ऐसा प्रतीत हो रहा है कि लोकतंत्र की परिभाषा शायद अब बदलने लगी है। विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र
कहे जाने वाले भारतवर्ष में सत्ताधीशों द्वारा अब अपनी आलोचना सुनना नापसंद किया जाने लगा है।
गत कई वर्षों से ऐसा महसूस किया जा रहा है कि शासक वर्ग द्वारा किसी न किसी बहाने अपने
विरोधियों या आलोचकों को ख़ामोश कराने के प्रयास किये जा रहे हैं। और इसके लिए सत्ता शक्ति का
भरपूर उपयोग किया जा रहा है। जबकि हमारे लोकतंत्र की ख़ूबसूरती ही इसी में निहित है और यह हर
नागरिक का संवैधानिक अधिकार भी है कि कोई भी भारतीय नागरिक व्यवस्था से जुड़ी कोई भी
शिकायत सत्ता प्रतिष्ठानों से कर सकता है। और यदि सत्ता के नशे में चूर सत्ताधीशों के कान पर तब भी
जूं न रेंगे तो वह धरना व प्रदर्शन का सहारा भी ले सकता है। परन्तु हम आए दिन यह सुनते रहते हैं
कि अमुक अमुक स्थानों पर कहीं प्रदर्शनकारी किसानों पर लाठी या गोली चलाई गई तो कभी शिक्षकों
पर डंडे बरसाए गए। कभी छात्रों के आंदोलन व प्रदर्शन को बलपूर्वक दबाने की कोशिश की गई कभी
डाक्टरों पर लाठियां भांजी गईं कभी आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं से सख़्ती बरती गई तो कभी अन्य विभिन्न
विभागों के सरकारी कर्मचारियों की आवाज़ दबाने की कोशिश की गयी। और लगभग प्रत्येक ऐसी
दमनात्मक कार्रवाहियों के बाद प्रशासन की ओर से यही सफ़ाई दी जाती है कि प्रदर्शनकारियों के उग्र हो
जाने की वजह से ऐसी कार्यवाही की गई। अथवा धारा 144 का उल्लंघन करने के चलते या हिंसा फैलने
के डर से इस तरह की कार्रवाहियों का होना न्यायसंगत बताया जाता रहा है। दुःख की बात तो यह है कि
बावजूद इसके कि प्रायः हमेशा प्रदर्शनकारी अपनी मांगों के समर्थन में निहत्थे होकर किसी भी प्रदर्शन,
जुलूस, रैली या धरने आदि में शरीक होते हैं परन्तु उनको नियंत्रित करने वाली अथवा उन पर नज़र
रखने वाली सरकारी सुरक्षा बल हमेशा ही लाठी, डंडों, अश्रु गैस, तेज़ धार से पानी फेंकने वाले यंत्रों तथा
राइफ़लों तक से लैस रहता है। ज़रा ग़ौर कीजिये यह वही प्रदर्शनकारी हैं जो चुनाव के दिनों में तो
नेताओं को भगवान के रूप में दिखाई देते हैं। नेतागण इनसे किये गए हर वादे पूरा करने की क़समें खाते
फिरते हैं। चुनाव के समय मतदाताओं के साथ सद्भाव व मिलनसारी का ऐसा स्वांग रचते हैं गोया
जनता का इनसे बड़ा संकट मोचक कोई दूसरा सागा सम्बन्धी भी नहीं हो सकता। और जब यही जनता
इन्हें इनके वादे याद दिलाने हेतु सड़कों पर उतरती है उस समय यह लोग शासकों को अपने दुश्मन
दिखाई देने लगते हैं। उस समय इन्हीं प्रदर्शनकारी लोगों को विपक्षी दलों की कठपुतली तथा शांति
व्यवस्था भंग करने वाले असामाजिक तत्वों की श्रेणी में डाल दिया जाता है। और इन निहत्थों के सामने
शस्त्रधारी सुरक्षा बल खड़े कर दिए जाते हैं जबकि "जनप्रिय" नेताजी उस समय नदारद हो जाते हैं।
ऐसा ही दृश्य पिछले दिनों बिहार की राजधानी पटना से बिल्कुल सटे हुए वैशाली क्षेत्र में देखने को
मिला। ख़बरों के अनुसार इस इलाक़े में फैले चमकी बुख़ार नामक जानलेवा बीमारी से प्रभावित परिवारों
के सदस्यों तथा पीने के पानी के संकट से जूझ रहे कुछ ग्रामीण लोगों द्वारा वैशाली के हरिवंशपुर क्षेत्र
में सड़कों पर प्रदर्शन किया गया। ग़रीब ग्रामवासी इतने भी संपन्न नहीं थे कि 15-20 किलोमीटर की
यात्रा कर राजधानी पटना पहुँच कर अपने "भाग्य विधाताओं" के पास जाकर उन्हें उनके वादों की याद
दिला सकते और अपनी मांगों से अवगत करा सकते। मांगें भी ऐसी जिसे सुनकर कोई भी मानवता व
नैतिकता रखने वाला समाज शर्मिंदा हो जाए। बेचारे प्रदर्शनकारी पीने के साफ़ पानी की मांग कर रहे थे।
चमकी नमक बीमारी से बचाव के उपाय जानना चाह रहे थे, इस रोग से पीड़ित लोगों द्वारा उचित
चिकित्सा व्यवस्था मुहैय्या कराए जाने की मांग की जा रही थी। परन्तु नितीश सरकार की नज़रों में
शायद ये सभी लोग अपराधी थे। इसी लिए सरकारी इशारे पर पहले तो यह प्रदर्शनकारी तितर बितर कर
दिए गए। उसके बाद इन पीड़ितों के विरुद्ध मुक़दमे भी दर्ज कर दिए गए। ख़बरों के मुताबिक़ ऐसे 39
लोगों के विरुद्ध वैशाली ज़िले में प्राथमिकी दर्ज की गई है। बताया जा रहा है कि जिन पुरुषों के विरुद्ध
मुक़दमा दर्ज हुआ है पुलिस कार्रवाही के भयवश वे सभी ग़रीब लोग अपने घर छोड़ कर भाग गए हैं।
उनके परिजन, महिलाएं व बच्चे इस अलोकतांत्रिक कार्रवाही का कारण शासन से पूछ रहे हैं। उनका
सवाल है कि उनके परिवार के लिए 2 वक़्त की रोटी कमा कर लाने वाला पुरुष जब मुक़दमे और
गिरफ़्तारी से भयभीत होकर घर छोड़ कर चला गया ऐसे में उनकी रोटी का प्रबंध अब कौन करे? वे यह
भी जानना चाह रहे हैं कि सरकारी लापरवाहियों के विरुद्ध तथा अपनी पानी व स्वास्थ्य जैसी मूलभूत
मांगों के लिए वे प्रदर्शन न करें तो और किस तरह अपनी आवाज़ शासन के कानों तक पहुंचाएं?
समाचारों के अनुसार जिन लोगों पर मुक़दमे दर्ज हुए हैं उनमें कई लोग ऐसे भी हैं जिनके बच्चे चमकी
बुख़ार के चलते या तो दम तोड़ चुके हैं या चमकी बुख़ार की चपेट में हैं।
ग़ौरतलब है कि पीने के पानी की कमी की यह शिकायत राजधानी पटना से बिल्कुल सटे हुए उस इलाक़े
में हो रही है जो गंगा नदी के किनारे पर बसा है। विकास बाबू कहे जाने वाले नितीश कुमार ने बिहार के
दूर दराज़ इलाक़ों का कितना विकास किया होगा जो राजधानी से मात्र 15-20 किलोमीटर की दूरी पर भी
पेय जल न उपलब्ध करवा सके ? बिहार के ग्रामीण तथा अनेक शहरी क्षेत्रों में भी अभी तक पीने का
साफ़ पानी लोगों को मयस्सर नहीं होता। इन दिनों तो ख़ास तौर पर भूगर्भीय जलस्तर के काफ़ी नीचे
चले जाने की वजह से प्रदेश के बड़े हिस्से में पीने के पानी को लेकर हाहाकार मचा हुआ है। प्रदेश में
स्वास्थ्य व्यवस्था की क्या स्थिति है यह पिछले दिनों चमकी बुख़ार के विकराल होते रूप ने खोल कर
रख दी है। सरकार की नज़र में इंसान की जान की कितनी क़ीमत है और जनस्वास्थ्य के प्रति वह
कितना गंभीर है, यह सब प्रमाणित हो चुका है। देश विदेश के मीडिया व शोधकर्ताओं ने बिहार में मानव
जीवन के प्रति सरकार की गंभीरता का अध्ययन भली भांति कर लिया है। परन्तु इतनी भीषण त्रासदी के
बावजूद जहाँ सैकड़ों बच्चे चंद दिनों के भीतर ही काल के गाल में समा गए हों यदि आप इन राष्ट्र के
"भाग्य विधाताओं" से बात करें तो यह अभी भी अपने को ही सर्वोत्तम शासक और जनप्रिय नेता
प्रमाणित करने की ही पुरज़ोर कोशिश करेंगे। जिस शहर या ज़िले के मुख्यालय में चले जाइये करोड़ों
रूपये के सरकारी ख़र्च पर इन्हीं महानुभावों के गुणगान करने वाले इनके सचित्र होर्डिंग्स लगे मिल
जाएंगे। निश्चित रूप से इसमें बेहतर जल व स्वास्थ्य व्यवस्था उपलब्ध कराने के दावे वाले होर्डिंग्स भी
ज़रूर होंगे। परन्तु परिणाम भी देश के सामने है। ग़रीबों के बच्चे अस्पतालों में सुविधा के अभाव के
चलते दम तोड़ रहे हैं और राजधानी के बग़ल के लोगों के पास पीने का पानी नहीं है। और यदि कोई
इसके विरुद्ध अपने लोकतान्त्रिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए आवाज़ बुलंद करता है तो वह पुलिसिया
कार्रवाही का सामना करे और घर से बेघर हो कर अपने परिवार के आश्रित लोगों के लिए परेशानी का
सबब बने?
सवाल यह है कि शासक जनता की जायज़ मांगों के समर्थन में उठने वाली ऐसी आवाज़ों को दबाने या
कुचलने के बजाए यह क्यों नहीं सोचते की आख़िर अज़ादी के 70 वर्षों बाद भी शासक वर्ग जनता को
पानी व स्वास्थ्य जैसी बेहद बुनियादी सुविधाएं आख़िर क्यों मयस्सर नहीं करवा पाया? एक दूसरे पर
दोषारोपण करने से या गोबर पर चांदी का वरक़ चढ़ा देने से ऐसी समस्याओं का निवारण नहीं होने
वाला। जितना पैसा सरकारें अपने झूठे-सच्चे गुणगान पर ख़र्च करती हैं उतना ही पैसा यदि ऐसी
जनसमस्याओं के समाधान पर ख़र्च किया जाए तो शायद लोगों को प्यास से भी राहत मिल सके और
बच्चों की अकाल मौत पर भी नियंत्रण हो सके। परन्तु शासकों की प्राथमिकताएं लोकप्रियता हासिल करने
हेतु अपना झूठा प्रचार कराना, अपनी मार्केटिंग पर करोड़ों रूपये ख़र्च करना, हर समय सत्ता में बने रहने
हेतु जोड़ तोड़ में व्यस्त रहना, लोकतान्त्रिक मूल्यों की धज्जियाँ उड़ाना, विचारों व सिद्धांतों को
तिलांजलि देकर अपनी कुर्सी को सुरक्षित रखने में ही सारी राजनैतिक तिकड़मबाज़ी लगा डालना आदि रह
गई हैं। यही वजह है की उस लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जहाँ जनता द्वारा जनता के लिए जनता के ही
प्रतिनिधियों का चुनाव किया जाता है, यही जनप्रतिनिधि निर्वाचित होने के बाद स्वयं को विशेष प्राणी
समझने लगते हैं और जब इनको सत्ता के शिखर पर पहुँचाने वाले साधारण मतदाता इनसे पीने के लिए
साफ़ पानी व स्वास्थ्य सम्बन्धी उचित प्रबंध किये जाने की मांग करते हुए अपनी आवाज़ बुलंद करते हैं
तो इस दुर्व्यवस्था के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करने को अपराध मान लिया जाता है।