-कुमार कृष्णन-
जल, जंगल और जमीन की स्वाधीनता और स्वायत्तता के सफल आंदोलनों का लंबा इतिहास रहा है। 300 बरसों में जंगल-जमीन के लिये तिलका मांझी, बिरसा मुंडा, रानी सुबरन कुंवर, तांत्या भील और बृजवासी पाउना जैसे अनेकों नेतृत्वकर्ताओं और उनके नेतृत्व में हुये सफल आंदोलनों और सत्याग्रहों का लंबा इतिहास रहा है। यहा वर्ष गट्टा सिल्ली जंगल सत्याग्रह का शताब्दी बर्ष है। छत्तीसगढ़ के नगरी-सिहावा (धमतरी) के ऐतिहासिक गट्टासिल्ली गांव में महात्मा गाँधी की प्रेरणा से जंगल-जमीन और उन पर निर्भर आदिवासी तथा वन निवासी समाज के अधिकारों के लिए हुए अनेक ऐतिहासिक आंदोलनों में जंगल सत्याग्रह का अपना विशेष महत्व है।नगरी-सिहावा के आदिवासियों का जीवन जंगल पर निर्भर है। उनकी जरूरतें जंगल से पूरी होती रही है। ब्रिटिश सरकार ने वनोत्पादनों को सरकारी घोषित कर दिया। आदिवासियों के परंपरागत अधिकार समाप्त कर दिए गए। लकड़ी लेने पर जुर्माना लगता था।
जनवरी 1922 को छत्तीसगढ़ के सिहावा-नगरी क्षेत्र में भारत का प्रथम जंगल सत्याग्रह प्रारंभ हुआ जिसका उद्द्येश्य आदिवासी समाज और स्थानीय वन निवासियों के अधिकारों को स्थापित करना था। छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचल में जंगल सत्याग्रह की शुरुआत-तत्कालीन ब्रिटानिया हुकूमत द्वारा लागू आदिवासी विरोधी वन कानून-जैसे वनोपजों पर टैक्स तथा बेगारी अथवा अल्प मजदूरी में कार्य करने के लिये विवश किये जाने के विरोध में हुआ था।आंदोलनकारियों ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया कि जंगल से जलावन की लकड़ी काटकर ब्रिटिश सरकार का जंगल कानून तोड़ा जाए और गिरफ्तारी दी जाए। सत्याग्रह के तीसरे दिन अंग्रेज अधिकारी व हथियारों लैस पुलिस के दर्जनों सिपाही नगरी पहुंच गए। 33 सत्याग्रहियों को गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में यह जंगल सत्याग्रह गट्टा सिल्ली (धमतरी), मोहबना पोड़ी (दुर्ग), सीपत (बिलासपुर), रुद्री नवागांव (धमतरी), तमोरा (महासमुंद), लभरा (महासमुंद), बांधाखार (कोरबा), सारंगगढ़ (रायगढ़), छुईखदान (राजनाँदगाँव), बदराटोला (राजनाँदगाँव) आदि क्षेत्रों में तेजी से फैला और हजारों सत्याग्रहियों नें मिलकर इसे सफल बनाया।
1923 में सिहावा- नगरी, धमतरी में हुए जंगल सत्याग्रह की सफलता तथा वन अधिकार पर सार्थक जन संवाद के लिए एकता परिषद् द्वारा विख्यात गाँधीवादी राजगोपाल सहित स्थानीय ग्रामीण मुखियाओं के नेतृत्व में ‘जंगल सत्याग्रह के सौ बरस’ का आयोजन किया गया है। सौ वर्ष बाद भी स्थिति विपरित है, फर्क यह 1923 में अंग्रेजों के खिलाफ लड़े, आज अपनी ही चुनी हुई सरकारों के खिलाफ यहां के आदिवासियों को खड़ा होना पड़ रहा है। सत्याग्रह वर्ष पर आदिवासियों ने आदिवासियों ने वन भूमि पर अपने आजा- पुरखो के समय से चले आ रहें अधिकारों को मांग के लिए हुंकार भरी। सत्याग्रह में पूर्व केन्द्रीय मंत्री अरविंद नेताम, पूर्व केन्द्रीय मंत्री भक्तचरण दास, अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के मनीष कुंजाम, एकता परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष रनसिंह परमार, किसान आंदोलन के सुदेश पैंकरा, आसाम के आदिवासी सांसद नब्बासरण्या, सरगुजा के आदिवासी नेता गंगाराम पैंकरा, राष्ट्रीय संयोजक अनिष कुमार, वरिष्ठ कार्यकर्त्ता अनिल भाई, हरियाणा के राकेश तंवर सहित देश भर के गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता और जंगल सत्याग्रह के सत्याग्रही परिवार के वंशज भी भाग ले रहे हैं। सत्याग्रह स्तंभ पर पुष्पांजलि देने के बाद पदयात्रा प्रारंभ हो गयी। एकता परिषद के द्वारा आयोजित इस सत्याग्रह में उड़ीसा से आए पूर्व केंद्रीय मंत्री भक्तचरण दास ने कहा की यू पी ए सरकार के द्वारा लाए गए वन अधिकार कानून की मंशा आदिवासियों को उनके वन अधिकार देना रहा। जंगल को बचाने के लिए जंगल का अधिकार आदिवासियों को देना होगा।
अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के मनीष कुंजाम ने कहा कि सरकार को अभियान चलाकर आदिवासियों को वन का अधिकार सौंप देना चाहिए। जंगल सत्याग्रह इतिहास के लेखक आशीष ठाकुर ने कहा कि पहले जंगल काटकर सत्याग्रह सौ साल पहले शुरू हुआ था, अब जंगल बचाकर सत्याग्रह करना होगा। सरगुजा के सामाजिक कार्यकर्ता गंगाराम पैंकरा ने कहा कि बहुत सारे जगहों पर आदिवासियों को वन अधिकार मिला है, उसे और भी सक्रियता के साथ बाकी बचे हुए दावेदारों को देने की जरूरत है।
कवर्धा के बैगा आदिवासी नेता शिकारी बैगा ने कहा कि सरकार हमारी जमीन की समस्या हल करें। बृज पटनायक ने कहा कि आज भी देश में कई जगह है जहां पर सरकार अपने काम के लिए समुदाय से जमीन लेती है। जंगल क्षेत्र की जमीनों का अधिकार उसके वास्तविक अधिकारी आदिवासियों को सौंपना चाहिए।
प्रशांत कुमार पी.व्ही एवं मुरली दास संत, राज्य समन्वयक ने बताया कि इस सत्याग्रह में छत्तीसगढ़ के सभी जिलों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी समुदाय के लिए काम करने वाले सामाजिक संगठनों से जुडे लोग भी भाग ले रहे हैं। सत्याग्रह के पूर्व एकता परिषद के संस्थापक एवं वरिष्ठ गांधी विचारक राजगोपाल पी व्ही ने आज कई गांवों का भ्रमण कर आदिवासियों की वन भूमि समस्याओं को जाना और पीड़ितों अपना आंदोलन जारी रखने के लिए प्रेरित किया। राजनांदगांव के आदिवासी कार्यकर्ता मोहम्मद खान ने कहा कि जंगल आदिवासियों की हैं जिस पर अग्रेजों के द्वारा बनाए गए वनविभाग ने बेजा कब्जा कर रखा हैं उससे तुरंत वनविभाग खाली करें। जंगल सत्याग्रह के समर्थन में आए आसाम के आदिवासी सांसद नव कुमार सरनया ने भाजपा और कांग्रेस की नीतियों को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि ये आदिवासी हितों के लिए काम नही कर रहे है इसलिए अब की बार आदिवासी सरकार की बात करने होगी। हरियाणा प्रदेश से आए सामाजिक कार्यकर्ता राकेश तवर ने सत्याग्रह के प्रति अपना समर्थन देते हुए कहा कि देश में यदि जंगल बचाना है तो उसका अधिकार आदिवासियों को मिलना चाहिए। राष्ट्रीय किसान मजदूर महासंघ के जम्मू कश्मीर के प्रदेश अध्यक्ष तनवीर अहमद डार ने कहा कि पर्यावरण सुरक्षा के लिए आदिवासियों को वनाधिकार दिया जाना जरूरी है।काला हांडी से आए हुए जगरनाथ भाई ओडिसा के ने कहा कि बिना जंगल के आदिवासी नहीं रह सकता और बिना आदिवासी के जंगल सुरक्षित नहीं रह सकता।
वरिष्ठ गांधी विचारक राजगोपाल पी व्ही का मानना है कि यह यात्रा आदिवासियों के आंदोलन को याद करने का है। बिरसा मुंडा के आंदोलन को तो सब लोग जान रहे हैं। बैतुल, छिन्दवारा, सिहावा, धमतरी के बारे में लोगों को जानकारी कम है। अलग-अलग जगह का अपना इतिहास है।एक प्रकार आदिवसियों के कुर्वानियों को याद करने के साथ इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि आज आदिवासियों के साथ क्या हो रहा है? आदिवासियों ने जिस जंगल के लिए और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ देश के लिए संघर्ष किया है, आज उनको जीवन जीने के संसाधन प्राकृतिक संसाधन जल, जंगल, जमीन से विस्थपित किया जा रहा है, बाहर निकलने के लिए, पलायन करने के लिए, शहर के झुग्गी झोपड़ियों में रहने को बाध्य हैं। पेसा, वनाधिकर कानून, जो आदिवासियों के हित में बने हैं, उसे लागू करना बहुत जरूरी है। अगर हम यह मानते हैं कि आदोंलन में आदिवासियों की भूमिका रही है, हम इस बात को माने कि आदिबासियों ने देश के लिए वलिदान और कुर्वानी दी है, आजाद भारत में उन्हें जो इज्जत मिलना चाहिए, स्थान-मान मिलना चाहिए, उनको जो जीवन जीने का संसाधन मिलना चाहिए, उसका अभाव एक दुखदायी कहानी बनकर हमारे सामने है। केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकार आदिवासियों के त्याग और वलिदान को याद करते हुए आदिवासियों को न्याय दिलाने की अंतिम प्रक्रिया में भागीदार बनें। इसमें सिर्फ सामजिक संगठनों की अपनी भूमिका है, लेकिन सरकार की बड़ी भूमिका है, कि वे सबसे अंतिम व्यकित को न्याय दिलाएं, जैसे महात्मा गांधी ने कहा कि अंतिम व्यक्ति के बारे में सोचों, सिहावा में बैठे अदिवासियों के जल, जंगल, जमीन के अधिकार और उनकी आजीविका के बारे में सोंचें।