-अनुज आचार्य-
आजकल भारत में प्याज की बढ़ती कीमतों ने गृहणियों की आंखों में आंसू ला रखे हैं। इससे पहले टमाटर लाल पीला हो रखा था। भारत में कुल प्याज उत्पादन का लगभग 30 फीसदी महाराष्ट्र राज्य में पैदा होता है। महाराष्ट्र में भी सबसे ज्यादा प्याज पैदा करने वाले तीन जिले नासिक, अहमदनगर और पुणे हैं। इस राज्य का लाल प्याज अपने स्वाद और तेज गंध के लिए प्रसिद्ध है। त्योहारी सीजन से पहले टमाटर के दामों में राहत मिले अभी कुछ ही दिन हुए थे कि अब प्याज की कीमतें भी लगातार बढ़ रही हैं। पिछले 20 दिनों में प्याज के दामों में जबरदस्त इजाफा हुआ है और यह मूल्य वृद्धि लोगों की जेब पर भारी पड़ रही है। प्याज की बढ़ती हुई कीमतों पर सब्जी विक्रेताओं का कहना है कि बढ़ती कीमतों के पीछे बाजार में प्याज की कमी है और जब प्याज की पर्याप्त आपूर्ति बढ़ेगी तो कीमतें नियंत्रण में आ जाएंगी। लेकिन फिलहाल तो आशंका है कि प्याज की कीमतें 100 रुपए प्रति किलो तक पहुंच सकती हैं। तब तक व्यापारियों के वारे न्यारे हो चुके होंगे और आम आदमी की जेबें खूब ढीली हो गई होंगी। कहीं कहीं सरकार द्वारा 25 रुपए किलो की दर से प्याज उपलब्ध करवाया जा रहा है, लेकिन इससे पूरे देश-प्रदेश के नागरिकों को तो राहत नहीं मिल रही है। इस बात से भी सभी भली-भांति परिचित ही हैं कि आम आदमी तक खाद्य सामग्री पहुंचने से पहले दलालों, बिचौलियों और आढ़तियों की जेबें गर्म हो चुकी होती हैं, जबकि किसानों को कभी भी उनके उत्पादों के सही दाम नहीं मिलते हैं।
उल्टे खून पसीना बहाने वाले इन किसानों की कमर कर्ज की मार से झुकी रहती है। रिटेल बाजार में खाद्य पदार्थों और सब्जियों के दाम चाहे कितने भी क्यों न बढ़ जाएं, लेकिन किसान वर्ग को इसका फायदा कभी भी नहीं मिलता है। इसके विपरीत जमाखोरों-स्टोरियों द्वारा जमकर खाद्य वस्तुओं की जमाखोरी की जाती है और बाजार में वस्तुओं का कृत्रिम अभाव पैदा कर महंगाई को बढ़ाकर चोखा मुनाफा कमाया जाता है। हिमाचल प्रदेश के सरकारी आंकड़ों में पिछले कुछ दशकों से घरेलू सब्जी उत्पादन एवं अनाज की पैदावार में बढ़ोतरी दर्ज की गई है तो वहीं दूसरी तरफ बंदरों के उत्पाद और बेसहारा पशुओं की टोलियों के चलते अधिकतर जगहों पर कृषि कार्यों में आ रही परेशानियों के चर्चे भी अक्सर सुनने को मिलते रहते हैं। जो छोटे किसान अपनी मेहनत के बलबूते थोड़ा बहुत अन्न एवं सब्जी उत्पादन कर भी रहे हैं तो उनकी सबसे बड़ी समस्या अपनी वस्तुओं की बिक्री को लेकर है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि प्रशासन को यह पता ही नहीं है कि बाजारों में सब्जियों के दामों और अन्य खाद्य वस्तुओं का क्या हाल है और अधिकारी वर्ग अपनी कुर्सियों तक सीमित होकर रह गए हैं। आज से 30-35 वर्ष पूर्व जब कभी भी महंगाई का जिन्न अपना सिर उठाता था तो विपक्षी दलों द्वारा जरूर धरना प्रदर्शन और विरोध प्रदर्शन की खबरें देखने सुनने को मिलती थीं। लेकिन अब जैसे राजनीतिक दलों को आम जनता को होने वाली परेशानियों से कोई लेना देना ही नहीं है।
हिमाचल प्रदेश में नवम्बर महीने की शुरुआत तक सब्जियों की पैदावार बढऩे के साथ ही इनके दाम नीचे आ जाते थे, लेकिन इस बार ऐसा होता दिखाई नहीं पड़ रहा है। बाजार में टमाटर 40, तो हरा मटर 140 रुपए पार बिक रहा है। अदरक 160 रुपए तो बाकी सब्जियों के मूल्य भी लगभग 60 रुपए पार ही हैं और खुदरा दुकानदार मोटा मुनाफा कूटने में जुटे हुए हैं। मूल्य सूची तो शायद ही कोई दुकानदार लगाता होगा, बिल देना तो दूर की कौड़ी समझिए। बाजारवाद की लूट में अधिकांश व्यापारियों की मौज लगी हुई है और वस्तुओं के मूल्यों पर सरकारी नियंत्रण कहीं नहीं दिखलाई पड़ रहा है। आम ग्राहक सरेआम लुट रहा है। आखिर कितने दुकानदार या व्यापारी आयकर चुकता कर रहे हैं, इनके द्वारा जमीनों की खरीद, गलों में लटकी मोटी सोने की चेनें, इनकी महंगी गाडिय़ों और आलीशान भवनों को देखकर साफ झलकता है कि इनको मोटी कमाई हो रही है। क्या आयकर विभाग ऐसे विक्रेताओं की कमाई तथा टैक्स देयता की भी जांच पड़ताल करेगा? प्रश्न यह भी उठता है कि जब देश में जीवनोपयोगी वस्तुओं की बहुलता है तो फिर मूल्य वृद्धि क्यों और किसान गरीब क्यों? यह सही है कि जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, लेकिन वैश्विक सहयोग और कई अन्य उपायों से वस्तुओं की उपलब्धता में भी उसी अनुपात में बढ़ोतरी हो रही है तो भी चीजें इतनी महंगी क्यों बिक रही हैं और महंगाई का बोलबाला क्यों है?
अच्छे मानसून और बेहतर पैदावार के बावजूद खाद्य वस्तुओं का कृत्रिम अभाव कौन पैदा कर रहा है, क्यों सरकारें इन पर लगाम नहीं लगा पा रही हैं? लोकतंत्र में राजनीतिक दलों को भी तो अंतत: जनता जनार्दन की कृपा से ही सरकारें बनाने का सुफल मिलता है, तो फिर क्यों वे आम जनता के हितों को नजरअंदाज करते हैं? आशा है कि केंद्र एवं राज्य सरकारें उत्पादों का निर्माण करने वाले निर्माताओं और खुदरा कारोबारियों से उपभोक्ताओं को बेरहमी से लुटने से बचाने के लिए एमआरपी यानी अधिकतम खुदरा मूल्य तय करने के लिए एक तंत्र विकसित करेंगी और सख्ती से इस नीति के अंतर्गत नियम कानूनों का अनुपालन भी करवाया जाएगा, ताकि ग्राहकों को उचित मूल्य पर सामग्री/वस्तुएं मिलती रहें। अंतत: सवाल उठता है कि क्या अफसरशाही के पास इस लूटपाट को अंजाम देने वाले जमाखोरों, मुनाफाखोरों और कालाबाजारी करने वालों के खिलाफ किसी प्रकार की कोई कार्रवाई करने का जीवट है?