शिशिर गुप्ता
1995 में जब हमने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की संधि पर हस्ताक्षर किए थे, तब हमें बताया गया था
कि हमारे देश के उत्पादों, विशेषकर कृषि उत्पादों के लिए विकसित देशों के बाजार खुल जाएंगे। हमारे किसान
अपने माल को ऊंचे दाम में बेच सकेंगे, हमें भारी मात्रा में विदेशी निवेश मिलेगा और डब्ल्यूटीओ में पेटेंट कानून
को सम्मिलित किए जाने के कारण वैश्विक निवेशकों को अपनी तकनीक को भारत में हस्तांतरित करने में संकोच
कम होगा। जैसे यदि किसी देश के पास माइक्रोस्कोप बनाने की आधुनिक तकनीक है तो वह पेटेंट कानून के अभाव
में उस माइक्रोस्कोप का भारत में उत्पादन नहीं करना चाहेगा। इसलिए यदि हम डब्ल्यूटीओ में दस्तखत करते हैं
और उसके पेटेंट कानून को अपनाते हैं तो हमें विदेशी निवेश मिलेगा। तीनों ही बिंदुओं पर डब्ल्यूटीओ का रिकार्ड
उत्साहवर्धक नहीं रहा है। बेर्तेल्समान स्टिफटुंग नाम की जर्मन संस्था ने आकलन किया है कि डब्ल्यूटीओ की संधि
पर हस्ताक्षर करने के कारण भारत के निर्यातों में 37 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह बात स्वीकार्य है, लेकिन
इसके साथ-साथ हमारे आयातों में इससे भी ज्यादा वृद्धि हुई है। और यही कारण है कि आज हमारा विदेश व्यापार
भारी घाटे में चल रहा है। यदि हमारे आयातों में वृद्धि कम और निर्यातों में वृद्धि अधिक होती तो हम मान सकते
थे कि वह विदेश व्यापार हमारे लिए लाभप्रद है, लेकिन ऐसा स्पष्ट रूप से नहीं हुआ है। जहां तक कृषि का सवाल
है, डब्ल्यूटीओ की संधि में लिखा गया था कि दस वर्षों में विकसित देशों के कृषि क्षेत्र को खोलने के लिए अलग
संधि की जाएगी। लेकिन उस संधि को आज तक नहीं किया गया है जिसके कारण हमारे किसानों को विश्व बाजार
का लाभ नहीं मिल रहा है। जहां तक निवेश का सवाल है, यह सही है कि डब्ल्यूटीओ में संधि करने के बाद भारत
को विदेशी निवेश भारी मात्रा में मिला है, लेकिन साथ-साथ हमारी पूंजी का पलायन भी बढ़ा है।
लगभग दस वर्ष पूर्व तक विश्व बैंक ग्लोबल डिवेलपमेंट फाइनांस रपट में आंकड़े देता था कि कितनी पूंजी
विकासशील देशों को आई और कितनी उनके यहां से गई। दस वर्ष पूर्व तक विश्व बैंक के अनुसार विकासशील देशों
से पूंजी का पलायन अधिक और आगमन कम हो रहा था। वर्तमान समय में इसमें और वृद्धि ही हुई है। प्रमाण
यह है कि हमारे रुपए का मूल्य गिर रहा है। जब हमारी पूंजी बाहर जाती है तो डालर की मांग बढ़ती है, तदनुसार
डालर का मूल्य भी बढ़ता है और रुपए का घटता है। जहां तक तकनीकों का सवाल है, यह बात सही है कि वैश्विक
निवेशकों को भारत में आधुनिक तकनीकों के आधार पर मैन्युफैक्चरिंग करने में सहूलियत हुई है, लेकिन इन
तकनीकों के आने से घरेलू तकनीकों के सृजन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। और 1995 में डब्ल्यूटीओ की संधि
के पूर्व जो हम दूसरी तकनीकों की नकल करके अपने यहां उत्पादन कर रहे थे, वह प्रक्रिया अब बंद हो गई है।
स्पष्ट कर दूं कि 1995 के पहले अपने पेटेंट कानून में व्यवस्था थी कि विश्व बाजार में उपलब्ध किसी भी माल
का भारत के उद्यमी नकल कर सकते हैं बशर्ते वे उत्पादन में वह प्रक्रिया न अपनाएं जिससे कि दूसरे देशों ने उसी
माल को बनाया हो। जैसे किसी विदेशी पेटेंट धारक ने अमुक दवा बनाई। 1995 के पहले हमारे उद्यमी उस दवा
का कानूनन उत्पादन कर सकते थे, यदि बनाने में वह प्रक्रिया न अपनाई गई हो जो पेटेंट धारक ने अपनाई है।
इस प्रकार की वैकल्पिक प्रक्रियाओं को अपनाकर भारत दवाओं की आपूर्ति में सर्वोच्च स्थान पर पहुंचा था। यदि
हम समग्र आकलन करें तो पाते हैं कि बाजार में हमारे निर्यात तो बढ़े, साथ ही हमारे आयात भी बढ़े। कृषि में
हमारे निर्यात नहीं बढ़े। निवेश आया कम और गया ज्यादा।
तकनीकों में भी विस्तार हुआ, लेकिन नकल करके जिन तकनीकों को हम हासिल कर सकते थे, वे भी नहीं आईं।
डब्ल्यूटीओ के अंतिम परिणाम को सफल नहीं कहा जा सकता है। वर्तमान समय में खुले विश्व व्यापार यानी
डब्ल्यूटीओ से तमाम देश पीछे हट रहे हैं। इंगलैंड ने यूरोपीय यूनियन से बाहर आने का निर्णय लिया है। चीन और
अमरीका ने आपस में द्विपक्षीय समझौता इसी वर्ष जनवरी में किया है। यदि खुला व्यापार उपयुक्त था तो इन्हें
द्विपक्षीय समझौता करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। अमरीका ने डब्ल्यूटीओ की मृत्यु को सुनिश्चित किया है।
डब्ल्यूटीओ में एक अपीलीय प्राधिकरण होता है जिसमें कि विवादों का निपटारा होता है। अमरीका ने प्राधिकरण में
नए जजों को नियुक्त करने से इंकार कर दिया है। फलस्वरूप आज यदि डब्ल्यूटीओ के अंतर्गत देशों में विवाद होता
है तो उस विवाद का निपटारा संभव नहीं है। जैसे यदि भारत वर्तमान में चीन से आने वाले आयातों पर रोक लगाए
और चीन इसका डब्ल्यूटीओ में विवाद खड़ा करे तो उस विवाद का निपटारा हो ही नहीं सकता है। अतः भारत चीन
के आयातों पर ऊंचे आयात करों को लगाने को स्वछंद है। इन ‘गैर कानूनी’ करों को लगाने पर कोई दंड नहीं दिया
जा सकता है। मेरे आकलन में डब्ल्यूटीओ को छोड़ने से हमें ये लाभ होंगे। पहला यह कि हम अपने छोटे उद्योगों
को सस्ते आयातों से संरक्षण दे सकेंगे।
ज्ञात हो कि चीन से आने वाले माल के सस्ते होने का एक कारण यह है कि चीन में पर्यावरण को नष्ट करने की
तुलना में सुविधा उपलब्ध है। फलस्वरूप उद्यमियों को पर्यावरण संरक्षण पर पोल्यूशन ट्रीटमेंट प्लांट आदि कम
स्थापित करने पड़ते हैं। उनके माल की उत्पादन लागत कम आती है। यदि मेक इन इंडिया को बढ़ाना है तो
डब्ल्यूटीओ छोड़ने से यह कार्य संभव हो सकता है क्योंकि तब हम आयातों पर भारी आयात कर लगा सकते हैं।
डब्ल्यूटीओ को छोड़ने से हम अपने पुराने पेटेंट कानून को लागू कर सकते हैं, जिसके अंतर्गत हम दूसरे देशों द्वारा
आविष्कार की गई तकनीकों की नकल कर सकते हैं। जैसे यदि अमरीका की मान्सेंटो कंपनी ने बीटी काटन की
विशेष प्रजाति का आविष्कार किया, तो हम उसको बनाने की प्रक्रिया में थोड़ा सा अंतर कर उसी प्रजाति के बीज
को बनाकर भारत में बेच सकते हैं। तीसरा पक्ष यह कि आने वाले समय में विश्व में भौतिक माल, जिन्हें
मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में बनाया जाता है, के व्यापार में वृद्धि कम होगी और सेवा क्षेत्र जैसे मेडिकल ट्रांसक्रिप्शन,
अनुवाद, संगीत, सिनेमा इत्यादि के व्यापार में वृद्धि होगी। ये सेवा क्षेत्र वर्तमान में डब्ल्यूटीओ के दायरे से बाहर
हैं। इसलिए डब्ल्यूटीओ को छोड़ने से हमारे इन निर्यातों पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ेगा। डब्ल्यूटीओ का
सकारात्मक प्रभाव पड़ने की संभावना कम होने के कारण हमें उस डब्ल्यूटीओ को तत्काल छोड़ देना चाहिए जिसे
अमरीका मृत्यु के घाट तक पहुंचा चुका है।