विकास गुप्ता
सन् 1991 में पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में उनके वित्तमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने उदारवाद की
शुरुआत की। उससे देश की अर्थव्यवस्था में कई बड़े परिवर्तन आए। कांग्रेस ने पहली बार इंदिरा गांधी के
समाजवादी गणराज्य की परिकल्पना से परे हट कर सोचा और विश्व बैंक तथा विश्व मुद्रा कोष जैसी वैश्विक
आर्थिक संस्थाओं के निर्देशन तथा दबाव में विदेशी कंपनियों को भारत में व्यापार करने की सुविधा बढ़ाई,
विदेशी निवेश आमंत्रित किया और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को और भी कई सुविधाएं दीं। अर्थव्यवस्था के मामले में
हम भारतीय वस्तुतः खुले बाजार की पश्चिमी अवधारणा से प्रभावित हैं और लगभग हर भारतीय यह मानता है
कि भारतवर्ष यदि कभी सुपर पॉवर बना तो वह इसी राह पर चल कर ही महाशक्ति बन सकता है। एक सीमा
तक यह सही भी है, पर यह पूरा सच नहीं है। नई तकनीक, रोज़गार के नए द्वार खोल रही है। ओला और
उबर जैसी टैक्सी कंपनियों तथा काल सेंटरों, बीपीओ, केपीओ आदि ने बेरोज़गार युवकों की एक बड़ी फौज को
न केवल रोज़गार दिया है, बल्कि उनकी आय का स्तर भी बढ़ाया है। समस्या यह है कि यदि हम बदलते
समय के मुताबिक खुद को न ढालें तो नई तकनीक रोज़गार छीनने में भी देर नहीं लगाती। बढ़ती आटोमेशन
के कारण बहुत से लोग बेरोज़गार हो रहे हैं क्योंकि मशीनें आदमियों से बेहतर काम करती हैं, तेजी से काम
करती हैं और तनख्वाह या बोनस नहीं मांगतीं, दूसरों का ध्यान नहीं बंटाती, कामचोरी नहीं करतीं और हड़ताल
भी नहीं करतीं।
डिजिटल कैमरे के आविष्कार ने विश्व की सबसे बड़ी फोटो पेपर कंपनी कोडक को दीवालिया बना दिया। यह
तो मात्र एक उदाहरण है, ऐसे उदाहरणों की लंबी सूची बन सकती है। आने वाले पांच-दस वर्षों मे पारंपरिक
उद्योगों को सबसे अधिक साफ्टवेयर प्रभावित करेगा। विश्व के सबसे बुद्धिमान ज्ञानियों, प्रोफेशनलों, विशेषज्ञों
को कम्प्यूटर ने उम्मीद से 10 वर्ष पहले ही धराशायी कर दिया है। अमरीका में नए वकीलों को काम नहीं
मिल रहा है क्योंकि आईबीएम वाट्सन द्वारा आपको अच्छी से अच्छी कानूनी सलाह सेकंडों में, वह भी 90
प्रतिशत सटीक मिल जाती है। परिणाम यह हुआ है कि धीरे-धीरे सिर्फ धुरंधर वकीलों की आवश्यकता रह गई है
और चुनिंदा विशेषज्ञों को ही काम मिल रहा है। अगले दो-तीन वर्षों में लोगों के उपयोग के लिए स्वचलित कार
आएगी, इससे पारंपरिक कार उद्योग का विघटन प्रारंभ हो जाएगा। आप को कार खरीदने की जरूरत ही नहीं
होगी। आप फोन पर कार बुलाएंगे, कार आपके सामने होगी, आपको गंतव्य तक पहुंचा देगी। आपको उसे पार्क
करने की जहमत नहीं उठानी है, आप तो बस जितने किलोमीटर चल कर आए हैं, उसका भुगतान कर दीजिए।
कारों के मामले में यह बहुत उपयोगी होगा। हमारे बच्चों को ड्राइविंग लाइसेंस की जरूरत ही नहीं होगी, वह
कभी कार खरीदने वाले ही नहीं हैं। इससे शहरों में बदलाव दिखेगा, क्योंकि हमें 90 से 95 प्रतिशत कम कारों
की जरूरत रह जाएगी। हम कार पार्किंग वाले स्थानों पर पार्क विकसित कर सकेंगे। विश्व में प्रतिवर्ष 20 लाख
से भी अधिक लोग सड़क दुर्घटना के शिकार होते हैं। स्वचलित कारों से यह संख्या बहुत कम हो जाएगी।
परिणामस्वरूप दुर्घटनाओं के बिना बीमा भी सस्ता हो जाएगा, कार बीमा जैसे घटक तो गायब ही हो सकते
हैं। एक और सच यह है कि अमरीका में चुनाव हुए तो दोनों ही प्रमुख उम्मीदवार देश की अर्थव्यवस्था को
लेकर चुप रहे। वहां एचएसबीसीए बैंक आफ अमेरिका तथा गोल्डमैन सैक आदि बड़े बैंकों ने चेतावनी दी थी कि
देश को एक और मंदी से गुजरना पड़ सकता है क्योंकि गाल फुला-फुलाकर किए गए अर्थव्यवस्था में सुधार के
दावे पूरे नहीं हो पाए हैं। सारी दौलत कुछ ही परिवारों के हाथ में इकट्ठी हो गई है। अमरीका में भोज्य सामग्री
के निर्माण का अधिकांश काम सिर्फ चार बड़ी कंपनियों तक सीमित हो गया है। स्वास्थ्य, रक्षा, बैंकिंग सभी
क्षेत्रों का हाल ऐसा ही है जहां कुछ परिवारों की मोनोपली चलती है। सभी क्षेत्रों के व्यवसाय कुछ बड़े परिवारों
के हाथों में सीमित हो गए हैं। आम जनता के पास खर्च करने के लिए धन नहीं बचा है, परिणाम यह है कि
ज्य़ादातर बिक्री सिर्फ तब होती है जब सेल लगी हो और चीजों पर डिस्काउंट चल रहा हो। सन् 2008 की
मंदी के बाद दौलत कुछ हाथों में इकट्ठी हो गई, लेकिन उसका कहीं उपयुक्त निवेश न होने के कारण ब्याज
की दरें घटीं तो आर्थिक संस्थाओं ने कर्ज देने में कंजूसी शुरू कर दी। सरकार के पास इस स्थिति से निपटने
के लिए कोई कारगर योजना नहीं है। लोग या तो बेरोज़गार हैं या उन्हें उनकी काबलियत से कम वेतन पर
काम करने के लिए विवश होना पड़ रहा है। बेरोजगारी ने लोगों को हताश किया है और वे नशे के आदी होते
जा रहे हैं। अमरीका के बहुत से मॉल दीवालिया होने की कगार पर हैं। यह विश्व के सबसे शक्तिशाली और
विकसित देश की अर्थव्यवस्था का हाल है। हम भारतीय आज अमरीकी अर्थव्यवस्था की नकल में लगे हैं। यहां
भी अंबानी, अडानी और कुछ धनी परिवारों ने सारे व्यवसाय पर कब्जा कर लिया है और यह क्रम लगातार
जारी है। छोटे दुकानदारों के सामने कई चुनौतियां हैं। निवेशकों का धन उड़ाने वाली ऑनलाइन कंपनियां आम
व्यापारी के लिए परेशानियां खड़ी कर रही हैं। अभी हम अमरीका की चरम स्थिति तक नहीं पहुंचे हैं। कुछ साल
तक ग्राहक खुश होते रहेंगे क्योंकि उन्हें सामान सस्ता मिल रहा है, सुविधापूर्वक मिल रहा है, लेकिन धीरे-धीरे
हाल यह हो जाएगा कि आम आदमी के पास खरीददारी के लिए धन ही नहीं बचेगा।
गरीब-गुरबा और निम्न मध्यवर्ग की हालत और खराब हो जाएगी। उच्च मध्यवर्ग अपने दिखावेपूर्ण जीवनस्तर
के कारण सदैव परेशान रहेगा। उसका धन उपयोगी कामों में लगने के बजाय दिखावे के कामों पर ज्य़ादा खर्च
होगा। समस्या यह है कि यह कोरी कल्पना नहीं है। यह एक भयानक सच्चाई है जो अगले कुछ वर्षों में हमारे
सामने होगी। इस समस्या से बचने का एक ही तरीका है कि हम कुटीर उद्योगों पर फिर से ध्यान दें, उन्हें
तकनीक का लाभ लेना सिखाएं। दस्तकारों को प्रोत्साहित करें, उनका सामान खरीदें और उसके निर्यात के लिए
अधिक से अधिक बाजार ढूंढ़े। यह सच है कि भविष्य में तकनीक सिर्फ एक सपोर्ट-सिस्टम न रहकर उद्योगों
की दिशा निर्धारित करेगी। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि कुटीर उद्योगों की विशेषताएं बरकरार रखते हुए
उन्हें तकनीक का सहयोग देने की व्यवस्था करें। इसी से भारतीय अर्थव्यवस्था की खासियतें बरकरार रह
सकेंगी। इन्हीं खासियतों के कारण हम 2008 में बचे थे और अब भी अपनी इन्हीं खासियतों के सहारे उस
गर्त में जाने से बच सकेंगे जिसमें अमरीका जाता दिख रहा है। हमें याद रखना होगा कि तकनीक सिर्फ एक
औज़ार है और इस औज़ार के सही उपयोग का निर्णय हमारे ही हाथ में है। तकनीक ने फिलहाल जो समीकरण
बदले हैं, उन्हें हम अपने फायदे में प्रयोग करना सीख लें तो हमारी अर्थव्यवस्था और भी मजबूत होगी तथा
बेरोज़गारी भी नहीं बढ़ेगी। यही शुभ है, यही श्रेयस्कर है।