सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी सटीक है कि सारे आंकड़े सार्वजनिक दायरे में रखना उचित होगा, ताकि ऐसी नीतियां बन सकें, जो आम जानकारी पर आधारित हो। मगर बड़ा सवाल यह है कि क्या ऐसी नीतियां बनाना सचमुच बिहार सरकार के एजेंडे में है?बिहार सरकार ने जातीय सर्वेक्षण के आंकड़ों के बारे में सुप्रीम कोर्ट में उलटा तर्क रखा। राज्य सरकार की तरफ से कहा गया कि सर्वे से प्राप्त आंकड़ों पर अभी काम किया जा रहा है। आंकड़ों का विश्लेषण पूरा होने के बाद उन्हें सार्वजनिक कर दिया जाएगा। यह तर्क उलटा इसलिए है क्योंकि विश्लेषण का काम पूरा हुए बिना ही नीतीश कुमार सरकार ने राज्य सरकार की नौकरियों में आरक्षण को बढ़ाकर 75 प्रतिशत कर दिया। जाहिर है, महागठबंधन सरकार का मकसद आरक्षण बढ़ाकर एक खास राजनीति संदेश देना था। इस कदम का आधार तैयार करने के लिए उसने जातीय सर्वेक्षण करवाया था। बहरहाल, अगर राज्य सरकार का मकसद सचमुच जातीय आधार पर पिछड़ेपन को दूर करना होता, तो वह पहले ईमानदारी से सारे आंकड़े सार्वजनिक दायरे में रखती- फिर उनके आधार पर सार्वजनिक बहस आयोजित की जाती। इस तरह पिछड़ापन दूर करने के लिए सूचना और समझ आधारित विकास नीति का निर्माण हो सकता था। संभव है कि इस बहस के दौरान समझ बनती कि आरक्षण में वृद्धि भी एक जरूरी कदम है। लेकिन इसके साथ कई और कदमों पर अमल करने की बात सामने आती, क्योंकि आरक्षण में बढ़ोतरी अपने-आप में पर्याप्त उपाय नहीं है।मगर बिहार की सत्ताधारी पार्टियों का मकसद जातीय भावना उभार कर चुनावी बैतरणी पार करना है। अब चूंकि एक जन हित याचिका के जरिए मुद्दा सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है, तो प्रदेश सरकार को न्यायिक निर्णय का इंतजार करना होगा। इस बीच सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी सटीक है कि सारे आंकड़े सार्वजनिक दायरे में रखना उचित होगा, ताकि राज्य सरकार ऐसी नीतियां बना सके, जो आम जानकारी पर आधारित हो। मगर बड़ा सवाल यह है कि क्या ऐसी नीतियां बनाना सचमुच बिहार सरकार के एजेंडे में है? अगर ऐसी नीतियों पर सचमुच अमल करना हो, तो शिक्षा, स्वास्थ्य, और जन कल्याण से संबंधित उसके मौजूदा कार्यक्रमों में बुनियादी बदलाव करने होंगे। इस दरम्यान कई ऐसे सवाल उठेंगे, जिससे सत्ताधारी दलों के लिए असहज स्थितियां बनेंगी। दरअसल, चूंकि ये दल वैसे सवालों का सामना नहीं करना चाहते, इसलिए ही उन्होंने शॉर्टकट का सहारा लिया है।