गीत की लय और गजल की नाजुक बयानी के महीन धागे जहां बिना कोई गांठ लगाए एक-दूसरे से जुड़ते हैं, वहीं से उठती हैं कवि राजगोपाल सिंह की रचनाएं। गीत और गजल के पिछले चार दशक के सफर में राजगोपाल सिंह ऐसे बरगद के पेड़ हैं, जिनकी छांव में हरेक गीत और गजल सुनने वाला और कहने वाला जरूर कुछ पल सुस्ता कर आगे बढ़ा है।
यूं तो गजल कहने के बारे में बहुत-सी बातें कही और सुनी जाती हैं पर यहां मैं वह कहना चाहूंगा जो निश्तर खानकाही गजल के विषय में कहते हैं। वे कहते हैं कि जब भी कोई गजल संग्रह मेरे हाथ में आता है तो मैं सबसे पहले गजलों के लिए प्रयोग किए गए काफिए देखता हूं और जानने की कोशिश करता हूं कि गजलकार काफिए को अपना खयाल दे रहा है या खुद काफिए के आगे हाथ जोड़े खड़ा है।
अगर इस नजरिए से राजगोपाल जी की गजलें सुनी जाएं तो वे हमें एक ऐसे सफर पर ले जाती हैं जिसका अगला स्टेशन कौन-सा होगा; ये अंदाजा हम नहीं लगा सकते। या यूं कहें कि किसी फकीर का फलसफा है उनकी गजलें, जो जमीन से आसमान को, साकार से निराकार को जोड़ती चलती हैं। उनकी गजलों में महज काफिया पैमाई नहीं है। उनकी गजलें गहरे खयालों और सहज काफियों से एक ऐसी झीनी-सी चादर बुनती हुई चलती हैं, जिसको ओढ़ लेने पर दुनिया की हकीकत और खुलकर उजागर होती हैं-
मौन ओढ़े हैं सभी, तैयारियां होंगी जरूर
राख के नीचे दबी, चिन्गारियां होंगी जरूर
आज भी आदम की बेटी, हंटरों की जद में है
हर गिलहरी के बदन पर धारियां होंगी जरूर
या
यह भी मुमकिन है ये बौनों का नगर हो इसलिए
छोटे दरवाजों की खातिर अपना कद छोटा न कर
राजगोपाल सिंह जी ने गजल को नए तेवर से सजाया भी, संवारा भी और जरूरत पड़ने पे बड़ी बेतकल्लुफी से इसे अपने मुताबिक ढाला भी-
गिर के आकाश से नट तड़पता रहा
सब बजाते रहे जोश में तालियां
मेरे आंगन में खुशियां पलीं इस तरह
निर्धनों के यहां जिस तरह बेटियां
मैं हूं सूरज, मेरी शायरी धूप है
धूप रोकेंगी क्या कांच की खिड़कियां
उनके लेखन में हमारी संस्कृति की विरासत है। समाज में व्याप्त रूढ़ियों से जूझते आदमी की घुटन है और बुराई के सामने सीना तानकर खड़े होने का हौसला है। उनकी गजलों में कहीं किसी हसीं हमसफर से हाथ छूट जाने की कसक है, तो कहीं मन की गहराइयों में करवटें लेते और बार-बार जीवन्त हो उठते गांव के नुक्कड़ हैं, गांव की गलियां हैं, पुराना पीपल है, बूढ़ा बरगद है और मां के आंसुओं से नम उसका ममता से भरा आंचल है। और हम सबके साथ अपने दर्द को मुस्कुराते हुए कहने का अनोखा अंदाज भी है-
वो भी तो इक सागर था
एक मुकम्मल प्यास जिया
अधरों पर मधुमास रही
आंखों ने चैमास जिया
चैमास राजगोपाल सिंह जी की गजलों, गीतों और दोहों का एक ऐसा संग्रह है जिसमें चुन-चुन कर उनकी वे रचनाएं रखी गई हैं जो शिल्प, कथ्य और भाव की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं और जन गीतों का दर्जा पा चुकी हैं। एक आम आदमी की पीड़ा को उसी के शब्दों में कह कर राजगोपाल सिंह जी आज सच्चे जनकवि बनकर सामने खड़े हैं-
न आंगन में किसी के तुलसी
न पिछवाड़े नीम
सूख गए सब ताल-तलैया
हम हो गए यतीम
उनके गीत ढहती भारतीय संस्कृति की विरासत को बचाकर गीतों में संजोकर आने वाली पीढ़ी के सामने एक ऐसा साहित्य रखने की उत्कंठा से भरे हैं, जो सदियों तक भारत के जनमानस पर छाया रहेगा। और एक समय कहा जाएगा कि यदि सच्चा गांव, सच्चा भारत, सच्चे रिश्तों को देखना हो, उनकी सौंधी गंध पानी हो, तो एक बार जनकवि राजगोपाल सिंह की रचनाओं को पढ़ो। उनकी दुनिया में विचरण करो, तुम्हें भारत की सच्ची झांकी दिखाई देगी।