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सुरेंदर कुमार चोपड़ा
कोई भी मनुष्य जब अपने पूर्वजों का श्राद्ध करता है, तब किसका श्राद्ध करता है, किस चीज का श्राद्ध करता
है? क्या वह आत्मा का श्राद्ध करता है? नहीं। आत्मा सर्वव्यापी अर्थात् विभु है। उसके लिए मरण नहीं है,
स्थानांतर अथवा लोकांतर नहीं है। इसलिए आत्मा के श्राद्ध का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
तब क्या मनुष्य देह का श्राद्ध करता है? नहीं, देह का भी नहीं। देह की तो राख या मिट्टी हो जाती है। कदाचित्
देह अन्य प्राणियों का आहार बन कर उनके साथ एकरूप भी हो गई हो। मृत देह को खाने वालों सियारों, भेड़ियों
या गिद्धों का हम श्राद्ध नहीं करते। अथवा संभव हो कि देह में कीड़े पड़ गए हों और उनका ही एक बड़ा देश बस
गया होय लेकिन उनकी तृप्ति के लिए भी हम तर्पण नहीं करते अथवा पिंड नहीं रखते।
अब बाकी बचता है मरने वाले मनुष्य की वासनाओं का समुच्चय अथवा पीछे रहने वाले लोगों के मन में रही
मृतक-संबंधी भावनाओं का समुच्चय। जिन दो वासनात्मक और भावनात्मक देहों द्वारा मनुष्य मृत्यु के बाद शेष
रहता है, इन दो में से एक देह का अथवा दोनों देहों का श्राद्ध संभव तो है।
लोक-कल्पना यह है कि मरा हुआ पूर्वज महाशूर, क्रूर, पेटू या आलसी हो तो उसका वासना समुच्चय अथवा लिंग-
शरीर बाघ या भेड़िए के शरीर में जन्म लेता है। यदि वह मिलनसार न होगा तो बाघ की योनि प्राप्त करेगा। समान
शील वालों का संघ बनाने की वृत्ति वाला होगा तो भेड़िए की योनि उसके लिए अधिक अनुकूल सिद्ध होगी। परंतु
श्राद्ध इन बाघों या भेड़ियों का नहीं होता।
ऐसा हो, तब तो उनके नाम पर खीर और लड्डू अर्पण करने के लिए किसी वेद-शास्त्र-संपन्न ब्राह्मण को बुलाने पर
यह तमाशा हो सकता है कि हमारे पूर्वज खीर और लड्डू के बदले उसी ब्राह्मण को ही पसंद करें और चट कर
जाएंय और श्राद्ध में एक समय जो पशु हत्या होती थी, उसके बदले ब्रह्महत्या हो जाए!
(मानव-पिता मनु भगवान ने कहा है कि मां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसं इहाद्म्यहम् इति मांसस्य मांसत्वम्-
जिसका मांस यहां मैं खाता हूं, व (सः) मुझे (मां) परलोक में खाएगा। इसलिए मांस को मांस कहते हैं। इस न्याय
से यदि हम श्राद्ध का विचार करें तो कहना होगा कि दुनिया में सब जगह श्राद्ध ही चल रहा है।)
पूर्वजों में कोई अपने कर्मों, वासनाओं और संस्कारों के अनुरूप किसी भी योनि में गया हो और वहां अपनी पुरानी
वासनाओं की तृप्ति करते-करते नई वासनाओं का बंधन रचता हो तो उससे हमारा कोई वास्ता नहीं। हमारा कोई
पूर्वज शरीर छोड़ कर चला गया हो तो भी इस लोक में उसका संपूर्ण नाश नहीं होता। उसके द्वारा किए गए अच्छे-
बुरे कर्म, उसके द्वारा प्रेरित अच्छी-बुरी प्रवृत्तियां और उसके द्वारा मानव-स्वभाव के विकास में की गई वृद्धि- यह
सब उसके चले जाने के बाद भी इस लोक में मौजूद रहता है।
उसके साथ जिनका संबंध था, उन सगे-संबंधी, शत्रु-मित्र आदि लोगों की स्मृति और भावना में वह पहले की तरह
ही जीवित रहता हैय इतना ही नहीं, उसके बाकी रहे स्मृतिगत जीवन में दिन-प्रतिदिन परिवर्तन भी होते रहते हैं।
मृत्यु के बाद उसका निवास एक ही शरीर में नहीं रहताय स्मृति के रूप में, कार्य के रूप में अथवा प्रेरणा के रूप में
वह जितने समाज में व्याप्त होगा, उस समस्त समाज में उसका निवास होता हैय और उसके इस जीवन को लक्ष्य
में रख कर ही उसका श्राद्ध संभव हो सकता है। शिवाजी महाराज जैसे पुण्यश्लोक राजा ने मोक्ष प्राप्त किया हो या
इस देश अथवा दूसरे देश में राष्ट्र-पुरुष का जन्म लिया होय उनकी इस नई यात्रा- कैरियर- का हम श्राद्ध नहीं
करते। आज हम उन शिवाजी महाराज का श्राद्ध करते हैं, जो हमारे हृदय में बस कर जीते हैं, वहां बड़े होते हैं-
विभूति के रूप में बढ़ते हैं।
श्राद्ध मरे हुए जीवों का नहीं होताय परंतु देहत्याग करने के बाद उनका जो अंश समाज में जीवित रहता है, समाज
के द्वारा प्रवृत्ति करता है, विकसित होता है और पुरुषार्थ करता है, उसी का श्राद्ध हो सकता है। यह मरणोत्तर
सामाजिक जीवन ही सच्चा पारलौकिक जीवन है।