विकास गुप्ता
दुनिया का शायद ही कोई ऐसा देश हो जो कोरोना कोविड 19 के संक्रमण की आशंका से चिंतित न हो, अथवा
सोशल मीडिया या मीडिया हर जगह इसकी चर्चा न हो रही हो। लोगों की चिंता या परेशानी का प्रमुख कारण यही
सामने आ रहा है कि इसके संक्रमण से कैसे निपटा जाए यह बात अभी तक साफ नहीं हो पाई है। सोशल
डिस्टेंसिंग ही इसका प्राथमिक उपचार समझ में आ रहा है पर यक्ष प्रश्न यही है कि सोशल डिस्टेंसिंग कब तक।
कोराना वायरस का एक पूरा पूरा परिवार है। चूंकि इस वायरस का संक्रमण पहली बार 2019 में दिखाई दिया था
इसलिए इसका नाम कोविड 19 दे दिया गया है। कोरोना शब्द मूलतः लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका तातपर्य
होता है राजमुकुट, या मुकुट। इस वायरस की संरचना को जब बहुत बारीकी से देखा गया था तो यह किसी यूरोपीय
राजा के मुकुट की तरह दिखाई दिया था, इसलिए इसका नाम कोरोना दे दिया गया।
चिकित्सकों की मानें तो कोविड 19 को खतरनाक इसलिए भी माना गया है क्योंकि यह अपने असर से संक्रमित
मरीज के फैफडों को बहुत ही तेजी से प्रभावित करता है और खराब तक कर देता है। कोविड 19 मूलतः कोरोना
परिवार का ही सदस्य है और वर्तमान में सबसे ज्यादा संक्रमण इसी वायरस का है, यही कारण है कि कोविड 19
को कोरोना वायरस के नाम से भी जाना पहचाना जा रहा है।
इस बीमारी के लिए टीके या दवा को इजाद करना वैज्ञानिकों के लिए चुनौति भी है। इसके लिए भारी भरकम
संसाधन और धन की आवश्यकता होती है। इस तरह के शोधों में समय भी लगता है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह
है कि इसका प्रयोग सबसे पहले जानवरों पर किया जाता है। जानवरों को दवाएं या टीके लगाए जाने के बाद लंबे
समय तक उनका परीक्षण किया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में बहुत ज्यादा समय लगता है।
मनुष्यों को इस महामारी से बचाने के लिए आवश्यक धन की व्यवस्था तो दुनिया भर के देशों के द्वारा फंडिग कर
की जा सकती है, पर वर्तमान हालात इस बात की इजाजत नहीं दे रहे हैं कि इसके लिए और समय जाया किया
जाए। इसी बीच यह बात भी अंधेरे में प्रकाश की किरण के मानिंद ही मानी जा सकती है कि कोविड 19 के
प्रस्तावित टीकों को अमेरिका के सिएटल शहर में वाशिंगटन हेल्थ रिसर्च इंस्टीट्यूट में कुछ मानवों पर 16 मार्च
को किया जा चुका है।
खबरों पर अगर यकीन किया जाए तो 18 से 55 साल तक के लोगों पर इस टीके के प्रभावों का अध्ययन किया
जा रहा है। यहां एक तथ्य बहुत ही महत्वपूर्ण है कि अमेरिका के द्वारा इस वायरस के संभावित संक्रमण को देखते
हुए पहली बार ही ऐसा किया गया कि इसका परीक्षण जानवरों पर करने के बजाए सीधे मनुष्यों पर किया गया है।
खबरों के अनुसार इस टीके का नाम मैसेंजर राइबोन्यूक्लेसिक एसिड 1273 अर्थात एमआरएनए 1273 दिया गया
है। देश में भी इसको लेकर कवायद की जा रही है। महाराष्ट्र के पुणे में स्थित सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के
द्वारा भी अमेरिका की एक कंपनी के साथ मिलकर इस तरह के टीके पर लगातार ही शोध किया जा रहा है।