भारतीय राजनीति की अनेक विसंगतियों एवं विषमता में एक बड़ी विसंगति यह है कि राजनेताओं सुविधानुसार अपनी ही परिभाषा गढ़ता रहा है। अपने स्वार्थ हेतु, प्रतिष्ठा हेतु, आंकड़ों की ओट में नेतृत्व झूठा श्रेय लेता रहा और भीड़ आरती उतारती रही। भारतीय लोकतंत्र की इस बड़ी विसंगति के कारण मतदाता या आम जनता बार-बार ठगी जाती रही है और उसे गुमराह किया जाता रहा है। यही कारण है कि न तो राजनेता का चरित्र बन सका, न जनता का और न ही राष्ट्र का चरित्र बन सका। भारतीय राजनीति में अनेक राजनेता झूठ-फरेब, धोखाधड़ी का पर्याय बने हैं। इन स्थितियों से लोकतंत्र को निजात दिलानी होगी, अन्यथा वह कमजोर होता रहेगा।
राजनेताओं के तमाम आदर्शवाद के दावे खोखले एवं बेबुनियाद साबित हुए हैं। पहले राजा रानी के पेट से पैदा होता था और अब ”मत पेटी“ से पैदा होता है। सभी अपने घोषणा-पत्रों एवं लुभावने वादों में जनता को जितना ठग सकते हैं, ठगते हैं। जनता को पांच वर्षों में अमीर बना देंगे, हर हाथ को काम मिलेगा, सभी के लिए मकान होंगे, सड़कें, स्कूल-अस्पताल होंगे, बिजली और पानी होगा। जनता मीठे स्वप्न लेती रहती है। कितने ही चुनाव वादे लिये जा चुके हैं पर यह दुनिया का आठवां आश्चर्य है कि कोई भी लक्ष्य अपनी समग्रता के साथ प्राप्त नहीं हुआ। जनता को गुमराह करने का सिलसिला निरन्तर जारी है। एक बार फिर गुमराह करने का बाजार गर्म होने वाला है।
2019 के आम चुनाव से पहले अंतरराष्ट्रीय मार्केट रिसर्च एजेंसी इप्सॉस ने इस संबंध में एक रोचक सर्वेक्षण किया, जिसमें शामिल 56 प्रतिशत भारतीयों ने माना कि राजनेता आमजनता को अपनी बातों से भरमा लेते हैं। इस सर्वेक्षण को भारतीय जनमानस की प्रामाणिक राय भले न माना जाए, पर इसने राजनीति में उभर रहे एक संकट की ओर जरूर संकेत किया है। जाहिर है, अब हर राजनेता अपनी बात लुभावने तरीके से कहना चाहता है। इसमें कुछ लोग जिम्मेदार हैं तो उससे कई गुना ज्यादा गैरजिम्मेदारी है। इससे आम आदमी दुविधा में पड़ जाता है कि वह किसे सही माने और किसे गलत। कई बार वे तथ्यों की जांच नहीं कर पाते और राजनेताओं के झांसे में आ जाते हैं। भारत में अभी इस क्षेत्र में गलाकाट होड़ देखने को मिल रही है। पहले जहां मुद्दों पर सीधी बात होती थी, वहां अब सारा जोर दावे करने और सपने दिखाने पर है। नेतागण अपने तात्कालिक हित साधने के लिए कई ऐसी बातें कर देते हैं, जिनका कोई सिर-पैर नहीं होता। यह दिशाभ्रम भले ही आज उन्हें फायदा पहुंचा रहा हो, लेकिन अंततः इससे लोकतंत्र कमजोर ही होता है।
नेतृत्व की पुरानी परिभाषा थी, ”सबको साथ लेकर चलना, कथनी-करनी की समानता, निर्णय लेने की क्षमता, समस्या का सही समाधान, लोगों का विश्वास, दूरदर्शिता, कल्पनाशीलता और सृजनशीलता।” इन शब्दों को किताबों में डालकर अलमारियों में रख दिया गया है। नेतृत्व का आदर्श न पक्ष में है और न प्रतिपक्ष में। एक युग था जब सम्राट, राजा-महाराजा अपने राज्य और प्रजा की रक्षा अपनी बाजुओं की ताकत से लड़कर करते थे और इस कर्तव्य एवं आदर्श के लिए प्राण तक न्यौछावर कर देते थे। आज नारों और नोटों से लड़ाई लड़ी जा रही है, चुनाव लड़े जा रहे हैं- सत्ता प्राप्ति के लिए। जो जितना लुभावना नारा दे सके, जो जितना धन व्यय कर सके, वही आज जनता को भरमा सकता है।
विश्वसनीयता वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में सबसे बड़ा प्रश्न बनती जा रही है। निरंतर विश्वसनीयता खोते राजनेता आज धूल में मिलती अपनी छवि के लिए स्वयं ही जिम्मेदार हैं। सत्तालोलुपता और धूप-छांव की तरह निरंतर बदलते चरित्र के लिए आखिर और कौन जिम्मेदार हो सकता है? भारतीय राजनीतिज्ञों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह तो हमेशा ही लगते रहे हैं, संभवतः ऐसी परिस्थितियों के लिए आम जनता भी कम जिम्मेदार नहीं है। विकसित देशों में वहां के नागरिकों का सामना भी ऐसी स्थितियों से होता रहा है, लेकिन वे अपने विवेक से फैसला करते हैं कि किस चीज को सही मानकर उपयोग में लाना उनके लिए ठीक रहेगा। लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में, जहां शिक्षा और जागरूकता का स्तर एक-सा नहीं है, लोग खबरों और सूचनाओं के अनेक विकल्पों के बीच दुविधा में पड़ जाते हैं और राजनेताओं के झांसे में आ जाते हैं। वर्षों की राजनीति के बाद भी लगभग सभी राजनेता और राजनीतिक दल अपना एक स्थायी चरित्र, नीति विकसित करने में न केवल असफल रहे बल्कि सत्ता में बने रहने अथवा सत्ता के नजदीक रहने के लिए हमेशा ही बिन पेंदे के लोटे बने रहे।
तथाकथित राजनेता धुआँधार चुनाव प्रचार करते हुए अपने भाषणों में आम जनता को ठगने, लुभाने एवं गुमराह करने की कला का लोहा मनवाते रहे हैं। उन्होंने अपने भाषणों में केवल और केवल चुनाव जीतना ही अपना लक्ष्य रखा और अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सारे नियम, कायदे, कानून और नैतिकता इत्यादि को भी दाँव पर लगाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते हैं। यूँ तो राजनेताओं की कथनी व करनी में अंतर का भारतीय राजनीति में लम्बा इतिहास रहा है, देश में राजनेताओं की ऐसी छवि बनना वाकई में लोकतंत्र का दुःखद पहलू है। आज राजनेताओं की कथनी व करनी में अंतर होना भारतीय राजनीति का स्थायी चरित्र व स्याह पहलू बन गया है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में वर्ष 2014 के चुनावों में राजनेताओं के झूठे वायदों व चालबाजियों का सिलसिला निश्चित ही काले अध्याय के रूप में याद किया जाएगा। लोकतंत्र में इन स्थितियों पर नियंत्रण की जरूरत है, इसके लिये वर्ष 2019 के आम चुनाव से पहले इसके लिये जागरूकता का माहौल निर्मित किया जाना चाहिए।
भारतीय राजनीति में झूठ-फरेब, धोखाधड़ी के बल पर सत्ता हासिल करने की स्थितियों का बने रहना चिन्ताजनक हैं। झूठी घोषणाएँ एवं आम जनता को गुमराह करने की त्रासद स्थितियां भारतीय लोकतंत्र के चरित्र को धुंधलाते हैं। राजनेता चाहे पक्ष के हों या विपक्ष के- चुनाव के समय नियम-कायदों की परवाह किए बिना नैतिकता को ताक पर रखकर कोई भी चुनावी वादा कर देने के लिए कुख्यात हैं, चुनाव के दौरान किए गए इनके चुनावी वादों का तो कोई हिसाब भी नहीं रख सकता और इनकी कार्यप्रणाली से उन वादों का शायद दूर-दूर तक कोई तालमेल भी नहीं होता।