से असली मुद्दे गायब हैं। हमारी अर्थव्यवस्था का बंटाधार हो चुका है और सरकार झूठे आंकड़ों से
जनता को बहला रही है। भावना और घृणा से भरे संदेश फैलाए जा रहे हैं और भावनाएं भड़का कर चुनाव जीतने
का जुगाड़ जारी है। देश की सार्वजनिक संपत्ति को यूं कुछ पूंजीपतियों में लुटाना और झूठ और सिर्फ झूठ के बल
पर शासन चलाना एक ऐसी नई परिपाटी है जो देश के पतन का कारण बनेगी। यह कोई मज़ाक नहीं है। यह बहुत
गंभीर मामला है। पीएम केयर फंड में किसने दान दिया और कौन पीछे रह गया, यह बहस का मुद्दा बन गया है।
अर्थव्यवस्था में क्या हो रहा है, नई नौकरियां किस तरह की स्किल के लोगों को मिलेंगी, युवाशक्ति का उपयोग
कैसे हो, जनहित के कानून बनाने के लिए क्या होना चाहिए, प्रशासन में संवेदनशीलता कैसे आए, प्रशासनिक
निर्णयों में जनता की भागीदारी कैसे हो, ये मुद्दे सिरे से ही गायब हैं। मैं नहीं जानता कि यह कैसे संभव होगा।
मेरी और मुझ जैसे लोगों की आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ के समान है जिसका कोई महत्त्व नहीं है।
उससे भी बड़ी समस्या यह है कि विपक्ष भी श्रीहीन और नीतिहीन है और उसने खुद ही खुद को अप्रासंगिक बना
लिया है। जो थोड़ा-बहुत विपक्ष बचा है, वह भी इसलिए नहीं है कि उसने कुछ बड़ा अच्छा काम कर दिया, बल्कि
इसलिए है कि जनता इन धार्मिक अतिवादियों से तंग आ गई थी और वह बदलाव चाहती थी। तो लब्बोलुआब यह
है कि जनता ही जागेगी तो सुधार होगा, राजनीतिज्ञ लोग तो देश को पतन के गर्त में ले जाने के लिए कटिबद्ध
हैं ही।