शिशिर गुप्ता
महान वैज्ञानिक सर आइजैक न्यूटन ने बहुत पहले ही विश्व को बता दिया था कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है।
हमारे जीवन में तो यह हर रोज ही घटित होता है। हमसे संबंधित हर काम, हर बात और हर घटना हमें प्रभावित
करती है और हम उस पर प्रतिक्रिया करते हैं। यह प्रतिक्रिया हालांकि भिन्न स्थितियों अथवा भिन्न व्यक्तियों के
मामले में अलग हो सकती है। इसका साधारण-सा उदाहरण यह है कि यदि हमारा जीवनसाथी हमें आलसी कहे तो
हम बुरा मान जाते हैं, लेकिन यही बात अगर हमारा बॉस कहे तो हम न केवल उनकी बात चुपचाप सुनकर सहन
कर लेते हैं, बल्कि बहुत बार आत्म-विश्लेषण करके स्वयं को सुधारने का भी प्रयास करते हैं। यह प्रतिक्रिया ही
महत्त्वपूर्ण है और यहीं हमें न्यूटन से भी आगे निकलना है, यानी प्रतिक्रिया पर अपना नियंत्रण जमाना है, तभी
हम जीवन में सफल हो सकेंगे या सफलता को स्थायी बनाए रख सकेंगे। हमारा मस्तिष्क तीन हिस्सों में बंटा हुआ
है। हमें कम समझ में आने वाला और सर्वाधिक शक्तिशाली हिस्सा है हमारा अवचेतन मस्तिष्क जो हमारे
मस्तिष्क का लगभग 90 प्रतिशत है। दूसरा हिस्सा है चेतन मस्तिष्क जो हमारे मस्तिष्क का केवल 10 प्रतिशत
भाग है।
चेतन मस्तिष्क आगे दांये और बांये, दो और भागों में बंटा हुआ है। चेतन मस्तिष्क का बांया भाग तर्कशील है जो
आंकड़ों को सहेजता, समझता और उनका विश्लेषण करता है। चेतन मस्तिष्क का दांया भाग कल्पनाशील और
स्वप्नदर्शी है। चेतन मस्तिष्क हमारे साथ ही जागता और सोता है, लेकिन अवचेतन मस्तिष्क हमेशा जागता रहता
है और जब हम सोये होते हैं तो भी दिन भर की घटनाओं को सहेज रहा होता है। हमारा अवचेतन मस्तिष्क
खिलंदड़ा है, मनोरंजन प्रिय है और धनात्मक आदेशों को ही स्वीकार करता है। चेतन और अवचेतन मस्तिष्क बहुत
बार अलग तरह से सोचते हैं और उनमें रस्साकशी चलती रहती है। उदाहरण के लिए आप बाजार में घूम रहे हों
और अचानक आपको किसी दुकान में कोई चीज बहुत पसंद आई तो आप उसे खरीदने को लालायित हो उठते हैं,
लेकिन आपका तर्कशील मस्तिष्क आपको समझाता है कि आपको उस वस्तु की कोई जरूरत नहीं है। आपका
तर्कशील मस्तिष्क आपको चेतावनी देता है कि आपका बजट सीमित है और आपने अपना धन किसी और आवश्यक
कार्य के लिए बचा कर रखा है, जबकि अवचेतन मस्तिष्क आपको वह वस्तु खरीदने के लिए उकसा रहा होता है।
दरअसल जिसे हम ‘मन’ कहते हैं वह हमारा अवचेतन मस्तिष्क ही है।
दिल और दिमाग की लड़ाई का यही कारण है। दिल यानी अवचेतन मस्तिष्क कुछ और कहता है और चेतन
मस्तिष्क कुछ और कहता है। अक्सर हम दिमाग के बजाय दिल से काम लेते हैं। कभी आपने सोचा है कि ऐसा
क्यों होता है? दरअसल हमारा तर्कशील मस्तिष्क या हमारे मस्तिष्क का वह हिस्सा जिसे हम आम भाषा में
‘दिमाग’ कहते हैं, हमारे मस्तिष्क का सिर्फ पांच प्रतिशत भाग है जबकि अवचेतन मस्तिष्क, जिसे हम आम भाषा
में ‘दिल’ या ‘मन’ कहते हैं, हमारे मस्तिष्क का 90 प्रतिशत भाग होने के कारण चेतन मस्तिष्क से बहुत-बहुत
बड़ा और उसी अनुपात में शक्तिशाली भी है। यही कारण है कि अक्सर दिमाग पर दिल हावी हो जाता है और हम
कई ऐसे काम कर बैठते हैं जो या तो हमारी छवि के अनुरूप नहीं हैं या हमारे लिए हानिकारक हैं। किसी घटना पर
दिल की प्रतिक्रिया हमसे वह करवा देती है जो शायद अनावश्यक है या अनुचित है।
न्यूटन का यह नियम सर्वविदित है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, पर हमें यह याद रखना है कि जीवन में
सफल होने के लिए हमें अपनी प्रतिक्रियाओं पर नियंत्रण करने की आवश्यकता है, वरना यह हो सकता है कि हम
लोगों को सफल दिखें जबकि हमारा जीवन दुख-दर्द भरा हो। तर्कशील मस्तिष्क हमें बौद्धिक क्षमता प्रदान करता है
और यह प्रारंभिक सफलता में सहायक होता है, लेकिन जीवन में ज्यादा आगे जाने के लिए नेतृत्व की क्षमता के
साथ भावनात्मक संतुलन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। अडि़यलपन, कडि़यलपन आपकी काबिलीयत को दबा देता है और
जीवन में ऐसे लोग ज्यादा सफल होते हैं जो रिश्ते बनाने और बनाए रखने में माहिर होते हैं। आज के जमाने में
नेटवर्किंग बहुत महत्त्वपूर्ण है और लोगों के साथ मिलकर चलने तथा लोगों को साथ लेकर चलने की क्षमता आपको
सफलता की सीढि़यां चढ़ने में मदद देती है, लेकिन भावनात्मक संतुलन का काम यहीं पर खत्म नहीं होता।
आज की प्रोफेशनल दुनिया में अच्छा काम करना और खुद को सदैव बेहतर साबित करना आवश्यक हो गया है।
इससे कामकाज की चुनौतियां बढ़ी हैं और पेशेवर जीवन की जटिलताएं डिप्रेशन, चिड़चिड़ेपन या अनिद्रा जैसी
समस्याओं का कारण बनने लगी हैं। यदि कोई व्यक्ति जटिल स्थितियों में अपनी प्रतिक्रिया को नियंत्रित न कर
पाए तो परिणाम हानिकारक भी हो सकता है, इसलिए सिर्फ मेहनती, बुद्धिमान या प्रतिभाशाली होना ही काफी
नहीं है, इसके लिए भावनात्मक परिपक्वता आवश्यक है और प्रशिक्षण से इसे सीखा जा सकता है। सफलता के
शिखर छूने के लिए प्रतिभा से भी ज्यादा भावनात्मक परिपक्वता बड़ा कारक है। अपने आसपास नजर दौड़ाएंगे तो
हम पाते हैं कि कई लोग कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद कठिन परिस्थितियों में टूटने के बजाय और मजबूत हो
जाते हैं जबकि कई उच्च शिक्षित और साधन संपन्न लोग भी विपत्तियों में विचलित हो जाते हैं।
भावनात्मक परिपक्वता के कारण हम सफल और अमीर हो सकते हैं, लेकिन अमीरी के कारण हम भावनात्मक रूप
से भी परिपक्व हों, ऐसा आवश्यक नहीं है। हर्ष और विषाद के क्षणों में स्वयं पर काबू रखना, बहुत खुशी के समय
किसी पर लट्टू न हो जाना और क्रोधित होने की अवस्था में किसी को अनावश्यक बड़ा दंड न देना या किसी को
कोई चोट पहुंचाने वाली बात न कह देना ही हमारी परिपक्वता की निशानी है। हर क्रिया पर प्रतिक्रिया तो होती है,
लेकिन प्रतिक्रिया क्या हो, कैसी हो, इसे हम नियंत्रित करना सीख सकते हैं। हम समाज और माहौल को नहीं बदल
सकते, लेकिन खुद को माहौल के मुताबिक ढालना संभव है। खुशी, दुख, गुस्सा, ईर्ष्या और ग्लानि आदि भावनाओं
के प्रभाव में लिए गए निर्णय अहितकारी हो सकते हैं। यदि हम यह समझ सकें कि हम किस बात पर खुश होते हैं,
किस पर नाराज होते हैं और क्या चीजें हमारा मूड बना या बिगाड़ देती हैं तो आत्मविश्लेषण आसान हो जाता है।
अपने व्यवहार की कमियों को सुधार कर हम जीवन में शीघ्र सफल हो सकते हैं।