जरा याद उन्हें भी कर लो नोटबंदी के बाद स्कूल लौट कर नहीं आये

asiakhabar.com | November 2, 2017 | 4:12 pm IST
View Details

नोटबंदी को एक वर्ष होने वाले हैं। इसकी आलोचना−प्रत्यालोचनाएं हो रही हैं। बल्कि हुईं भी। सरकार का अपना पक्ष और तर्क है वहीं नागर समाज के नीति विमर्शकारों, आर्थिक जगत के पंडि़तों का अपना विश्लेषण है। इस विश्लेषण में समाज, संस्कृति, अर्थ जगत, रिश्तों आदि पर क्या असर हुए इसकी विवेचना मिलेंगी। लेकिन जो विश्लेषण और रिपोर्ट से बाहर रह गईं उनके बारे में कोई जानकारी, सूचना, आंकड़े हमें कहीं दर्ज नहीं मिलेंगे। वह हैं बच्चे। बच्चों की दुनिया, उनकी शिक्षा कैसे प्रभावित हुई इसकी न तो कोई सूचना मिलेगी और न ही कहीं दस्तावेज ही तैयार किये गये हैं। दिल्ली के विभिन्न इलाकों के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की शिक्षा पर क्या असर हुआ शायद इस ओर हमने नहीं सोचा। सोचने की जहमत तब उठाते जब बच्चे हमारी चिंता के घेरे में होते। जो भी हो नोटबंदी के बाद सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों पर इसका गंभीर असर हुआ। बच्चे नवंबर, दिसंबर में घर चले गए। उनमें से कुछ तो जुलाई तक लौट आए और वे अब स्कूल में पढ़ भी रहे हैं। लेकिन अभी भी स्कूलों से नवंबर में पलायन किए बच्चे नहीं लौटे। वे बच्चे कहां हैं यह किसी को भी नहीं मालूम।

नाम न बताने की शर्त पर दिल्ली के कुछ शिक्षकों ने स्वीकार किया कि उनके स्कूल, कक्षा से 200 से 300 बच्चे नवंबर दिसंबर माह में अपने घर चले गए। उनके मां−बाप रोज के देहाड़ी मजदूर थे। धीरे धीरे मालिकों ने उन्हें पैसे देने बंद कर दिए। उनके सामने रोज के खाना खाने की भी मुश्किलें पैदा होने लगीं और वे बच्चों को लेकर अपने अपने गांव लौट गए। उनमें से कई बच्चे इतने प्रतिभाशाली थे कि उनके जाने का दुख हमें आज भी है। हम कई बार सोचते हैं वे बच्चे इन दिनों कहां होंगे? क्या कर रहे हैं। नाम न बताने की शर्त उन शिक्षकों की व्यावसायिक मजबूरी ही माननी होगी क्योंकि यदि वे नाम बताते हैं तो उनके स्कूल निरीक्षक, शिक्षा अधिकारी आदि पता नहीं किस प्रकार की कार्रवाई करें। इसलिए उन्हें अपनी नौकरी भी बचानी थी सो नाम अज्ञात ही रहे इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
शिक्षकों को अपने बच्चों के साथ पूरे दिन स्कूल में गुजारना होता है। इस दरमियान वे तकरीबन अपनी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों की अच्छाई, कमियों, दक्षता आदि से परिचित रहते हैं। जब उनमें से कई बच्चे नोटबंदी के दौरान घर चले गए तब की टीस शिक्षकों की जबानी सुनने को मिली। हालांकि यह भी सच है कि इस मसले पर कहीं कोई खबर, स्टोरी आपको देखने−पढ़ने को न मिली हो और न ही मिलेगी क्योंकि अभी शिक्षा और अभिव्यक्ति के अधिकार पर जिस प्रकार से हमले हो रहे हैं वह किसी की नजरों से ओझल नहीं है। वह चाहे कलबुरगी हों, गौरी लंकेश हों या फिर दाभोलकर आदि इन सभी की आवाज ही खत्म कर दी गई। ऐसे जोखिम भरे माहौल में कोई भी शिक्षक अपनी गर्दन क्यों नपने दे?
वास्तव में स्कूली शिक्षा और शिक्षकों की ओर सरकार की निगाह तब जाती है जब कोई अप्रिय घटना घटती है। वरना तो हजारों हजार पन्नों की रिपोर्ट तक सरकारी की नींद में खलल नहीं डाल पाती। हाल ही में वर्ष 2017−18 की ग्लोबल एजूकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट, जीइएमआर 2017−18 ”शिक्षा में जिम्मेदारी” शीर्षक से प्रकाशित रिपोर्ट वैश्विक स्तर पर बुनियादी, उच्च और उच्चतर स्तर पर शिक्षा के क्षेत्र में कौन सा देश कहां ठहराता है इसकी पड़ताल की गयी है। इस रिपोर्ट के अनुसार अभी भी भारत में प्राथमिक कक्षाओं/स्कूल से सात करोड़ अस्सी लाख से ज्यादा बच्चे बाहर हैं। वे बच्चे या तो ईंट−भट्ठा, कुटीर उद्योगों, दुकानों आदि में काम में लगे हैं या जो बच गए वे अपने पारिवारिक कामों में अभिभावकों की मदद कर रहे हैं। जीइएमआर 2017−18 रिपोर्ट के अनुसार विश्व भर में दस करोड़ से ज्यादा बच्चे आरम्भिक पढ़ना नहीं जानते। इसकी जिम्मेदारी की ओर इशारा करते हुए रिपोर्ट मानती है कि शिक्षा के लक्ष्य को हासिल न कर पाने में अपनी जिम्मेदारी तय न कर पाना मुख्य कारण है। इसलिए रिपोर्ट जिम्मेदारी सुनिश्चित करने पर भी जोर देती है। रिपोर्ट के अनुसार सरकार, नागर समाज और संस्थानों को शिक्षा के लक्ष्य हासिल करने में अपनी जिम्मेदारी तय करनी होगी। वरना 2030 तक भी हम प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएंगे।
जीइएमआर रिपोर्ट 2017−18 मानती है कि विश्व भर के तमाम शिक्षक संगठनों ने कई सारे प्रदर्शन विभिन्न मसलों को लेकर किए हैं। लेकिन जब शिक्षा की गुणवत्ता का सवाल है तो शिक्षक संगठन इस मुद्दे पर चुप्प हैं। रिपोर्ट का मानना है कि साठ फीसदी शिक्षक−संगठनों ने शिक्षा−शिक्षण सामग्रियों के विकास और निर्माण में किसी भी प्रकार की मदद व संपर्क नहीं किया। बचे चालीस प्रतिशत शिक्षक−संगठनों ने किस स्तर और कितनी शिद्दत से शिक्षा−शिक्षण के मुद्दे को जिम्मेदारीपूर्वक उठाया होगा, यह कहना मुश्किल है। जबकि शिक्षा और शैक्षिक माहौल को पठन−पाठन के अनुकूल बनाने में सरकार के साथ ही शिक्षक संगठनों की भी अहम भूमिका है। इस रिपोर्ट के अनुसार 2010 के बाद छह में से एक देश ने अपनी वार्षिक शिक्षा जांच रिपोर्ट प्रकाशित की है। बाकी देशों ने तो इसकी जरूरत तक महसूस नहीं की। जबकि मोनिटरिंग रिपोर्ट से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अभी हमें किस प्रकार की शिक्षा−नीति, बजट और प्रबंधन की आवश्यकता है।
विश्व भर में 26.4 करोड़ बच्चे किसी भी स्कूल में नहीं हैं। वे बच्चे कहीं तो हैं किन्तु स्कूलों में शिक्षा हासिल नहीं कर रहे हैं। यदि यह स्थिति है तो इसमें जिम्मेदार कौन है। यह किसकी जिम्मेदारी बनती है कि वो वैसे बच्चों की सूची बनाए और उन्हें स्कूलों में दुबारा लेकर आए? क्या सरकार करेगी? एनजीओ के जिम्मे यह काम सौंपें? क्या नागरिक समाज इसकी जिम्मदारी लेगा ? कौन वह गर्दन होगी जिसे पकड़ सकते हैं। यहां अमूमन सरकार की गर्दन सबसे आसानी से पकड़ी जाती है क्योंकि सरकार कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक पूरी व्यवस्था है। एक तंत्र है जिसमें हर कोई जिम्मेदार है। यदि कोई योजना विफल होती है तो वह एक व्यक्ति ही विफलता न होकर पूरा सरकारी तंत्र इसके लिए जिम्मेदार है। यदि भारत में सात करोड़ से भी अधिक बच्चे स्कूलों से बाहर हैं तो इसमें सरकार दोषी है किन्तु नागर समाज भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता। ऐसी स्थिति में आरटीई एक्ट का क्या हुआ जिसमें स्कूल प्रबंधन समिति के कार्य दर्ज हैं। यदि कोई बच्चा स्कूल नहीं आता तो इसमें एसएमसी अपनी भूमिका निभा सकती है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यही है कि हम आरोप प्रत्यारोपों में बच्चों के भविष्य के साथ खतरनाक खेल खेल रहे हैं।
ग्लोबल एजूकेशन मोनिटरिंग रिपोर्ट 2017−18 का मानना है कि यदि हम सतत् विकास लक्ष्य एसडीजी के लक्ष्य 4 यानी सभी के लिए समावेशी, समतामूलक, समान और बेहतर गुणवत्ता वाली शिक्षा मुहैया कराना चाहते हैं तो हमें जिम्मेदारी तय करनी होगी। यदि बच्चा स्कूल नहीं जाता, यदि बच्चा बीच में स्कूल छोड़ जाता है व बच्चे को पढ़ना−लिखना जैसे बुनियादी कौशल हासिल नहीं हो पा रहे हैं तो इसमें जिम्मेदारी शिक्षक, प्रधानाचार्य, अभिभावकों के साथ ही शिक्षा अधिकारियों की होनी चाहिए। हालांकि शिक्षक समुदाय के पास एक बना बनाया और स्थापित कारण यह होता है कि उनके गैर शैक्षिक काम कराए जाते हैं। उन्हें कक्षा में पढ़ाने का समय नहीं मिल पाता। जायज वजहें हैं किन्तु क्या इस बाबत कोई जनहित याचिका कोर्ट में दर्ज की गई? वास्तव में हम अपनी जिम्मेदारियों से बचने के आदि हो चुके हैं। समस्या का हल निकालने में समय खर्च करने की बजाए समस्याओं को टालने और किसी और के सिर मढ़ने में ज्यादा समय जाया करते हैं। यही कारण है कि सबके लिए शिक्षा के 1990 में तय लक्ष्य को हमने 2030 तक पा सकने के लिए खिसका दिया।
यदि हमारे बच्चे किन्हीं भी कारणों से स्कूल एवं स्कूली शिक्षा से महरूम होते हैं तो उसमें हानि राष्ट्र की ही होती है। बच्चे नीति बदलने, सरकार बदलने व नई योजना के इंतजार में खड़े नहीं रह सकते। उन्हें तो उनकी उम्र के अनुसार उसी उम्र में शिक्षा मिल जानी चाहिए। वरना वही युवा होने पर शिक्षा से बेखबर अन्य किस्म की मजदूरी में लग जाने पर विवश होते हैं। वे वही युवा हैं जिन्होंने या तो पढ़ाई नहीं की या फिर पढ़ाई किसी कोर्स की और नौकरी किसी और क्षेत्र में कर रहे हैं। यह अंतर हमेशा ही उनके जीवन में संघर्ष पैदा करता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *