राशिद हुसैन
सरज़मीने-लखनऊ में जन्मे मशहूर व मारूफ़ शायर जनाब कृष्णबिहारी ’नूर’ जिनको अदब की दुनिया में इज्ज़तदाराना मुक़ाम हासिल है। वो जब किसी मुशायरे में मंचासीन होते, तो ऐसा लगता था, मानो पूरा लखनऊ मंच पर बैठा हो।उन्होंने अपने जीवनकाल में कई शिष्य बनाए या यूं कहें कि उनका शिष्य बनकर युवा शायर खु़द पर फ़ख्र महसूस करता था। नूर साहब की एक बहुत ही मशहूर ग़ज़ल है, जिसमें उन्होंने पूरी ज़िंदगी का फ़लसफ़ा बयान कर दिया है, उसका एक शेर यूं है-
ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं
यह शेर सीधे दिल पर दस्तक देता है। सामाजिक परिवेश को बड़ी खू़बसूरती से अपने शेरों में कह देने का हुनर रखने वाले जनाब कृष्णबिहारी ’नूर’ की अदब की रोशनी की किरण जब मुरादाबाद पर पड़ी, तो एक नाम सामने आया- डा. कृष्णकुमार ’नाज़’ जिनकी लेखनी पर नाज़ किया जा सकता है। कृष्णकुमार ’नाज’ का जन्म मुरादाबाद से चंद मील दूर कुरी रवाना गांव में हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा वहीं हुई। उसके बाद उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए जब वह शहर आए तो यहीं के होकर रह गए। जीविका की खोज में कब साहित्य से प्रेम हुआ, पता ही नहीं चला और उसमें रमते चले गए। उनकी साहित्यिक यात्रा आज भी बदस्तूर जारी है। यूं तो नाज़ साहब की कई किताबें मंजरे-आम पर आ चुकी हैं और वह अपनी लेखनी का लोहा मनवा चुके हैं। अभी हाल ही में उनका ताज़ा ग़ज़ल-संग्रह ’दिये से दिया जलाते हुए’ का विमोचन हुआ, जिसका मैं भी साक्षी बना।
आइए बात करते हैं नाज़ साहब के नये ग़ज़ल-संग्रह ’दिये से दिया जलाते हुए’ की। नाम ही पूरे संग्रह का सार है, क्योंकि नूर साहब के शागिर्द हैं तो नाज़ साहब ने भी अपने शेरों के ज़रिए समाज को आईना दिखाया है। नाज़ साहब परिपक्व ग़ज़लकार हैं। वैसे तो उन्होंने भी अपनी ग़ज़लों में इश्क़ और मुहब्बत की बात की है, लेकिन उनकी शायरी में समाज में फैली विसंगतियों पर चिंतन ज़्यादा नज़र आता है। बचपन से लेकर जवानी और बुढ़ापे तक का जीवन दर्शन भी उनकी ग़ज़लों में मिलता है। जैसा कि किताब का शीर्षक ’दिये से दिया जलाते हुए’ अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है।
आइए शुरूआत बचपन से करते हैं, जब वो किसी बच्चे को हंसता हुआ देखते हैं, तो शेर यूं कहते हैं-
बच्चा है ख़ुश कि तितली ने रक्खा है उसका ध्यान
तितली भी ख़ुश कि नन्हीं हथेली है मेज़बान
फिर वो बचपन को याद करते हुए अपनी चाहत का इज़हार कुछ यूं करते हैं-
ज़हन का हुक्म है मुझको कि मैं दुनिया हो जाऊं
और दिल चाह रहा है कोई बच्चा हो जाऊं
नाज़ साहब ने जब बचपन की बात की, तो मां की ममता का ज़िक्र भी बड़ी ईमानदारी से अपनी ग़ज़ल में कर दिया। उन्हें मां की ममता कुछ इस तरह से बयां की है कि पढ़ने-सुनने वाले का दिल भर आए-
कलियां, फूल, सितारे, शबनम, जाने क्या-क्या चूम लिया
जब मैंने बांहों में भरकर उसका माथा चूम लिया
दुनिया के रिश्ते-नातों की नज़रें थी धन दौलत पर
लेकिन मां ने बढ़कर अपना राजदुलारा चूम लिया
कोई शायर इश्क़-मुहब्बत और हुस्न की बात न करे, ये हो नहीं सकता। नाज़ साहब ने भी अपनी ग़ज़लों में इश्क़ में डूबे आशिक़ के दिल के जज़्बात को बड़ी ख़ूबसूरती से कह दिया है-
जबसे देखा है तेरे हुस्न की रानाई को
जी रही हैं मेरी आंखें तेरी अंगड़ाई को
आंखों से उनकी जाम पिए जा रहा हूं मैं
क्या ख़ूब ज़िंदगी है जिए जा रहा हूं मैं
उन्होंने आज के नौजवानों की हक़ीक़त को दिखाता क्या ख़ूब शेर कहा है-
हमने यूं भी वक़्त गुज़ारा मस्ती में याराने में
जब जी चाहा घर से निकले बैठ गए मयखाने में
जब मुहब्बत होती है तो बेवफ़ाई भी होती है, जुदाई भी होती है और यादें भी होती हैं, तनहाई भी होती है। प्यार में चोट खाए इंसान के दिल के दर्द को बड़े सलीके़ से अपनी शायराना अंदाज में कहते हैं-
बुझा-बुझा रहता है अक्सर
चिड़ियों की चहकार भी अब तो
शोर शराबा सी लगती है
जाने दिल की क्या मर्जी है।
दूर है मुझसे बहुत दूर है वो शख्स मगर
बावजूद इसके कभी आंख से ओझल न हुआ
ख्वाब मेरा जो कभी आपको छू आया था
अब उसी ख्वाब की तस्वीर बनाने दीजे
एक पिता मुफ़लिसी के दौर में अपने बच्चों का किस तरह लालन-पालन करता है, इस शेर को देखें-
एक बूढ़े बाप के कांधों पे सारे घर का बोझ
किस क़दर मजबूर है ये मुफ़लिसी की ज़िंदगी
और फिर वही बच्चे बड़े होकर नाफ़रमान हो जाते हैं। तब मां-बाप की बेबसी यूं बयां होती है-
बेटों ने तो हथिया लिए घर के सभी कमरे
मां-बाप को टूटा हुआ दालान मिला है
आज के समय में जब रिश्तों में मुहब्बत की कमी हो गई है, तब नाज़ साहब ने रिश्ते निभाने के लिए समर्पण को अहमियत दी है। वो कहते हैं-
सिमट जाते हैं मेरे पांव ख़ुद ही
मैं जब रिश्तों की चादर तानता हूं
उससे हार के ख़ुद को बेहतर पाता हूं
लेकिन जीत के शर्मिंदा हो जाता हूं
आज इक्कीसवीं सदी में थोड़ा-सा पैसा किसी के पास आ जाए तो उसके पैर ज़मीन पर नहीं पड़ते। ऐसे मग़रूर के लिए लिखते हैं-
सरफिरी आंधी का थोड़ा-सा सहारा क्या मिला
धूल को इंसान के सर तक उछलना आ गया
शायर आने वाले वक़्त में हालात और क्या हो सकते हैं, उसकी फ़िक्र करते हुए लिखते हैं-
कभी अंधेरे, कभी रोशनी में आते हुए
में चल रहा हूं वजूद अपना आज़माते हुए
कौन करेगा हिफ़ाज़त अब इनकी मेरे बाद
ये सोचता हूं दिये से दिया जलाते हुए
इसी संग्रह की एक ग़ज़ल जिसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया, उसके लिए क्या लिखूं, मेरे पास शब्द नहीं हैं। बस एक बात समझ आई कि नाज़ साहब ने यह साबित कर दिया कि वो ही नूर साहब के सच्चे और पक्के शागिर्द हैं। उस ग़ज़ल के ये दो शेर प्रस्तुत हैं-
पेड़ जो खोखले पुराने हैं
अब परिंदों के आशियाने हैं
जिंदगी तेरे पास क्या है बता
मौत के पास तो बहाने हैं
नाज़ साहब का यह ग़ज़ल-संग्रह पूरा जहान समेटे हुए है। यह समाज के हर पहलू को बड़ी ख़ूबसूरती से उकेरते हुए एक मुकम्मल किताब लगती है। इसको पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि इसे बार-बार पढ़ा जाए।
डा. कृष्णकुमार ’नाज़’ अपने गुरु कृष्णबिहारी ’नूर’ साहब के पदचिह्नों पर चलते हुए अदब की ख़िदमत बहुत ही ईमानदारी से कर रहे हैं। उन्होंने कई शिष्य बनाए हैं, जो पूरे देश में ग़ज़ल और गीत के ज़रिये अदब की ख़िदमत कर रहे हैं और नाज़ साहब की दी हुई शिक्षा को बढ़ा रहे हैं। अगर यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी कि नाज़ साहब मौजूदा वक़्त में साहित्य की पाठशाला हैं। उनको ताज़ा ग़ज़ल संग्रह ’दिये से दिया जलाते हुए’ के लिए दिली मुबारकबाद।