शिशिर गुप्ता
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए मनोनीत
किया है। संविधान का अनुच्छेद 80 ऐसे फैसलों को वैधता देता है। यह कोई आश्चर्यजनक या अभूतपूर्व मनोनयन
नहीं है। प्रधान न्यायाधीश अथवा न्यायाधीश के राज्यसभा सांसद बनने, राज्यपाल का पद स्वीकार करने या किसी
अन्य संवैधानिक पद पर नियुक्ति लेने वालों की लंबी फेहरिस्त है। यह शुरुआत प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू
के कार्यकाल से ही हो गई थी। तब बॉम्बे हाईकोर्ट के जज एमसी छागला को पहले अमरीका में भारत का राजदूत
नियुक्त किया गया और बाद में ब्रिटेन में उच्चायुक्त बनाकर भेजा गया। इंदिरा गांधी के दौर में जस्टिस
एम.हिदायतुल्ला को तो देश के उपराष्ट्रपति पद से नवाजा गया। यदि मौजूदा निर्णय गलत है, तो ऐसे तमाम
फैसले भी गलत थे। तब भी सर्वोच्च न्यायालय की छवि को ठेस पहुंची होगी, न्यायपालिका के प्रति आम आदमी
का विश्वास डिगा होगा। यदि न्यायालय आज भी अंतिम उम्मीद और इंसाफ के प्रतीक हैं, तो जस्टिस गोगोई के
मनोनयन से क्या फर्क पड़ता है? पहले की गलतियों के प्रायश्चित अब कैसे किए जाएंगे? दरअसल यह निजी
अवधारणा का सवाल है। सिर्फ नैतिकता और मर्यादा के आधार पर यह निर्णय सवालिया लग सकता है। जस्टिस
गोगोई 17 नवंबर, 2019 को प्रधान न्यायाधीश के पद से सेवानिवृत्त हुए और मार्च, 2020 में उन्हें राज्यसभा
के लिए मनोनीत कर दिया गया। एक तथ्य स्पष्ट कर दें कि यह फैसला गैर-राजनीतिक नहीं है। मोदी कैबिनेट ने
ही जस्टिस गोगोई का नाम तय किया, जिसे राष्ट्रपति ने स्वीकृति दी। हां, जस्टिस गोगोई इस प्रस्ताव को ठुकरा
सकते थे। चूंकि उन्होंने संसद के लिए मनोनयन स्वीकार कर लिया है, लिहाजा उन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से
भाजपा को अंगीकार कर लिया है। बेशक सांसद के तौर पर शपथ लेने के बाद वह कुछ भी स्पष्टीकरण दें, वह अब
बेमानी है। वैसे उन्होंने असम में सांकेतिक बयान दिया है कि वक्त के एक मोड़ पर न्यायपालिका और विधायिका
को राष्ट्र-निर्माण के लिए एक साथ काम करना चाहिए। चलो, यह भी रंजन गोगोई का अपना नजरिया हो सकता
है। अब वह जो भी कहेंगे, राजनीतिक वक्तव्य ही होगा। वैसे भी राज्यसभा में नियम है कि कोई भी मनोनीत
सदस्य छह माह के अंतराल में किसी भी राजनीतिक दल का हिस्सा बन सकता है। गौरतलब यह है कि एमसी
सेतलवाड़ की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने अपनी 14वीं रपट में सेवामुक्त न्यायाधीशों की नियुक्तियों पर पाबंदी
लगाने की अनुशंसा की थी। कांग्रेस या भाजपा नेतृत्व की सरकारों ने उस संदर्भ में कानून क्यों नहीं पारित कराए?
एक बार खुद जस्टिस गोगोई ने टिप्पणी की थी कि रिटायरमेंट के बाद जजों की नियुक्तियां ‘प्रजातंत्र पर धब्बा’ हैं।
तो अब क्या हुआ? राज्यसभा में ही नेता प्रतिपक्ष रहते हुए अरुण जेतली ने 2012 में कहा था कि जजों की
रिटायरमेंट के बाद कुछ कूलिंग ऑफ पीरियड तय होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होगा, तो सेवा के आखिरी दौर में
न्यायालय के फैसले प्रभावित हो सकते हैं। प्रधान न्यायाधीश रहे रंगनाथ मिश्र कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर
राज्यसभा में गए, बेशक सेवानिवृत्ति के 7 सालों के बाद यह फैसला लिया, लेकिन प्रधान न्यायाधीश ही रहे
जस्टिस पी.सदासिवम 2014 में रिटायर हुए और केंद्र में मोदी सरकार बनते ही उन्हें केरल का राज्यपाल बना
दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय जज रहे बहरुल इस्लाम और फातिमा बीबी को भी ‘सरकारी सम्मान’ से उपकृत
किया। हम आरोपों के पक्ष में नहीं हैं कि ये सम्मान किस एवज में मिले। जस्टिस गोगोई ने अंतिम दिनों में
अयोध्या पर फैसला देने वाली संविधान पीठ की अध्यक्षता की थी, लेकिन उनके न्यायिक विवेक पर सवाल उठाकर
हम पूरी पीठ को सवालिया नहीं बना सकते। बेशक संवैधानिक नैतिकता की बात कही जा सकती है। प्रधान
न्यायाधीश रहे जस्टिस कपाडि़या और जस्टिस ठाकुर सरीखे न्यायविदों ने जस्टिस गोगोई के इस फैसले की
आलोचना की है। जस्टिस गोगोई के समकालीन रहे जस्टिस लोकुर और जस्टिस कूरियन जोसेफ ने सवाल किया है
कि क्या न्याय का अंतिम गढ़ भी ढह गया?’ इस पराकाष्ठा तक कैसे पहुंचा जा सकता है! हम समझ नहीं पा रहे
हैं कि एक जस्टिस के राज्यसभा सांसद बनने से ही न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर असर कैसे पड़ सकता है?
बहरहाल जस्टिस गोगोई का मनोनयन हो गया है। अब आगे देखना चाहिए कि वह क्या कहते हैं।