सर्वोच्च अदालत की संविधान पीठ ने संविधान पीठ का ही फैसला बदल दिया। फर्क इतना था कि 1998 की पीठ पांच न्यायाधीशों की थी, जिसने ‘नरसिम्हा राव बनाम सीबीआई’ मामला सुना था और 3-2 न्यायाधीशों के बहुमत से फैसला सुनाया था। अब संविधान पीठ सात न्यायाधीशों की है। मुद्दा संविधान के अनुच्छेद 105 (2) और 194 (2) के तहत सांसदों और विधायकों के, सदन के भीतर, विशेषाधिकार का है। पहला केस झामुमो सांसदों को दी गई घूस का था, जिसके एवज में उन्होंने तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार के समर्थन में वोट दिए थे। वह अल्पमत सरकार थी और बहुमत के लिए कई सांसदों को ‘खरीदा’ गया था। विशेषाधिकार यह रहा है कि सांसद और विधायक सदन में अपना वोट बेच सकते थे। संविधान पीठ ने भी इसे ‘माननीयों’ का विशेषाधिकार करार दिया था। ऐसी घूस के लिए उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता था। यदि ‘माननीय’ रिश्वत लेकर, रिश्वत देने वाले पक्ष के बजाय, किसी और को वोट देता है, तो उसके खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकता था। नरसिम्हा राव सरकार के संदर्भ में संविधान पीठ का फैसला था कि न्यायपालिका विधायिका के सदन की कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकती, तो देश को निराशा हुई थी, क्योंकि विशेषाधिकार निरंकुश था। सांसद और विधायक सदन के भीतर कुछ भी बोल सकते थे, कोई भी सवाल पूछ सकते थे, भाषणों की भाषायी मर्यादा लांघ सकते थे, झूठ बोल कर गलत तथ्य पेश कर सकते थे, किसी की छवि बिगाड़ सकते थे, लेकिन वे दंडनीय नहीं थे।
स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने 11 सांसदों की सदस्यता बर्खास्त कर दी थी, क्योंकि उन्होंने सदन में सवाल पूछे थे, लेकिन प्रायोजित सवाल पूछने के लिए घूस सदन के बाहर ली थी। बहरहाल अब सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ के सर्वसम्मत फैसले ने न केवल पुराना फैसला अप्रभावी और अप्रासंगिक बना दिया है, बल्कि सांसदों और विधायकों के विशेषाधिकार की परिभाषा ही बदल दी है। यह फैसला ‘मील का पत्थर’ साबित हो सकता है, क्योंकि यह संसदीय लोकतंत्र को अपेक्षाकृत ईमानदार, स्वच्छ, शुचितापूर्ण और जिम्मेदार बना सकता है। ‘माननीयों’ की भेड़-बकरी की तरह खरीद-फरोख्त थम सकती है। सात न्यायाधीशों के फैसले के बाद अब घूस लेकर वोट देना, पैसे लेकर सवाल पूछना अथवा विशेष तरह से भाषण देना, सदन में किसी पर, कुछ भी आरोप लगाते हुए बोलना संसदीय विशेषाधिकार नहीं होगा। संविधान पीठ ने अनुच्छेद 105 (2) और 194 (2) की नई व्याख्या कर दी है। यह उसका संवैधानिक विशेषाधिकार भी है। अब दायित्व संसद पर है कि वह ऐसे संसदीय विशेषाधिकार को ही खत्म करे। संविधान में संशोधन करना संसद का विशेषाधिकार है। दरअसल हमारे सांसदों और विधायकों के विशेषाधिकार विदेशी नकल की देन हैं। ब्रिटेन के ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ (संसद का निचला सदन) के विशेषाधिकारों की तर्ज पर भारतीय संविधान में भी यह व्यवस्था की गई थी। यह भारतीय संस्कृति की मूल भावना का ही उल्लंघन माना जाना चाहिए, क्योंकि हमारी संस्कृति में ‘राजा’ को कानून से ऊपर नहीं माना जाता। वह भी दंडनीय है, लेकिन ब्रिटेन में मानते हैं कि राजा कोई गलती ही नहीं कर सकता।
अब भारतीय संस्कृति का अनुसरण करते हुए हमारी संसद को भी संसदीय विशेषाधिकारों से जुड़े अनुच्छेदों में पर्याप्त संशोधन करने चाहिए। विशेषाधिकार को तो बिल्कुल ही समाप्त कर देना चाहिए। संसद में ‘माननीय’ जनता के प्रतिनिधि हैं और एक निश्चित पार्टी के चुनाव चिह्न पर जीत कर संसद में पहुंचे हैं। उन्हें जनता और पार्टी के प्रति निष्ठा बनाए रखनी चाहिए। दलबदल और क्रॉस वोटिंग के मामले हम देखते रहे हैं। ‘माननीयों’ को किसी रिसॉर्ट या होटल अथवा किसी गुप्त स्थान तक ले जाते हैं। उस समय सांसदों या विधायकों की स्थिति भेड़-बकरी जैसी या बंधक की तरह लगती है, क्योंकि वे बिकाऊ होते हैं। सात न्यायाधीशों की पीठ ने यह भी स्पष्ट किया है कि राज्यसभा के लिए वोट देना भी ‘संसदीय कार्य’ है। उसे संसदीय विशेषाधिकार में ही गिना जाएगा। सर्वोच्च अदालत ने 2006 में ‘कुलदीप नैयर बनाम भारत संघ’ मामले में फैसला दिया था कि राज्यसभा के लिए वोट देना ‘संसदीय कार्य’ नहीं है। उसकी समीक्षा करते हुए अब नया फैसला दिया गया है।