-प्रभुनाथ शुक्ल-
खेतों में फसलों की रंगत बदल गई है। सरसों के पीले फूल खत्म हो गए हैं और वह फलियों से गदाराई है। मटर और जौ की बालियां सुनहली पड़ने लगी हैं। जवान ठंड अब बुढ़ी हो गई है। हल्की पछुवा की गलन गुनगुनी धूप थोड़ा तीखी हो गई है। घास पर पड़ी मोतियों सरीखी ओस की बूँदें सूर्य की किरणों से जल्द सिमटने लगी हैं। प्रकृति के इस बदलाव के साथ फागुन ने आहिस्ता- आहिस्ता क़दम बढ़ा दिया है। टेंशू, गेंदा और गुलाब फागुन की मस्ती में खिलखिला रहे हैं। अमराइयों में आम में लगे बौरों की मादकता अजीब गंध फैला रहीं है।
भौंरे कलियों का रसपान कर वसंत के गीत गुनगुना रहे हैं। पेड़ों से पत्ते रिश्ते तोड़ वसंत के स्वागत में धरती पर बिछ जाने को आतुर हैं। प्रकृति और उसका ऐहसास फागुन के होने की दस्तक देता है। लेकिन इंसान बिल्कुल बदल चुका है। वह फागुन को जीना नहीं चाहता है। वह प्रकृति से साहश्चर्य नहीं रखना चाहता है। वह उसे भी जीतना चाहता है। खुद नियंता बनाना चाहता है। शायद यहीं उसकी भूल है। फागुन में भौजाई की ठिठोली और मसखरी जाने कहां खो गई। फागुन के गीतों पर ढोल- मंजीरे की थाप सुनाई नहीँ देती है। पूर्वांचल में फागुन के गीत को फगुवा के नाम से पुकारा जाता है। लेकिन अब यह गीत और उसे गाने वाले लोग गायब हैं। अश्लील और गंदे भोजपुरिया गीतों का राज है। फाग गीत प्रकृति से जुड़े होते थे। लेकिन आजकल के गानों में सिर्फ अश्लीलता है। सभ्य समाज में ऐसे गीत सुनने लायक भी नहीं है। समय के साथ सब कुछ बदल रहा है। जबकि यह बदलाव तथ्य और अर्थहीन है।
फागुन प्रकृति का रंगोंत्सव है। फागुन में प्रकृति बदल जाती है। वह मलंग हो जाती है। उसमें अजीब मादकता आ जाती है। फागुन और बसंत के जरिए प्रकृति हमें संदेश देती है कि जिस प्रकार मैं विविधताओं से भरी हूं उसी तरह मानव जीवन में भी रंगों की विविधताएं हैं। सुख-दुःख, हर्ष, विस्माद, उल्लास, उत्सव भी जीवन के अपने रंग हैं। इसको खुल कर जीना चाहिए। फागुन जैसा जीना चाहिए।प्रकृति हमें संतुलन ही नहीं संतुष्टि भी सिखाती है। लेकिन हम उसके संदेश को पढ़ नहीं पाते हैं। जब उसे पढ़ने की कोशिश करते हैं तो फागुन यानी बसंत गुजर गया होता है और हम पतझड़ को लेकर फिर परेशान हो जाते हैं। क्योंकि हम सिर्फ बसंत को जीना चाहते हैं पतझड़ को नहीं।
माघ- फागुन के मौसम में चरखी से निकले गन्ना के रस में दही मिला सीखरन तैयार होता था। फ़िर मटर की सलोनी के साथ उसे पीने का आनंद और स्वाद ही अलग था। अब गाँवों से गन्ने की खेती गायब हो चली है। कड़ाहे गुड़ और खांड की सोंधी गंध नाक को तृप्त नहीँ करती। वह वक्त भी था जब पकती खांड में हम आलू डालने जाते तो दादा की खूब डाट मिलती। लेकिन सब कुछ बदल गया है। अब गांव कंकरीट के जंगल में तब्दील हो चुके हैं। धनाढ्यों ने कई मंजिला इमारतें खड़ी कर शहरी अभिजात संस्कृति का आगाज किया है। घरों में टिमटिमाती ढेबरी की जगह एलीडी और इनवर्टर की प्रकाश ने ले लिया है। कभी – कभी मिट्टी का तेल यानी केरोसिन न मिलने से दादी और अम्मा कडुवा तेल का दीपक जलाती थी। लेकिन अब यह बातें कहानियां हो गई हैं।
प्रकृति में अल्हड़ फागुन जीवंत है लेकिन बदली परम्पराओं और हमारी सोच में वह बूढ़ा हो चला है। फागुन में रास है न रंग। बस होली के नाम पर औपचारिकता दिखती है। अब गालों पर गुलाल मलने सिर्फ रस्म निभाई जाती है जबकि दिल नई मिलते। गाँवों में फागुन वाली भौजाई गायब है। जब कच्चे मकान होते थे तो भौजाई और घर की औरतें माटी- गोबर लगाती थी। पूर्वांचल में गांव की भाषा में इसे गोबरी कहते हैं। गोबरी लगाते वक्त अगर कोई देवर उधर से गुजरता था तो भौजाई दौड़ा कर मुंह और कपड़े में गोबरी लगा फागुन और होली के हुडदंग का आगाज करती थी। फ़िर देवर भी भौजाई को छेड़ने के मौके तलाशते थे। टोलियों के साथ होली मनती थी। वक्त के साथ गांव की होली भी पूरी तरह बदल गई है। होली में आज कल हुड़दंग गायब है। होली के उस हुड़दंग में एक उल्लास और अपनापन था लेकिन सब कुछ सिमटता जा रहा है। अब तो रंग उत्सव का त्योहार होली दिखावटी और बनावटी हो गया है।
वसंत लगते ही रंगत बदल जाती थी। फागुन में होने वाली शादी में दूल्हा और बाराती रंगो में नहा उठते थे। होली के दिन गुड़ में भांग मिलाकर महजूम बनाए जाते थे। भांग मिश्रित ठंढई बनती थी। बचपन में हम लोग उसे पीकर होली के हुडदंग में शामिल हो जाते। यह सब वसंत लगते ही शुरु हो जाता था। लेकिन अब न वह देवर हैं न भौजाई। वसंत पंचमी के दिन से होलिका संग्रह होने लगता। बचपन में युवाओं में होलिका को लेकर खास उत्साह होता। जिस दिन होलिका दहन होता उस दिन दादी ऊबटन और तेल की मालिश कर उसकी लिझी यानी मैल होलिका में डलवाती थी। लेकिन अब इस तरह के रिवाज़ गायब हैं। होलिका दहन अब औपचारिक हो चला है। त्यौहारों की मिठास ख़त्म हो चली है। आपसी प्रेम और सौहार्द गायब है। फागुन एक सोच है। वह जिंदगी को हसीन और रंगीन बनाने का संदेश है। वह उम्मीदों की नई कोंपल है। लेकिन वक्त इतनी तेजी से बदला की फागुन और उसकी ठिठोली खुद को तलाश रहीं है।