जानिए क्यों मनाते हैं मुहर्रम, क्या है इसका इतिहास…

asiakhabar.com | August 26, 2020 | 4:57 pm IST

विकास गुप्ता

इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले लोगों का मुहर्रम एक प्रमुख महीना है। इस माह की उनके लिए बहुत विशेषता
और महत्ता है। इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार मुहर्रम हिजरी संवत् का प्रथम मास है। पैगंबर मुहम्मद साहब के
नवासे इमाम हुसैन एवं उनके साथियों की शहादत इस माह में हुई थी। मुहर्रम सब्र का, इबादत का महीना है। इसी
माह में आदरणीय पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब, मुस्तफा सल्लाहों अलैह व आलही वसल्लम ने पवित्र मक्का से
पवित्र नगर मदीना में हिजरत की थी यानी कि आप सल्ल. मक्का से मदीना मुनव्वरा तशरीफ लाए।
मुहर्रम में क्या करते हैं?
मुहर्रम में कई लोग रोजे रखते हैं। पैगंबर मुहम्मद सा. के नाती की शहादत तथा करबला के शहीदों के बलिदानों
को याद किया जाता है। कर्बला के शहीदों ने इस्लाम धर्म को नया जीवन प्रदान किया था। कई लोग इस माह में
पहले 10 दिनों के रोजे रखते हैं। जो लोग 10 दिनों के रोजे नहीं रख पाते, वे 9 और 10 तारीख के रोजे रखते
हैं। इस दिन जगह-जगह पानी के प्याऊ और शरबत की छबील लगाई जाती है। इस दिन पूरे देश में लोगों की
अटूट आस्था का भरपूर समागम देखने को मिलता है।
मुहर्रम का इतिहास
कर्बला यानी आज का इराक, जहां सन् 60 हिजरी को यजीद इस्लाम धर्म का खलीफा बन बैठा। वह अपने वर्चस्व
को पूरे अरब में फैलाना चाहता था जिसके लिए उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी पैगम्बर मुहम्मद के खानदान
के इकलौते चिराग इमाम हुसैन, जो किसी भी हालत में यजीद के सामने झुकने को तैयार नहीं थे। इस वजह से
सन् 61 हिजरी से यजीद के अत्याचार बढ़ने लगे। ऐसे में वहां के बादशाह इमाम हुसैन अपने परिवार और साथियों
के साथ मदीना से इराक के शहर कुफा जाने लगे लेकिन रास्ते में यजीद की फौज ने कर्बला के रेगिस्तान पर
इमाम हुसैन के काफिले को रोक दिया।
वह 2 मुहर्रम का दिन था, जब हुसैन का काफिला कर्बला के तपते रेगिस्तान पर रुका। वहां पानी का एकमात्र स्रोत
फरात नदी थी, जिस पर यजीद की फौज ने 6 मुहर्रम से हुसैन के काफिले पर पानी के लिए रोक लगा दी थी।
बावजूद इसके, इमाम हुसैन नहीं झुके। यजीद के प्रतिनिधियों की इमाम हुसैन को झुकाने की हर कोशिश नाकाम
होती रही और आखिर में युद्ध का ऐलान हो गया। इतिहास कहता है कि यजीद की 80,000 की फौज के सामने
हुसैन के 72 बहादुरों ने जिस तरह जंग की, उसकी मिसाल खुद दुश्मन फौज के सिपाही एक-दूसरे को देने लगे।
लेकिन हुसैन कहां जंग जीतने आए थे, वे तो अपने आपको अल्लाह की राह में कुर्बान करने आए थे।
उन्होंने अपने नाना और पिता के सिखाए हुए सदाचार, उच्च विचार, अध्यात्म और अल्लाह से बेपनाह मुहब्बत में
प्यास, दर्द, भूख और पीड़ा सब पर विजय प्राप्त कर ली। 10वें मुहर्रम के दिन तक हुसैन अपने भाइयों और अपने
साथियों के शवों को दफनाते रहे और आखिर में खुद अकेले युद्ध किया फिर भी दुश्मन उन्हें मार नहीं सका।
आखिर में अस्र की नमाज के वक्त जब इमाम हुसैन खुदा का सजदा कर रहे थे, तब एक यजीदी को लगा कि
शायद यही सही मौका है हुसैन को मारने का। फिर, उसने धोखे से हुसैन को शहीद कर दिया। लेकिन इमाम हुसैन

तो मरकर भी जिंदा रहे और हमेशा के लिए अमर हो गए, पर यजीद तो जीतकर भी हार गया। उसके बाद अरब में
क्रांति आई, हर रूह कांप उठी और हर आंखों से आंसू निकल आए और इस्लाम गालिब हुआ।
मुहर्रम में भी रखा जाता है रोजा
इस्लाम में पवित्र माने जाने वाले महीने रमजान की तरह ही इसमें भी रोजे रखे जाते हैं लेकिन ये रोजे अनिवार्य
नहीं होते हैं। मुहर्रम के दौरान जंग में दी गई शहादत को याद किया जाता है और कुछ जगह ताजिये बनाकर
इमाम हुसैन के प्रति सम्मान प्रकट किया जाता है।
यह है ताजिया निकालने का महत्व
ताजिया लकड़ी और कपड़ों से गुंबदनुमा बनाया जाता है और इसमें इमाम हुसैन की कब्र का नकल बनाया जाता है।
ताजिया को झांकी की तरह सजाते हैं और एक शहीद की अर्थी की तरह इसका सम्मान करते हुए उसे कर्बला में
दफन करते हैं।
कब निकाले जाते हैं ताजिया?
इस साल मुहर्रम के महीने में ताजिए 10 सितंबर को निकाला जा रहा है। यह संयोग की बात है कि मुहर्रम महीने
की दसवीं तारीख को ताजिया निकाला जाता है। इस साल 10 तारीख को ही मुहर्रम महीने की 10वीं तारीख भी
है। ताजिया यात्रा के दौरान आवाम को अपने पूर्वजों की कुर्बानी की गाथाएं सुनाई जाती हैं। ताकि अपने पुर्खों पर
फख्र महसूस करने के साथ ही वह धार्मिक महत्व और जीवन मूल्यों को समझ सकें।
मुहर्रम के महीने का महत्व और रिवाज
मुहर्रम को रमजान के समान ही पवित्र महीना माना जाता है। पैगंबर मुहम्मद अपने जीवन में मुहर्रम में एक रोजा
रखते थे आशुरा में। एक बार उन्होंने कहा कि अगर मैं अगले साल तक जीवित रहा तो मुहर्रम में दो रोजे रखूंगा।
लेकिन इससे पहले वह इंतकाल कर गए।। कई लोग पहले और आखिरी दिन रोजा रखते हैं। हजरत मुहम्मद साहब
के अनुसार, मुहर्रम के दौरान रोजे रखने से जाने-अनजाने में हुए बुरे कर्मों के फल का नाश होता है। अल्लाह अपने
बंदे पर करम करते हैं और गुनाहों की माफी मिलती है।
यह संदेश देता है मुहर्रम
इमाम हुसैन ने तानाशाही के आगे सिर झुकाने से इंकार कर दिया था और जब वह कोफा (बगदाद का एक स्थान)
जाने लगे तो दुश्मनों ने उन पर हमला कर दिया। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और न ही बड़ी सेना देखकर
घुटने टेके। बल्कि लड़ते-लड़ते शहीद हुए। मुहर्रम का महीना संदेश देता है कि युद्ध केवल रक्त बहाता है। इसलिए
अमन और चैन से रहना चाहिए। साथ ही बुराई की मुखालफत के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। आपसी प्रेम और
सद्भभाव ही मानवीय जीवन की असल पूंजी है।


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