संयोग गुप्ता
दरअसल, बड़ी सहज सी बात है सकारात्मक और नकारात्मक दो पहलु जीवन के अहम हिस्से है। सकारात्मकता से
बड़े से बड़े दुख हर लिए जाते है वहीं नकारात्मकता से छोटे से छोटे सुख भी बैर बन जाते है। यह सब अपनी-
अपनी सोच पर निर्भर करता है कि हम किसका, कैसा सामना करते है। लाजमी है सभी चाहते है उनके साथ
हरदम सकारात्मक परिस्थिति ही बनी रही है। नाकारत्मकता तो आसपास भी कदापि ना भटके। लेकिन
सकारात्मक और नकारात्मकता का प्रभाव कभी-कभी मनवांछित भी लगता है। यह सब हमें कोरोना नामक चीनी
विषाणु ने भलीभांति समझा दिया। सम्यक ही देखिए कोरोना संदिग्धों की जांच रिर्पोट नकारात्मक आने का बेसब्री
से इंतजार रहता है, नाकि सकारात्मक होने का। इतर सकारात्मक रिर्पोट आने पर पीड़ित से सुरक्षात्मक
दृष्टिकोण से शारीरिक दूरी बरतना, मुखपट्टी बांधकर वार्तालाप, खानपान व दवाई इत्यादि देना समेत अन्य
जिम्मेदारियों को निभा रहे है। इस आशा में कि कब सकारात्मक रिर्पोट नकारात्मक आए। किंतु सकारात्मक विषाणु
संक्रमण के प्रति नकारात्मक का भाव रखते है। इससे बचने के अनेकों जुगत करते है ताकि यह हमसे और हम
इससे कोसों दूर ही रहे क्योंकि इसमें हम सबकी भलाई निहित है। इसीलिए नकारात्मक समय में सकारात्मक सोच
बनाए रखने की निहायत जरूरत है। मसलन नकारात्मक सोच समस्या को जन्म देती है, और सकारात्मक सोच
समाधान को। हमने सुनना सीख लिया तो सहना सीख जाएंगे और सहना सीख लिया तो रहना सीख जाएंगे।
गौरतलब रहे कि हर कोई समस्या, समाधान लेकर आती है ऐसा ही कुछ हमें कोरोना महामारी में देखने को मिला।
जहां ऐसी बड़ी अर्थव्यवस्था और चिकित्सकीय सुविधाएं वाले देश कोरोना के संक्रमण के आगे धराशाई हो गए। वहां
हमारा भारत देशी चिकित्सक, नमस्कार, 2 गज की दूरी, जड़ी बूटियों के चूर्ण, काडे और योगा-प्राणायाम के सहारे
चीनी वायरस को अभी तक कुचलने में कामयाब रहा है। ये हमारे संयम, संकल्प और सकारात्मक पहलु का
परिचायक ही तो है कि हमनें अल्प संसाधनों में मर्ज का मर्म ढूंढ लिया। लागू तालाबंदी में रचनात्मक सोच के साथ
घरों में सह परिवार रहना सीख लिया। मुखपट्टी बांधना और स्वच्छता के सबक को जीवनशैली बनाया। कम और
घरेलू सामग्री में गुजर-बसर करने की आदत बनी। विदेशी के बजाय स्वदेशी पर भरोसा होने लगा क्योंकि विपत्ति
काल में घर और गांव की चीजों ने पूरी की। अपने और अपनों की कीमत समझ में आ गई। घर में रहकर,
शारीरिक दूरियां बरतकर काम करने का जरिया मुक्मल सामने आया। घरेलु कामों में मन, बागवानी और घर का
खाना लजिज लगा। महिलाओं की कदर व उनके घर गृहस्थी के काम महत्वपूर्ण लगे।
बीमारी से नफरत और बीमार से प्यार हुआ। जितनी चादर उतना पैर पसारने की बात तालाबंदी में जुगलबंदी बनी।
पुराने खेल और खिलौने से बच्चों का मन बहलने लगे। दादी-नानी की कहानी खिस्सें घर-घर में गुंजे। दूरदर्शन पर
रामायण, महाभारत, श्रीकृष्णा, विष्णु पुराण, शक्तिमान और बुनियाद के सजीव चित्रण रमने लगे। हवन,
अनुष्ठान की शुद्धता कोरोना का मारक अस्त्र कहलाई। चिकित्सकों का ईश्वरी रूप दिखाई दिया। तालाबंदी का
पालन करवाने वाले योद्धाओं के प्रति दिल में सम्मान बड़ा। स्वयं सेवियों, दानदाताओं, स्वच्छताग्राहियों और
श्रमवीरों ने दिल खोलकर मदद के हाथ बढ़ाए। सरकारी मोहकमों ने बखुबी जिम्मेदारी निभाई। खासतौर पर पुलिस
के समर्पण को देखते हुए नजरिया ही बदल गया कि यह भी हमारे सजग मानवीय प्रहरी हैं। तालाबंदी की पाबंदी
बेपरवाह जीवन की बंदिश बन गई। स्वावलंबन, जन, जल, जंगल, जमीन और पशुधन मन को भाये। गुरुकुल का
अनुशासन और मेरा गांव, मेरा देश याद आने लगा। तभी नगर, महानगर, प्रदेश, देश क्यां परदेश से भी वापसी में
देर नहीं लगी। मेरे गांव, मेरे देश पर विश्वास जता, माटी की महक ने सारे दुख हर लिए। जितना है उतने में
कोरोना संक्रमण पर आक्रमण की तैयारी कर ली। चाहे कुछ हो जाए अब मेरा घर, मेरा गांव, मेरा देश मेरे लिए
बहुत कुछ है। दृढ़निश्चय रहा तो निसंदेह एक दिन अपनी काबिलयत से प्रवासियों को स्थायी रहवासी बनते देर नहीं
लगेगी। आखिर! मेरे देश की धरती उपजे अन्न, उगले सोना, हीरा, मोती इस बात का द्योतक बनेंगे परिश्रमी।