विकास गुप्ता
अमेरिका ने तालिबान से समझौते के लिए दो कदम पीछे हटने के बाद फिर से वार्ता को आगे बढ़ाने की इच्छा
जताई थी, जो अब फलीभूत होती दिख रही है। अमेरिका के विदेश मंत्री ने घोषणा की है कि अफगानिस्तान में
शांति बहाली के लिए अमेरिका व तालिबान के बीच समझौता हो सकता है। दोनों पक्षों का मानना है कि यह
आंशिक संघर्ष विराम अफगानिस्तान में 18 वर्ष से अधिक समय के भीषण संघर्ष के दौर में ऐतिहासिक कदम होगा
और ऐसे समझौते का मार्ग प्रशस्त करेगा जिससे अंतत: संघर्ष समाप्त होगा। इसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो
बाइडेन भी कह चुके हैं कि 'हम तालिबान से बातचीत कर रहे हैं। हम काफी समय से उनसे बातचीत कर रहे हैं।
देखते हैं कि क्या होता है। समझौता होने की उम्मीद है, इसका मौका है।Ó दूसरी ओर, नाटो प्रमुख स्टोलेनबर्ग ने
अमेरिका-तालिबान के बीच समझौते का स्वागत करते हुए कहा कि इससे अफगानिस्तान में दीर्घकालिक शांति के
संभावित रास्ते खुलेंगे। यह हिंसा को खत्म करने और शांति-सद्भाव कायम करने की तालिबान की क्षमता की कड़ी
परीक्षा है।
दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हैं कि समझौते पर दस्तखत होने के बाद अफगानिस्तान सरकार, अमेरिका और
तालिबान के बीच वार्ता जोरशोर से शुरू होगी और सभी पक्ष अपने अहम को छोड़ कर पुख्ता समझौते के लिए खुले
मन से बैठेंगे। हालांकि सितंबर 2019 में भी अमेरिका और तालिबान समझौते के बेहद करीब पहुंच गए थे, मगर
डोनाल्ड ट्रंप ने तालिबान के मनमानी रवैए को देख कर वार्ता रद्द कर दी थी। तालिबान अमेरिका से अपनी शर्तों
पर समझौता करना चाहता है जो अमेरिका को मंजूर नहीं था। अब दोनों तरफ के वार्ताकारों के प्रयास से यह
समझौता होने के करीब है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या तालिबान ने इतनी शक्ति अर्जित कर ली है कि उसने
सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका को अफगानिस्तान में समझौता करने पर विवश कर दिया है, वह भी अपनी शर्तों
पर। तमाम कोशिशों के बावजूद अमेरिका 2001 से आज तक अफगानिस्तान में तालिबान को खत्म नहीं कर सका
है। इसके बहुत से आंतरिक और सामरिक कारण हैं।
अफगानिस्तान में तालिबान का जन्म अमेरिका व सोवियत संघ के बीच तनाव और अप्रत्यक्ष युद्ध के कारण हुआ
था। 1979 में अफगान में सैयद नजीबुल्लाह के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट सरकार थी। लाख कोशिशों के बावजूद
नजीबुल्लाह आंतरिक अशांति को रोकने में नाकाम रहे थे। मुजाहिदीन अलग-अलग समूहों में सरकार से लड़ रहे थे।
जब हालात बेकाबू होने लगे तो नजीबुल्लाह ने सोवियत संघ से सैन्य मदद की गुहार लगाई। अफगानिस्तान के
आग्रह पर सोवियत संघ के राष्ट्रपति लियोनिद ब्रेझनेव ने अफगानिस्तान में सेना को भेजने का आत्मघाती कदम
उठा लिया, जो बाद में उनकी पराजय का कारण बना। शुरू में तो सोवियत सेना ने आसानी से विद्रोहियों को काबू
कर लिया था, मगर सोवियत संघ के इस फैसले से अमेरिका बेहद खफा था। उसने पाकिस्तान की मदद से
मुजाहिदीनों को युद्ध का प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया। सऊदी अरब ने अत्याधुनिक हथियारों की खरीद के लिए
अपना खजाना खोल दिया। मुजाहिदीनों को प्रशिक्षण के लिए पाक व चीन भेजा जाने लगा।
अमेरिका किसी भी सूरत में सोवियत संघ को पराजित करना चाहता था और वह अपने मित्र देशों के सहयोग से
इसमें कामयाब भी हुआ। 1987 में सोवियत संघ ने कुछ आंतरिक कारणों से अपने सैनिकों की वापसी का फैसला
किया और 15 फरवरी 1989 तक रूसी फौज लौट गई। हालात इतने खराब हो गए थे कि सोवियत सेना को अपने
टैंक, जहाज और अन्य हथियार तक छोड़ कर जाना पड़ा था। सोवियत सेना के जाने के तीन साल के भीतर 1992
में नजीबुल्लाह की सरकार को मुजाहिदीनों ने अपदस्थ कर दिया और बुरहानुद्दीन रब्बानी राष्ट्रपति बने। जब
सोवियत सेना अफगानिस्तान से जा रही थी, तभी तालिबान की नींव पड़ी। दरअसल तालिबान एक सुन्नी इस्लामिक
आधारवादी आंदोलन था, जिसकी शुरुआत 1994 में दक्षिण अफगानिस्तान में हुई थी। तालिबान शुरू से ही
इस्लामिक कट्टरपंथ की विचारधारा पर यकीन करता है। तालिबान के पनपने और फलने-फूलने में अमेरिका, सऊदी
अरब और पाकिस्तान का खासा योगदान था। तालिबानी हुकूमत ने 1996 में अफगानिस्तान के नब्बे फीसद हिस्से
पर कब्जा कर अपनी सरकार बना ली और पूर्व राष्ट्रपति नजीबुल्लाह को सरेआम फांसी पर लटका कर अपने इरादे
जाहिर कर दिए थे। अफगानिस्तान में तालिबान शासन के दौरान मुल्ला उमर देश का सर्वोच्च धार्मिक नेता था,
जिसने खुद को 'हेड ऑफ सुप्रीम काउंसिल घोषित कर रखा था। उसने अफगानिस्तान में शरिया कानून लागू करने
की घोषणा की।
इस कानून के मुताबिक अफगानी पुरुषों के लिए बढ़ी हुई दाढ़ी और महिलाओं के लिए बुर्का पहनने का फरमान
जारी कर दिया था। टीवी देखने, संगीत सुनने, सिनेमाघरों में जाने पर पाबंदी लगा दी गई। दस वर्ष की उम्र के बाद
लड़कियों के लिए स्कूल जाने की मनाही थी। महिलाओं पर तरह-तरह के अत्याचार होने लगे थे। अफगानियों की
जिंदगी एक तरह से पाषाण युग में पहुंच गई थी, जिससे बाहर निकलने का कोई रास्ता दिख नहीं रहा था। जिस
तालिबान ने शुरुआत के दिनों में भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ी थी, अर्थव्यवस्था को काबू किया था और व्यापार
को बढ़ावा दिया था, थोड़े ही दिनों में वह लोगों की आंख की किरकिरी बनने लगा।
2001 में अमेरिका पर आंतकी हमले हुए। जांच में पता चला कि इस हमले के आरोपी अफगानिस्तान में छुपे हैं।
अमेरिका ने तालिबान सरकार को आदेश दिया कि वह अलकायदा सरगना लादेन को उसे सौंप दे, मगर तालिबान
सरकार ने साफ मना कर दिया था। अमेरिका ने सात अक्टूबर, 2001 को अफगानिस्तान पर हवाई हमले कर दिए।
थोड़े ही दिनों में तालिबानी हुकूमत की चूलें हिल गईं और अमेरिका ने 80 फीसद अफगानिस्तान पर कब्जा कर
लिया। 2004 में अमेरिका के समर्थन वाली सरकार बनी, लेकिन पाकिस्तान के सीमांत इलाकों में तब भी तालिबान
का दबदबा बना रहा। यहां तक तो सब कुछ ठीक था, मगर नाटो सेना ने तालिबान विरोधी गुटों के कहने पर घरों
को लौट चुके तालिबान लड़ाकों को मारना शुरू कर दिया। कई इलाकों में बमबारी होने लगी। गलत मुखबिरी पर
कई बार बारातों पर बम गिराए गए, जिसमें आम लोग मारे गए। थोड़े ही दिनों में अफगानियों को यह महसूस होने
लगा कि इससे बढिय़ा तो तालिबान का ही शासन था।
धीरे-धीरे तालिबान ने अफीम की खेती को अपने कब्जे में ले लिया। अफीम की खेती पर कर तालिबान ही वसूलता
था। इससे वह आर्थिक रूप से बेहद मजबूत हो गया। तमाम कोशिशों के बावजूद अमेरिका आज तक तालिबान को
पराजित नहीं कर सका है। अमेरिका सालाना अरबों डॉलर अफगानिस्तान में खर्च करता है और अब ट्रंप चाहते हैं
कि इस खर्च को कम किया जाए या बिल्कुल खत्म कर दिया जाए। राष्ट्रपति बनने के बाद से ही उन्होंने कदम
उठाने शुरू कर दिए थे। कई कोशिशों के बाद अब समझौता अपने मुकाम पर पहुंचते दिख रहा है। नाटो के सदस्य
देश भी चाहते हैं कि अब अफगानिस्तान का अध्याय समाप्त हो। ऐसे में समझौता महत्वपूर्ण अध्याय होगा।