अनन्त शास्त्र है, विद्याएं भी बहुत हैं और हमारी आयु इतनी स्वल्प है कि रोग-शोकादि, विघ्न-बाधाओं से भरी इस
छोटी अवधि में उनका पार पाना कठिन ही नहीं, असम्भव भी है, अतः बुध्दिमता इसी में है कि इन शास्त्रों की
सारभूत बातों को ग्राहण करके आत्मोध्दार कर लिया जाए।
वेदोपनिषदों का सार:- शास्त्रों की इसी अनन्ता और मानव-जीवन की क्षणभंगुरता को ध्यान में रखकर धर्म
संस्थापनार्थ अवतार ग्रहण करने वाले साक्षात् ब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण ने मानवों के कल्याण के लिये उन समस्त
ज्ञान-विज्ञान विषयक विधिक शास्त्रों के साररूप गीता-ग्रंथ को हमारे लिये उपलब्ध करवा दिया।
श्रीमद्भगवद् गीता समस्त वेदोपनिषदों का सार-रूप है। इसकी अनन्त महिमा है। यह वह ब्रह्मविद्या है जिसे जान
लेने के बाद मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से सर्वथा मुक्त हो जाता है। यह भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग से
समन्वित एक समग्र योगशास्त्र है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अत्यन्त प्रगाढ़ और प्रभावपूर्ण ढंग से योग के विविध
रूपों के द्वारा प्राप्त होने वाली मानव-पुरुषार्थ की विभिन्न उपलब्धियों का, जीवन के लक्ष्य का, धर्म के निगूढ़
तत्वों का, भक्ति-ज्ञान और कर्म के मार्ग का बड़ी ही सरल शब्दावली में रहस्योद्धाटन किया है।
भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं इस गीताशास्त्र की प्रशंसा में कहा है कि
अध्येच्यते चय इमं धम्र्य संवादभावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।
श्रध्दाज्ञवाननसूयश्च शणुयादापि यो नरः।
सो पिमुक्तः शुमांल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥
अर्थात् जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों (श्रीकृष्ण और अर्जुन) के संवादरूप इस गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा
भी मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊंगा। जो मनुष्य श्रध्दायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी
करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालों के समान श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त करेगा और जन्म-मरण
के चक्र से मुक्त हो जायेगा। हमारा मन आंतरिक संग्राम के लिये महाभारत का कुरुक्षेत्र है जहां हर क्षण संग्राम
जारी रहता है, अतः हम सबको ज्योति, ज्ञान तथा सन्मति प्राप्त करनी चाहिये जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में
अर्जुन को दिया है।
जीवन के मुख्य तत्वों का वर्णन करते हुए परमात्मा श्रीकृष्ण ने सम्पूर्ण जगत् की समस्याओं का वर्णन किया है,
जो सार्वभौमिक है। अर्जुन के निमित्त से भगवान श्रीकृष्ण ने सारी मानव जाति के लिये भगवद्गीता प्रदान की है।
श्रीकृष्ण नित्य तत्व के प्रतीक हैं और अर्जुन ससीम मनुष्य का। गीता का उपदेश किसी व्यक्ति विशेष, सम्प्रदाय के
लिये नहीं वरन् सभी मनुष्यों के लिये है।
गीता कहती है कि योगी वही है जिसने विचारों का संन्यास धारण कर लिया है। आत्मा पर ध्यान द्वारा इस योग
की प्राप्ति होती है। इसको प्राप्त कर लेने पर मनुष्य के लिये अन्य लाभ नहीं रह जाता। इसमें स्थित होकर मनुष्य
गुरुत्तम आपत्तियों में भी विचलित नहीं होता। वही योग है, जो सारे दुःखों को विनष्ट करता है। उसी का अभ्यास
करने पर गीता बल डालती है क्योंकि अभ्यास तथा वैराग्य द्वारा मनुष्य योग में स्थित हो जाता है। यदि इस
जीवन में लक्ष्य प्राप्ति न हुई हो तो वह दूसरा अनुकूल जन्म लेकर अभ्यास जारी रखता है। पिछले संस्कार उसका
मार्गदर्शन करते हैं। वह ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।
गीताशास्त्र शास्त्रों का भी शास्त्र है। भगवान की स्पष्ट आज्ञा है कि कर्तव्याकर्तव्य-विवेक के लिये शास्त्र ही परम
प्रमाण है। तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यवस्थितौ। इसका तात्पर्य यह है कि सभी लोग अपने वर्ण एवं आश्रम-
मर्यादा में स्थिर रहें, मनमाना आचरण करने का किसी को अधिकार नहीं है। जो लोग शास्त्र की आज्ञा को टालकर
या त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करते हैं। वे न तो सिध्दि को ही प्राप्त करते हैं और न ही परमगति
और सुख को ही।
यः शास्त्र विधि मुत्स ज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिध्दिभवान्नोति न सुख न परां गतिम्॥
(गीता- 16/23)
गीता के उपदेश:- गीता शास्त्र की आज्ञा है कि काम क्रोध, लोभ और मोह आदि का सर्वथा त्याग करते हुए सर्वत्र
सभी प्राणियों में भगवद् बुध्दि करते हुए वासुदेव सर्वम् ऐसा भाव रखते हुए अपने कर्तव्य-पथ में आगे बढ़ते हुए
सभी कर्म को भगवान को समर्पित करके उन्हीं के शरणागत हो जाने पर ही वह दैवी सम्पत्तिवान हो सकता है।
गीता कहती है कि परमात्मा मनुष्य को पाप-पुण्य प्रदान नहीं करता। प्रकृति ही ऐसा करती है। ज्ञान-अज्ञान से
आवत होता है। यही कारण है कि सारे जीव भ्रमित होते रहते हैं। ब्रह्म उन्हीं के लिये प्रकट होता हैं। ब्रह्म उन्हीं के
लिये प्रकट होता है जिन्होंने आत्मज्ञान द्वारा अज्ञान को हटा दिया है। वहीं इस भव के जन्म और मृत्यु रूपी चक्र
पर विजय पाते हैं।
यह संसार उस वृक्ष के समान है जिसका मूल ऊपर है तथा शाखाएं नीचे फैली हैं। असंग शास्त्र द्वारा इस वक्ष का
मूलोच्छेद करने की प्रक्रिया मात्र गीता में ही बतायी गयी है। गीता कहती है कि जगत की हर वस्तु ब्रह्म की ही
छाया है। वह सभी वस्तुओं का अतिक्रमण करता है। वह जीव तथा माया से परे होता है क्योंकि वह पुरुषोत्तम है
जिसका वर्णन सभी वेदों में किया गया है। जो उसे जान गया, उसने सारे कर्तव्य कर लिये, वही ज्ञानी है तथा वही
परमात्मा की कृपा पाने का भी अधिकारी होता है।
गीता का उपदेश है- करुणा को अपनाओ, असत्य का आश्रय न लो, सत्य-पथ को अपनाओं, पवित्रता से रहो, आहार-
विहार को शुध्द करो, सभी प्राणियों की सेवा करो, किसी भी प्राणी के साथ मन, वाणी और शरीर से किसी भी
प्रकार का वैर न रखो, सबके साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करो, द्वेषभाव को त्यागकर सबको कल्याण में रमे रहो, माता-
पिता गुरुजनों की सेवा करो और काम, द्वेषभाव को त्यागकर सबके कल्याण में रमे रहो, माता-पिता गुरुजनों की
सेवा करो और काम क्रोध, लोभ तथा मोह को पास मत फटकने दो। भगवान का स्मरण करते रहो तथा यह मत
भूलो कि संसार नश्वर है और नित्य परिवर्तनशील है। एकमात्र भगवान ही हमारे सच्चे सुहृद है, अतः सर्वभाव से
उन्हीं की शरण ग्रहण करना परम कर्तव्य है।
तमेव शरणं गच्छ, सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शांति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥