-रामचंद्र गुहा-
यह साल वर्षगांठों का साल है। महर्षि अरविंद की 150वीं जन्म जयंती, असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी
की गिरफ्तारी का सौवां वर्ष, भारत छोड़ो आंदोलन का 80वां साल, भारत की आजादी के 75 वर्ष, पहले आम चुनाव
के 70 साल, और भारत-चीन युद्ध के 60 साल। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार निश्चित तौर पर इन
वर्षगांठों को उसी धूमधाम से मनाएगी, जिस तरह मोदी की छवि का प्रचार-प्रसार करने के लिए मनाती आई है। श्री
अरविंद की आध्यात्मिक महानता, आजादी के लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष और उनके बलिदान, भारत
की गहरी लोकतांत्रिक परंपरा पर प्रधानमंत्री मोदी के प्रेरणादायक भाषण होंगे, वह कहेंगे कि विदेशी हमले के दौरान
हमारी सेना कमजोर न पड़े, उनकी सरकार यह सुनिश्चित करेगी।
अलबत्ता एक वर्षगांठ ऐसी भी है, जिसके बारे में मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री के आधिकारिक कैलेंडर में इसका
उल्लेख नहीं होगा। वह है गुजरात दंगे की 20वीं वर्षगांठ। इतिहासकार वर्ष 2002 की गुजरात हिंसा और 1984 में
दिल्ली में हुई सिख-विरोधी हिंसा में समानता पाते हैं। वर्ष 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके अंगरक्षकों
द्वारा की गई हत्या ने हजारों सिखों की नृशंसता से हत्या के लिए उकसाया, जिनका इंदिरा गांधी की हत्या से कोई
लेना-देना नहीं था।
उसी तरह 2002 में साबरमती एक्सप्रेस में 59 तीर्थयात्रियों की हत्या का बदला लेने के लिए हजारों निर्दोष मुस्लिमों
की जान ली गई। दोनों ही मामलों में सत्तारूढ़ पार्टियों और राज्य प्रशासनों ने न सिर्फ हिंसा जारी रहने दी, बल्कि
उस हिंसा को अल्पसंख्यक-विरोधी हिंसा में तब्दील करने में मदद भी की। उन दोनों ही घटनाओं में, पद पर बने
रहने वाले दोनों ही राजनेताओं-यानी तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, को
हिंसा का भारी राजनीतिक लाभ मिला, और हिंसा के बाद हुए चुनावों में दोनों को जीत हासिल हुई।
इन दोनों हत्याकांडों में अगर समानताएं थीं, तो कुछ अंतर भी था। कांग्रेस ने आखिरकार 1984 की सिख-विरोधी
हिंसा का प्रायश्चित किया, बेशक इसमें उसने बहुत समय लिया। कांग्रेस अध्यक्ष बनने के कुछ समय बाद 1999 में
सोनिया गांधी स्वर्ण मंदिर गईं, जो निश्चित तौर पर प्रायश्चित स्वरूप ही था, हालांकि उन्होंने सिख-विरोधी हिंसा के
लिए माफी नहीं मांगी। अलबत्ता वर्ष 2004 में यूपीए जब केंद्र की सत्ता में आया, तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने
1984 में कांग्रेसी प्रधानमंत्री के दौर में हुई सिख-विरोधी हिंसा के लिए क्षमा मांगी। अगस्त, 2005 में संसद में
बोलते हुए मनमोहन सिंह ने कहा था, 'मुझे सिख समुदाय से माफी मांगने में कोई परहेज नहीं है। मैं सिर्फ सिख
समुदाय से नहीं, बल्कि पूरे देश से माफी मांगता हूं, क्योंकि 1984 में जो हुआ, वह राष्ट्रीयता की उस धारणा के
भी विरुद्ध था, जो हमारे संविधान में प्रतिस्थापित है।'
तब तक सिख समाज के एक बड़े तबके ने देश से सामंजस्य बिठा लिया था, हालांकि उस हत्याकांड के घाव पूरी
तरह नहीं भरे। अप्रैल, 2005 में मैं पंजाब गया था और सिख शिक्षकों के एक समूह से मैंने लंबी बातचीत की थी।
उन लोगों ने कहा था कि मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री हैं, जेजे सिंह पहले सिख थलसेनाध्यक्ष हैं, और मोंटेक
सिंह आहलूवालिया योजना आयोग के उपसभापति हैं, लिहाजा सिखों को समान नागरिक समझे जाने के प्रति सिख
समाज आश्वस्त है। हालांकि कांग्रेस ने सिख समुदाय के तीन दिग्गजों को महत्वपूर्ण पदों पर जान-बूझकर नहीं
बिठाया था, पर राजनीति, सेना और अर्थनीति के शीर्ष पदों पर उनके सुप्रतिष्ठित होने का सांकेतिक महत्व तो था
ही।
दूसरी तरफ गुजरात के मुसलमान आज भी उतने ही डरे हुए और असुरक्षित हैं, बल्कि शायद तब से ज्यादा ही
भयभीत हों। न ही नरेंद्र मोदी या दूसरे किसी भाजपा नेता ने पछतावे या माफी का कोई संकेत दिया है। बल्कि
अल्पसंख्यक-विरोधी हिंसा में मोदी और भाजपा ने मनमोहन सिंह और कांग्रेस से उल्टा सबक लिया। मुस्लिमों पर
खुली हिंसा करने और अल्पसंख्यक मुस्लिमों को डराने के बाद उन्होंने हिंदू बहुसंख्यकवाद पर तेजी से काम किया,
ताकि दूसरे धर्म वालों, खासकर मुस्लिमों पर अपनी इच्छा थोप सकें। यह सोचना असंभव नहीं, तो मुश्किल जरूर है
कि भाजपा के शासन में प्रधानमंत्री या सेनाध्यक्ष के पद पर कोई मुस्लिम होगा।
लोकसभा में भाजपा के 300 सांसदों में एक भी मुसलमान नहीं है। 'हिंदू खतरे में हैं' की बात करने वाली भाजपा
अपने चुनाव अभियानों में मुस्लिमों को संभावित मतदाता के रूप में गिनती भी नहीं है (उत्तर प्रदेश इसका ताजा
गवाह है)। सत्तारूढ़ दल से जुड़े लोग हर रोज सड़कों पर घूमते हैं, ताकि वे मुस्लिमों को ताना दे सकें, उन्हें धमका
सकें, अपमानित कर सकें और उनकी रोजी-रोटी छीन सकें। भाजपा-शासित राज्यों में ऐसे आयोजन होते हैं, जिनमें
सत्तारूढ़ दल के राजनेताओं के नजदीकी लोग मुस्लिमों के सामूहिक संहार की बात करते हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का मानना था कि 2002 की गुजरात हिंसा तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा
'राजधर्म' का पालन न करने के कारण हुई। लेकिन सत्ता में रहते हुए राजनेताओं के कर्तव्य के बारे में नरेंद्र मोदी
की सोच वाजपेयी की सोच से अलग है। मनमोहन सिंह ने कहा था कि 1984 में जो हुआ, वह भारतीय संविधान
की भावना के विरुद्ध था। वर्ष 2002 में गुजरात में जो हुआ, वह भी संविधान की भावना के विरुद्ध था। पर मोदी
उसके लिए माफी मांगने की जरूरत नहीं समझते, क्योंकि राष्ट्र के बारे में उनकी धारणा संविधान की भावना के
विरुद्ध है।
17वीं सदी के फ्रेंच लेखक ला रोशफूको ने पाखंड के बारे में कहा था कि यह 'दुर्गुण द्वारा सद्गुण को श्रद्धांजलि
देना' है। वर्ष 2022 में भारतीय इसका भरपूर प्रदर्शन देखेंगे। वैसे तो नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का
स्वतंत्रता संग्राम में रत्ती भर योगदान नहीं है, लेकिन हम पाएंगे कि प्रधानमंत्री इस साल कई बार स्वतंत्रता संग्राम
को याद करेंगे। वैसे तो मोदी का हिंदू बहुसंख्यकवाद गांधी के समावेशी विश्वास के विपरीत है, लेकिन हम उन्हें
गांधी जी की प्रशंसा करते पाएंगे। वैसे तो संसद का महत्व अब कम से कम रह गया है (जबकि दिल्ली अब ज्यादा
से ज्यादा प्रदूषित है), लेकिन हम प्रधानमंत्री को 'लोकतंत्र की भावना' और 'नए भारत' का उद्घोष कर संसद की नई
और भव्य बिल्डिंग का उद्घाटन करते पाएंगे।
वह श्री अरविंद की भावना से नजदीकी का भी दावा करेंगे, जबकि नैतिक और आध्यात्मिक मामलों में प्रचार के
भूखे प्रधानमंत्री और बौद्धिक तथा नेपथ्य में रहे उस महान अध्यात्मवादी में भारी फर्क है। वर्ष 2022 में तमाम
वर्षगांठ मनाते हुए मोदी इतिहास को तोड़-मरोड़कर अपनी छवि बनाएंगे। लेकिन यह मानना कठिन है कि वह
गुजरात दंगे का जिक्र भी करेंगे, जो उन्हीं के मुख्यमंत्री काल में हुए थे और जिसकी लंबी छाया अब भी हमारे
गणतंत्र पर पसरी हुई है।