-पीके खुराना-
जीवन है तो जीवन में हमारा वास्ता चार चीजों से पड़ता है और वे तीन चीजें हैं .. लोग, घटनाएं, स्थितियां और
चीजें। हमारे परिवार के लोगों के अलावा हमारे अन्य रिश्तेदार, आसपास के लोग, हमारे सहकर्मी, हमारे पड़ोसी,
हमारे सहपाठी, हमारे मित्र, हमारे ग्राहक, हमारे सप्लायर आदि कई तरह के लोगों से हमारा वास्ता पड़ता है। इसी
तरह जीवन में हर रोज़ नई घटनाएं घटती हैं, कुछ सुखद होती हैं, कुछ दुखद होती हैं। कुछ स्थितियों पर हम
जल्दी नियंत्रण पा लेते हैं, कुछ स्थितियां हमें असहाय कर देती हैं, कुछ स्थितियां हमारी कमज़ोरियां जाहिर करती
हैं, जबकि कुछ स्थितियां हमारी मजबूती का कारण बन जाती हैं। कुछ चीजें हमें प्रिय होती हैं, कुछ अप्रिय होती हैं,
कुछ के प्रति हम बेपरवाह होते हैं। लोगों, घटनाओं, स्थितियों और चीजों में से किन्हीं दो या दो से अधिक के
घालमेल से हमारे अनुभव बनते हैं। अनुभव सुखद हो या दुखद, ये अनुभव ही हमारा जीवन बनते हैं। हमारे अनुभव
कैसे हों, यह हमारी मानसिकता पर निर्भर करता है। हमारे संपर्क में आने वाले लोगों से, रोज़ घटने वाली उन
घटनाओं से, विभिन्न स्थितियों आदि से हमें जो महसूस होता है, हम उन पर जैसे प्रतिक्रिया करते हैं, उनसे हमारे
अनुभव बनते हैं। इन खट्टे, मीठे, कड़ुवे अनुभवों से ही हमारा जीवन बनता है। हम बहुत सी स्थितियों को, चीजों
को और शायद कुछ लोगों की कुछ बातों को भी बदल सकते हैं, पर सब कुछ नहीं बदल सकते। सिर्फ एक चीज़
ऐसी है जिस पर हमारा पूरा नियंत्रण संभव है और अगर हम जागरूक रहें तो हम उसे पूरा का पूरा बदल सकते हैं
और वह एक चीज़ है, किसी भी हालात में हमारी प्रतिक्रिया क्या हो, इस पर हमारा पूरा नियंत्रण संभव है।
अगर हम जागरूक रहें तो हम किसी भी हालात में, किसी भी घटना पर अपनी प्रतिक्रिया को नियंत्रित करके उसे
बदल सकते हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रतिक्रिया बदल देने मात्र से हमारे अनुभव बदल जाते हैं, और हमारे
अनुभव बदलते हैं तो हमारा जीवन बदल जाता है। इसलिए आवश्यक यह है कि अपनी प्रतिक्रियाओं पर नियंत्रण
करना सीखा जाए। हमारी प्रतिक्रिया बदलती है तो हमारी ऐक्शन बदल जाती है, उससे जीवन की चिंताओं, अवसाद
अथवा अकेलेपन से पार पाना आसान हो जाता है। दुख के बावजूद, उदासी के बावजूद, चिंताओं के बावजूद हम
कितनी जल्दी उससे उबर पाते हैं। विचारों से प्रतिक्रिया तक की पूरी प्रक्रिया को अगर हम समझ लें तो प्रतिक्रिया
को बदलना और दुख भरी स्थितियों से उबरना आसान हो जाता है। यह समझना आवश्यक है कि सबसे पहले हमारे
दिमाग में कोई विचार आता है। अगर हम उस विचार के बारे में गंभीर हैं तो वो विचार, वो ख़याल हमारी बातचीत
में उतर आता है, हम उसका जि़क्र करने लगते हैं, अपने आसपास के लोगों से उसकी चर्चा करने लगते हैं। तब वो
ख़याल, ख़याल न रहकर हमारी चर्चा का विषय बन जाता है और हमारे दृष्टिकोण को प्रभावित करता है, हमारे
सोचने का अंदाज़ बदल देता है, हमारा विश्वास बन जात है, और जो विचार, जो ख़याल हमारा नज़रिया बदल दे,
हमारा विश्वास बन जाए, वो हमारा व्यवहार बन जाता है, हमारा आचरण बन जाता है और अंततः वो हमारी
ऐक्शन बन जाता है। ये ख़यालों की यात्रा है, विचार से लेकर ऐक्शन बनने तक की यात्रा है। यही हमारी प्रतिक्रिया
है। इस प्रक्रिया को समझ लें तो हम अपने विचारों की महत्ता को समझ जाते हैं और उनसे होने वाले परिणाम को
भी समझ जाते हैं। यही तरीका है जिससे हम अपने विचारों को नियंत्रित कर सकते हैं। अपने नज़रिये के बारे में
जागरूक होकर हम अपने व्यवहार को नियंत्रित करके अपनी ऐक्शन्स को भी नियंत्रित कर सकते हैं। ऐसा हो गया
तो जीवन हमारे नियंत्रण में हो गया, हम जीवन में घटने वाली घटनाओं के नियंत्रण में नहीं रहे, जीवन हमारे
नियंत्रण में हो गया।
चिंता से और अवसाद से उबरने का एक ही तरीका है कि हम अपने विचारों पर नियंत्रण करें, ताकि प्रतिक्रिया पर
नियंत्रण हो सके, हमारा व्यवहार बदल सके और हम खुशहाल जीवन जी सकें। चिंता और अवसाद में भी अंतर है।
जब हम स्थितियों के हाथों विवश महसूस करें, हमारा लगातार अपमान होता रहे, हम मनचाही सफलता न पा सकें,
हमारा कोई प्रियजन हमसे बिछुड़ जाए या कोई बड़ा नुकसान हो जाए तो हम दुखी हो जाते हैं, तनावग्रस्त हो जाते
हैं और यह स्थिति लंबे समय तक चले तो अवसाद बन जाती है। यानी, कोई पहले से घटी हुई घटना या दुर्घटना
हमारे अवसाद का कारण बनती है। चिंता इससे बिल्कुल अलग है। चिंता किसी अनहोनी की आशंका को लेकर होती
है। हमारे साथ भविष्य में जो बुरा हो सकता है उसके खयाल के कारण चिंता होती है। अवसाद भूतकाल में घटी
किसी घटना या दुर्घटना के कारण होता है जबकि चिंता भविष्य में हो सकने वाली किसी घटना या दुर्घटना की
आशंका से आती है। चिंता जिस कारण से होती है, वह अभी घटा नहीं है, पर हमें आशंका होती है कि हमारे साथ
ऐसा हो सकता है और अगर सचमुच वैसा हो गया तो हमारा क्या होगा? अवसाद से उबरने के दो साधन हैं, पहला
तो यह कि हम यह समझ लें कि जो घट चुका है, वह घट चुका है, वह बीत चुका है, वह बीते हुए कल की बात है
और कल पहले ही जा चुका है। उसके कारण अपने आज को बिगाड़ने के बजाय हम यह सोचें कि हम आज ऐसा
क्या कर सकते हैं जिससे बीती हुई घटना के कारण हो चुके नुकसान की भरपाई संभव हो। दुखी होने के बजाय
‘ऐक्शन मोड’ में आना जरूरी है। अवसाद से बचने का दूसरा साधन यह है कि हम अपने किसी मनपसंद काम में
व्यस्त हो जाएं ताकि अवसाद की ओर से हमारा फोकस हट जाए। इस तरह अवसाद पर काबू पाया जा सकता है।
उसके लिए मित्रों और परिवार का सहयोग भी मिले तो काम बहुत आसान हो जाता है।
चिंता से बचने का तरीका यह है कि हम देखें कि समस्या क्या है, उसे कितने छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटा जा सकता
है, समस्या के उस छोटे टुकड़े के हल के लिए हम क्या कर सकते हैं, उसके लिए हमारे पास क्या साधन होने
चाहिएं, समस्या के उस हिस्से के समाधान के लिए हम किसकी सहायता ले सकते हैं, इस चिंतन से, इस विश्लेषण
से समस्या का समाधान संभव है। समस्या नहीं रहेगी तो चिंता खुद-ब-खुद गायब हो जाएगी। यानी, चिंता से बचने
के लिए चिंतन की, समस्या के विश्लेषण की आवश्यकता है। चिंता हमारा दिमाग बंद कर देती है और हमें असहाय
बना देती है जबकि चिंतन से हम नए हल खोज सकते हैं और समस्या का निदान पा सकते हैं। अकेलापन दूर
करना तो और भी आसान है। आपको जब भी अकेलापन महसूस हो, जब भी आपको यह लगे कि आप भीड़ में होते
हुए भी अजनबी हैं, परिवार में रहकर भी अलग-थलग हैं तो आपको यह देखना चाहिए कि आपका कौन सा ऐसा
मित्र है जिससे आपने लंबे समय से बात नहीं की, उन्हें फोन लगाइए, उनके पास चले जाइए, उनसे गपशप कीजिए,
पार्क में सैर करने चले जाइए, हल्का व्यायाम कीजिए, किसी बच्चे के साथ या किसी पालतू पशु के साथ खेलने
लग जाइए, इनमें से कोई भी तरीका अपनाइए या एक से अधिक तरीके अपनाइए, आपका अकेलापन दूर हो
जाएगा। इन छोटे-छोटे साधनों से, मुफ्त में उपलब्ध साधनों से हम चिंता से, अवसाद से और अकेलेपन से बच
सकते हैं, समाज के लिए ज्यादा उपयोगी नागरिक बन सकते हैं, खुद खुश रह सकते हैं और अपने आसपास के
लोगों को खुश कर सकते हैं। इसी में जीवन की सार्थकता है।