देश में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल किस तरह से अदालतों के आदेशों को राजनीतिक नुकसान फायदे के हिसाब से तय करते हैं, इसे तीन उदाहरणों से इसे समझा जा सकता है। ये हैं, शाह बानो का तलाक, एससी−एसटी एक्ट में बदलाव और असम में की जा रही घुसपैठियों की पहचान। इन तीनों ही मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया। केंद्र में जिस राजनीतिक दल की सरकार रही या है, उसने वोट बैंक के फायदे−नुकसान के हिसाब से लागू किया या बदल दिया। मसलन जिन मामलों में वोटों में इजाफा होता नजर आया, उन्हें लागू करने में तत्परता दिखाई और जिनमें वोट बैंक बिगड़ने का अंदेशा लगा, उन्हें दरकिनार कर दिया। शाह बानो के तलाक के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को अवैध मानते हुए याचिकाकर्ता को गुजारा भत्ता देने का निर्णय दिया था। इसे तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने मानने से इंकार कर दिया। इसके विपरीत संसद में कानून बना कर इसे पूर्ववत् रखा गया। राजीव गांधी के नेतृत्व में केंद्र में काबिज कांग्रेस सरकार को अल्पसंख्यकों का वोट बैंक खिसकने का भय नजर आया। मानवता तो दूर समानता के लोकतांत्रिक अधिकारों की अनदेखी करते हुए कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों के दबाव में आकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू नहीं होने दिया।
दलित बहुत बड़ा वोट बैंक हैं, कोई राजनीतिक दल नाराजगी मोल नहीं ले सकता
asiakhabar.com | August 7, 2018 | 5:26 pm ISTइसी तरह का मसला एससी−एसटी एक्ट और असम में घुसपैठियों की पहचान के लिए की जा रही एनआरसी की कवायद का है। एससी−एसटी एक्ट में पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश पारित किया। जिसके तहत इस मामले में सीधी गिरफ्तारी पर रोक, अग्रिम जमानत संभव और सरकारी कर्मचारी के वरिष्ठ अधिकारी से स्वीकृति लेना आवश्यक कर दिया। कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी राजनीतिक दलों ने इस पर हंगामा खड़ा कर दिया। यहां तक की केंद्र की भाजपा सरकार पर अपने ही दलित सांसदों और नेताओं का दबाव पड़ने लगा। दलितों के वोट बैंक का भय भाजपा को भी सताने लगा। आखिरकार जिसकी उम्मीद थी, वही हुआ। केंद्र सरकार ने अपने कदम पीछे खींच लिए। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को पलटने की कवायद चल रही है।
तीसरा प्रमुख मुद्दा रहा असम के घुसपैठियों का। इस मामले को केंद्र सरकार ने हाथों−हाथ लिया। दलितों के मुद्दे की तरह इस पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटने की कवायद नहीं की गई। जबकि विपक्षी दल इसे रोकने की मांग कर रहे हैं। इसका गणित भी वोट बैंक से जुड़ा हुआ है। असम में घुसपैठियों का मसला अल्पसंख्यकों का है जिसे भाजपा अपना वोट बैंक नहीं मानती। इसके विपरीत कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस इस मुद्दे को भुनाने की पुरजोर कोशिश में लगी हुई हैं। अल्पसंख्यकों के वोट बैंक पर दोनों दलों की नजरें गड़ी हुई हैं। ऐसे मामले जोकि किसी न किसी रूप से वोट बैंक को प्रभावित करते हैं, भाजपा हो या कांग्रेस या फिर दूसरे विपक्षी दल, अपनी सुविधा के हिसाब से अमलीजामा पहनाने या विरोध करने की कवायद करते हैं। इनकी पालना क्षुद्र राजनीतिक हित पूरे करने के लिए की जाती रही है।
सत्तारूढ़ दल हो या विपक्षी, कोई भी वोटों का ध्रुवीकरण करने में पीछे नहीं है। यदि ऐसा नहीं होता तो जो कांग्रेस अब तीन तलाक पर मुंह छिपा रही है, वह 32 साल पहले ही इसे लागू करती। कांग्रेस की जैसी पुनरावृत्ति एससी-एसटी एक्ट के मामले में केंद्र की भाजपा सरकार कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने गहन विचार−विमर्श और तमाम तथ्यों−सबूतों के मद्देनजर ही इसमें आंशिक परिवर्तन का निर्णय दिया। इसे केंद्र की भाजपा सरकार ने मानने से इंकार कर दिया। आगामी चुनावों में भाजपा दलितों को नाराज नहीं करना चाहती। दरअसल देष में थोक वोट बैंक के रूप में दलित और अल्पसंख्यक ही माने जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट के दलित वाले फैसले के विरूद्ध यदि दूसरे वर्ग भी ध्रुवीकरण कर लें तो भाजपा सहित दूसरे दलों की हालत देखने लायक होगी। चूंकि यह वोट बैंक बंटा और बिखरा हुआ है, इसलिए किसी भी राजनीतिक दल को ना तो इसके खिसकने का डर है और न ही परवाह। बचा हुआ यह वोट बैंक अलग−अलग दलों से जुड़ा हुआ है। दलित वोटों का ही परिणाम रहा कि सुप्रीम कोर्ट के एक्ट में संशोधन के आदेश के खिलाफ भारत बंद के दौरान हिंसा और तोड़फोड़ की घटनाओं के आरोपियों के खिलाफ लगाए मुकदमों को राज्य सरकारें वापस लेने पर विवश हो गईं। इस मामले में राज्यों में सत्तारुढ़ दलों के खिलाफ विपक्षी दलों ने गोलबंदी कर ली।
दलित वोट बैंक के दूसरे दलों की तरफ मुड़ जाने के भय से राज्य सरकारों ने काफी मुकदमे वापस ले लिए। दलितों को खुश रखने के लिए शेष रहे मामलों को भी कानूनी शिंकजे से निकाल वापस लेने की भरसक कोशिश की जा रही है। इन तीनों मामलों की तरह ही जातियों और समुदायों द्वारा आरक्षण मांगने का मुद्दा भी रहा है। बेशक आरक्षण अदालतों की निर्धारण रेखा को पूरा कर चुका हो, फिर भी सरकारें उन्हें लागू करवाने में शीर्षासन करती नजर आती हैं।
आरक्षण का मुद्दा भी सीधे वोटों से जुड़ा हुआ है। राज्यों और केंद्र में जो भी सरकार सत्ता में होती है, वह पहले इसे टालने का काम करती है। विपक्षी पार्टियां तो ऐसे मुद्दों की ताक में बैठी रहती हैं। जैसे ही हाथ लगता है, सत्तारुढ़ दलों के खिलाफ मोर्चा खोलने में देर नहीं लगाती। सत्तारुढ़ दल जब विपक्ष में होता है, तब जातिगत या समुदाय के वोटों की खातिर वह भी इसी परिपाटी का पालन करता है। यही वजह है कि एक भी दल आरक्षण के खिलाफ खड़े होने का साहस तो दूर बल्कि इसके वास्तविक हकदारों की पैरवी भी करने से कतराते रहे हैं। वोट बैंक के सामने राजनीतिक दलों के राष्ट्रहित और देशभक्ति के दावे खोखले नजर आते हैं। यही वजह भी है आजादी के बाद से देश वर्ग, जाति, समुदाय और सम्प्रदायों में बंटा हुआ है।