विनय गुप्ता
भारत के संविधान में संविधान निर्माताओं ने आम नागरिक के अधिकारों के साथ कर्तव्यों का भी उल्लेख किया है।
इन्हें संविधान में नीति निदेशक तत्व कहा है। नीति निदेशक तत्वों में विश्व बंदनीय अहिंसा के अवतार भगवान
महावीर के पावन संदेश "जियो और जीने दो" के साथ विश्व शांति प्राणी मात्र के कल्याण की भावना समाहित की
गई है। इसी प्रकार मौलिक अधिकारों में आम आदमी के सर्वांगीण विकास की कानूनी व्यवस्था की गई है।
भारतीय संविधान में सुप्रसिद्ध कानून विद डाँ भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में संविधान निर्माताओं ने आम नागरिक
के मानवाधिकारों का हनन न हो इसकी समुचित व्यवस्था की है। दुनिया के अनेक देशों में आम आदमी के
मानवाधिकारों की रक्षा हेतु एक नहीं अनेक प्रयास किये हैं। मानवाधिकारों की रक्षा हेतु सर्वप्रथम ब्रिटेन में सन
1215 में महान घोषणा पत्र प्रकाशित हुआ। इस घोषणा पत्र में उल्लेख किया है किसी नागरिक को उस समय तक
बंदी न बनाया जाये और न ही निर्वासित किया जाये, जब तक उसका अपराध सिद्ध न हो जाये। ब्रिटेन में ही सन
1679 में बंदी प्रत्यक्षीकरण अधिनियम पारित किया गया। जिसमें व्यवस्था की गई कि बिना अभियोग चलाये
किसी भी व्यक्ति को नजरबंद नहीं रखा जा सकता। ब्रिटेन में ही सन 1689 में अधिकार पत्र पारित कराया इसमें
अन्य बातों के अलावा यह व्यवस्था थी कि संसद में जनता के प्रतिनिधियों को भाषण की स्वतंत्रता होगी। दुनिया
में मानवाधिकारों की रक्षा पर अटलांटिक चार्टर सन 1941 एवं संयुक्त राष्ट्र संघ घोषणा 1942 से बल मिला।
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में मूलभूत मानवीय अधिकारों में गौरव तथा मूल्यों में, स्त्री व पुरुषों के समान
अधिकारों को पुनः स्वीकार किया गया।
कुछ आवश्यक संशोधनों के साथ 10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने सर्वसम्मति से पारित
किया। इस मानवाधिकार घोषणा पत्र में प्रस्तावना सहित 30 अनुच्छेद हैं। इसके बाद 1993 में वियना में
मानवाधिकारों को बढ़ावा देने के लिये सम्मेलन हुआ। जिसमें 171 देशों ने सहयोग करने का आश्वासन दिया।
जिसका अनुमोदन दिसंबर 1993 में संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में किया। वियना घोषणा में उल्लेख किया बड़े
पैमाने बाले मानवाधिकारों के हनन, विशेष कर जनसंहार, जातीय विद्वेष और बलात्कार, आत्मनिर्णय, वर्तमान और
भविष्य की पर्यावरण संबंधी जरूरतों,परेशानी में रह रहे लोगों,विशेष रूप से अप्रवासी श्रमिकों, विकलांग व्यक्तियों
और शरणार्थियों के साथ महिलाओं और बालिकाओं के मानवाधिकारों पर बल दिया गया।यहाँ यह विचारणीय प्रश्न
है यद्यपि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों की हर स्तर पर रक्षा करने का संकल्प लिया गया है। दुनिया का हर
देश भी चाहता है उसके नागरिकों के मानवाधिकारों का हनन न हो। परन्तु सरकारें यह जानते हुए कि उनकी रक्षा
करना चाहिए, व्यवहारिक रूप देने में असफल हैं। भारत में हम आम नागरिकों की स्थिति को देखें तो आजादी के
74 वर्ष बाद भी दयनीय स्थिति है।
ग्रामीण अंचल में आज भी छुआछूत नहीं मिटा है। दलितों को गाँव के कुए से पानी नहीं भरने दिया जाता है। गाँव
के जमींदार ठाकुर साहब या मुखिया के मकान के आगे से भी दलितों हरिजनों को जूते चप्पल पहनकर निकलने की
अनुमति नहीं है। ग्रामीण अंचल में दलितों को अपने बेटे की बारात दूल्हे को घोड़े पर बैठाकर निकालने की अनुमति
नहीं है। कोई हरिजन दलित इन पुराने दकियानूसी नियमों को तोड़ने का दुस्साहस करता भी है तो उस पर अनेक
अत्याचार होते हैं। गोली चल जाती है मकान खेत में आग लगा दी जाती है। गाँव से ही निकाल दिया जाता
है।हमारे देश भारत में ही करोड़ों बच्चे भीख मांगते देखे जाते हैं। 10 से 15 वर्ष के बच्चे देश में लाखों करोड़ों की
संख्या में रेल स्टेशनों के आसपास प्लास्टिक की थैली एवं प्लास्टिक की पानी की खाली बोतल एकत्रित करते दिख
जायेंगे। गरीब के बच्चे पढ़ते भी हैं तो उन्हें कक्षा 5 में जोड़ना घटाना नहीं आता है। उन्हें 10 तक पहाड़ा नहीं
सिखाया जाता है। इन सब विसंगतियों के वावजूद उन्हें कक्षा 5 तक अनिवार्य रूप से उत्तीर्ण कर दिया जाता है।
भारत में बाल मजदूरी पर प्रतिबंध के वावजूद करोड़ों 18 वर्ष से कम आयु के बच्चे बाल मजदूरी कर रहे हैं, उन्हें
पर्याप्त मजदूरी नहीं मिल रही है। रहने जीवन यापन करने रोटी कपड़ा मकान की सुविधाएं नहीं मिल रही हैं।सरकार
स्वयं संविदा में कर्मचारियों की नियुक्तियां करती है। इनमें कुछ नियुक्तियाँ तदर्थ करती है। क्या इन्हें समान कार्य
के लिये समान वेतन,अवकाश, पेंशन आदि की सुविधा मिलती है?
गत वर्ष कोरोना महामारी के भारी प्रकोप के कारण देश व्यापी लाँकडाउन हुआ।
हजारों उद्योग एवं फेक्ट्री बंद हो जाने से लाखों मजदूर भुखमरी के शिकार हो गये। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश,
झारखंड, विहार के मूल निवासी मजदूरों का पलायन हुआ। अपने अपने प्रदेश सुरक्षित पहुचने की आशा से उन
मजदूरों ने रेल एवं बस की सुविधा नहीं मिलने पर पैदल यात्रा सैकड़ों एवं हजारों किमी की सड़क मार्ग से की। भूखे
प्यासे मजदूरों की सहायता स्वयं सेवी संस्थाओं ने उदारता से की। इन असहाय दुखी मजदूरों की सहायता करने
सरकार ने मानवीयता का परिचय नहीं दिया। मानवाधिकारों के हनन का इससे बड़ा उदाहरण मिलना असंभव प्रतीत
होता है। भारत में सबसे ज्यादा शोषण बाल मजदूरी के नाम पर नौनिहालों का हो रहा है।बाल मजदूरी के नाम पर
एक घटना का उल्लेख कर रहा हूँ, इस घटना से मैं स्वयं वहुत दुखी हुआ हूँ। बाल मजदूरी, बाल शोषण के विरुद्ध
जीवन भर संघर्ष करने बाले भारत माता के महान सपूत श्री कैलाश सत्यार्थी जी को सन 2015 में नोवल शांति
पुरुस्कार से सम्मानित किया गया। उनको यह सम्मान मिला तो दुनिया में हम भारतवासियों का सिर गर्व से ऊंचा
हुआ। नोवल शांति सम्मान मिलने पर श्री सत्यार्थी जी 6 जनवरी 2016 को गुना पधारे। गुना में उनकी भव्य
शोभायात्रा निकली। शोभायात्रा में घोड़ा चल रहा था, उस घोड़े की रस्सी हाथ में लेकर 10 वर्ष का बाल मजदूर चल
रहा था। श्री सत्यार्थी जी को भी पता नहीं था, जिस बाल मजदूरी, बाल शोषण के विरुद्ध जीवन भर संघर्ष करते
रहे हैं, गुना बालों ने उन्हें दिखा दिया कि आप संघर्ष करते रहें बाल मजदूरी दुनिया से समाप्त नहीं हो सकती।
सारी दुनिया मानवाधिकारों की रक्षा के लिये कानून बना रही है।इन कानूनों का पालन नहीं हो रहा है।
मानवाधिकारों की रक्षा के लिये सरकारों के साथ साथ आम आदमी की दूषित मानसिकता में परिवर्तन आवश्यक है।