ज्ञान किसको मिलता है ? उसे जो श्रद्धाभाव से शरणागत हो और अपना आप समर्पित करके गुरु के समक्ष कहे कि मुझे ज्ञान दें, तभी तत्व-दर्शन होता है।जब गुरु तुम्हें ज्ञान देना समाप्त करे मानो पूर्णाहुति करे तो शिष्य होने के नाते गुरु चरणों में भेंट समर्पित करें।भेंट क्या हो ? जो वस्तु तुम्हें सबसे प्रिय हो वही भेंट करो।
राजा जनक अष्टावक्र जी के पास ज्ञान लेने आए तो राजा जनक ने मर्यादानुसार फूलमाला गुरु चरणों में अर्पित करके पूजन किया, आरती उतारी।फिर बोले कि मैं आपको क्या भेंट दूं ? तब अष्टावक्र जी बोले, भेंट अपनी इच्छा अनुसार दी जाती है।यह सुनकर राजा बोले कि प्रभु मैंने अपना तन, मन, धन सब आपको दिया।
गुरु बोले कि मुझे स्वीकार है। फिर सत्संग शुरू हुआ।जब समाप्ति हुई राजा प्रणाम करके चल दिए तो तब अष्टावक्र बोले कि राजन कहां चले ? तो राजा बोले कि अपने घर।गुरु ने कहा कि इतनी जल्दी बदल गए, अभी तो तुमने सब कुछ मुझे अर्पित कर दिया था।
फिर अब मेरी इजाजत के बगैर कैसे जाओगे? राजा को अहसास हो गया कि हां महल तो मेरा नहीं।फिर अष्टावक्र जी बोले कि राजा तुमने अभी और भी बेईमानी की है, तुमने मुझे मन भी दिया था, फिर तुम्हारे अंदर यह संकल्प कैसे उठा कि तुम यहां से जाओ? बात पैसे की नहीं और न महलों की है।
जब तुमने कहा कि मन आपको दिया तो दिया। इस मन में आज के बाद संकल्प वही उठता जो मैं कहता, मेरी इच्छा के बिना कोई विचार तुम्हारे मन में न उठे।मर्यादा यह कहती है कि जिस व्यासासन पर विराजमान गुरु से सत्संग सुनो तो उस सत्संग की पूर्णाहुति होने पर यथाशक्ति अपना भाव, अपनी श्रद्धा के फूल गुरु चरणों में भेंट करने चाहिएं।