विनय गुप्ता
इस हफ्ते की शुरुआत अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस से हुई। हर साल की तरह बहुत से संदेश आए, बहुत सी
महिलाओं ने संदेश लिखे, प्रेरणा से ओतप्रोत, महिला शक्ति की महिमा गाई। हम पुरुषों ने भी बहुत से
संदेश लिखे या फारवर्ड किए और अपनी जि़म्मेदारी से मुक्त हो गए। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस आया
और चला गया। क्या महिलाओं की स्थिति में कोई गुणात्मक परिवर्तन आया? क्या उन्हें कोई अतिरिक्त
राहत मिली? छेड़खानी बंद हो गई, बलात्कार बंद हो गए, बच्चियों के घर से बाहर निकलने पर रोक बंद
हो गई? ऐसा क्या हुआ जिस पर हम गर्व कर सकें? एक सज्जन ने मुझे किन्हीं मुबारिक अली जी की
चार साल पुरानी फेसबुक पोस्ट भेजी, जो हम सब की आंखें खोलने के लिए काफी है। मुबारिक अली
लिखते हैं, ‘जब तक भाजपा को नापसंद करने वाले स्मृति ईरानी पर, कांग्रेस से नफरत करने वाले
सोनिया गांधी पर, आम आदमी पार्टी से नफरत करने वाले अलका लाम्बा पर, और ये सभी मिल कर
मायावती, ममता बनर्जी, वृन्दा करात, श्रुति सेठ, अंजना ओम कश्यप, स्वरा भास्कर और उन तमाम
महिलाओं पर जो मुखर हैं, भद्दी, वाहियात, स्तरहीन टिप्पणियां करनी बंद नहीं कर देते तब तक महिला
दिवस मनाना एक पाखंड मात्र है।’
‘एशिया कप फाइनल में वो खूबसूरत लड़कियां अपनी टीम की प्रशंसक थी महज़, बंटवारे के वक्त छूटा
हुआ माल नहीं। अनुष्का शर्मा का विराट कोहली की कमजोर फॉर्म से कोई लेना-देना नहीं था। हिना
रब्बानी खार पाकिस्तान की एक राजनेता हैं, कोई सेक्स ऑब्जेक्ट नहीं जिसके ऐवज में कश्मीर सौंपने
की घोषणाएं की जाए। इतना कमजोर सेन्स ऑफ ह्यूमर लेकर जीते हम लोग जब आज के दिन
महिलाओं को दुर्गा, काली जैसे विशेषणों से नवाजते हैं तो हंसी भी आती है और दुख भी होता है। भीख
में मिला एक दिन नहीं चाहिए महिलाओं को। सम्मान रोज़मर्रा की जिंदगी में हो तभी प्रभावी है, एक
दिन का शोरोगुल सम्मान कम, अपमान ज्यादा है।’ अब स्थिति के दूसरे पहलू पर भी गौर करें। यदि हम
कोई महिला दिवस मनाना ही चाहते हैं तो हमें बंधी-बधाई लीक से हटकर सोचना होगा, स्त्रियों से यह
उम्मीद करना बंद करनी होगी कि वे देवियां हैं और किसी देवी की तरह व्यवहार करें। किसी भी दूसरे
व्यक्ति की तरह वे भी इनसान हैं और हमें उनके इसी रूप को स्वीकार करना चाहिए और यह उम्मीद
खत्म कर देनी चाहिए कि औरत तो बनी ही बलिदानों के लिए है।
यह कहना बंद करें कि हर सफल आदमी के पीछे कोई औरत होती है और खुद उनकी सफलताओं को
स्वीकार करना शुरू करें। यह कहना बंद करें कि मां बहुत बलिदान करती है, पुरुष, पति और पिता के
रूप में हम भी जि़म्मेदारियों के भागीदार बनें। उनकी खूबसूरती की प्रशंसा बंद करें और यह स्वीकार करें
कि सिर्फ शक्ल-सूरत से ही खूबसूरत होना जरूरी नहीं है। मां, धर्मपत्नी, बहन और पुत्री के रूप में उसकी
प्रशंसा करना बंद करें और एक व्यक्ति के रूप में उन्हें स्वीकार करना आरंभ करें। यह उम्मीद करना बंद
करें कि वे मल्टी-टास्किंग कर सकती हैं और उन्हें अपने ढंग से अपने काम निपटाने की आज़ादी दें।
असंभव किस्म के संतुलन का आग्रह छोड़ें, उनकी सीमाओं को स्वीकार करें, एक इनसान के रूप में उन्हें
स्वीकार करें, पूर्ण रूप से स्वीकार करें और यह स्वीकार करें कि हर दूसरे इनसान की तरह वे भी समाज
का एक उपयोगी अंग हैं और उनका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व है। यह बिलकुल स्वाभाविक है कि किसी भी
अन्य इनसान की तरह उनमें भी कमियां हो सकती हैं, वे मूडी हो सकती हैं, कभी-कभार वे भी
गैरजि़म्मेदाराना व्यवहार कर सकती हैं, आलसी हो सकती हैं, हठी हो सकती हैं, कमज़ोर हो सकती हैं,
दुःसाहसी हो सकती हैं, अव्यावहारिक हो सकती हैं। महिला दिवस मनाना तभी सार्थक होगा जब हम उन्हें
उनके हर रूप में बिना शर्तें लगाए स्वीकार करना सीख लें। महिलाओं को खुद को सुधारने की
आवश्यकता नहीं है, पुरुषों को सुधरना है। महिला दिवस की सार्थकता इसी में है कि हम उन्हें इनसान
मानें और उन्हें अपने ढंग से जीने की स्वतंत्रता दे सकने के लिए आवश्यक सुरक्षित माहौल बनाएं। वे
आधी दुनिया हैं, लेकिन उनकी अपनी भी एक दुनिया है और हमें स्वीकार करना होगा कि उन्हें उनकी
दुनिया में उनके तरीके से जीने का हक है, पूरा हक है। मुझे याद पड़ता है कि भोपाल निवासी पचपन
वर्षीय रेखा चोपड़ा मध्य प्रदेश की पहली महिला टूरिस्ट गाइड हैं, बहुत लोकप्रिय हैं और पिछले 33 साल
से इसी पेशे में हैं। आज विदेशी पर्यटक उनसे समय लेकर उनकी सुविधा के मुताबिक अपना टूर प्रोग्राम
बनाते हैं। लेकिन इस स्थिति तक पहुंचना आसान था क्या? उनके अपने रिश्तेदार, यहां तक कि मायके
वाले भी उन्हें टूरिस्ट गाइड बनने से निरुत्साहित करते रहे, उन्हें अपने ही रिश्तेदारों से ताने सुनने को
मिले।
यह संयोग ही था कि उनकी ससुराल वाले टूरिज्म के व्यवसाय में थे और उनके सास-ससुर और पतिदेव
ने उनके लिए प्रेरणा का काम किया, वे उनके संबल बने और उन्हें आलोचनाओं की परवाह किए बिना
अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना सिखाया। ससुराल के इस प्रोत्साहन की वजह से ही वे टूरिस्ट गाइड के उस
कोर्स में रह सकीं जहां कुल 47 विद्यार्थियों में वे अकेली महिला थीं। परीक्षा में वे अव्वल रहीं और उनके
पतिदेव दूसरे स्थान पर आए। पेशे के रूप में जब उन्होंने अपना कार्य आरंभ किया तो उन्हें इसमें आनंद
आने लगा और बातचीत के उनके तरीके ने, उनके लहजे से, उनके ज्ञान ने उनकी लोकप्रियता बढ़ाई। बाद
में उन्होंने कई और भाषाएं भी सीखीं और अपने काम में और ज्यादा पारंगत होती चली गईं। एक विदेशी
महिला लुइस निकल्सन ने जब फोर्ब्स इंडिया में उनका जिक्र किया तो सारे संसार ने उन्हें जानना शुरू
किया। इससे उनके कैरियर को वो उड़ान मिल सकी जिसके लिए उन्होंने इतनी मेहनत की थी। उन्हें दो
बार सर्वश्रेष्ठ महिला टूरिस्ट गाइड का अवार्ड मिला। रेखा बताती हैं कि जब उनका बेटा पैदा हुआ तो
उन्हें काम पर जाना छोड़ना पड़ा तो उन्हें बार-बार फोन आए और उन्होंने फिर से काम पर जाना शुरू
किया। इसका जिक्र करते हुए वे कहती हैं कि उनके बेटे ने उन्हें ‘मम्मा’ कहना सीखने से पहले ‘बाय-बाय
मम्मा’ कहना सीखा। रेखा चोपड़ा की सफलता का यह सफर इसलिए शुरू हो सका क्योंकि उन्हें ताने
मारने और निरुत्साहित करने वालों के साथ-साथ उन्हें संबल देने वाले भी थे। क्या हम एक समाज के
रूप में ऐसा कर सकते हैं कि सपने देखने वाली हर महिला के लिए उसके पंख बन जाएं ताकि वे
सफलता की ऊंची उड़ान भर सकें। यह है तो हर दिन महिला दिवस है और यह नहीं है तो फिर महिला
दिवस का ढोंग भी वैसा ही है जैसे हम गांधी-जयंती, नेहरू-जयंती, अंबेडकर-जयंती ‘मनाते’ हैं।