
कांग्रेस नेता व सांसद राहुल गांधी देश विदेश में कहीं भी बोलते हैं तो उनके एक एक शब्द पर सत्ताधारी दल के नेताओं के कान लगे होते हैं। शायद भारतीय जनता पार्टी के नेता प्रधानमंत्री के भाषण को भी इतने ग़ौर से न सुनते हों जितने कि राहुल गाँधी व सांसद प्रियंका गाँधी व सोनिया गाँधी के भाषण सुने जाते हों। ज़ाहिर है लगभग 11 वर्ष तक केंद्र में सरकार चलाने के बावजूद चूँकि अभी भी नेहरू गाँधी परिवार वर्तमान सत्ता को सीधे तौर पर चुनौती दे रहा है और संसद से लेकर सड़कों तक सत्ता से ऐसे सवाल पूछ रहा जिसका जवाब देने से सत्ता कतराती रहती है। इसीलिये इन्हें नेहरू गाँधी परिवार की बातों में ही ‘बतंगड़’ बनाने की सामग्री तलाशनी होती है। ख़ासकर राहुल गाँधी जो बातें अपने देश में भी करते हैं यही बात यदि वे विदेश में जाकर करें तो इन्हें यह सब ‘विदेशी धरती पर देश का अपमान करना’ नज़र आता है।
वैसे भी राहुल गाँधी ने अमेरिका में बोस्टन की ब्राउन यूनिवर्सिटी में जाकर कौन सी ऐसी नई बात कह दी या नया आरोप लगा दिया जो वे यहाँ संसद से लेकर अपनी जनसभाओं या पत्रकारों के समक्ष नहीं उठाते रहे हैं? वे अनेक बार भारतीय चुनाव आयुक्त और चुनावी प्रक्रिया पर सवाल उठा चुके हैं। वहां भी उन्होंने चुनाव आयोग पर समझौता करने का आरोप लगाया और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मतदान के आंकड़ों में गड़बड़ी का वही दावा किया जो यहाँ भी कई बार कर चुके हैं। फिर आख़िर वही बात विदेश की धरती पर करने से वे देशद्रोही, ग़द्दार, देश के दुश्मन और न जाने क्या क्या कैसे हो गये? आज के सूचना प्रौद्योगिकी इंटरनेट के दौर में क्या ऐसा संभव है कि कोई घटना या कोई वक्तव्य किसी सीमा तक सीमित रखा जा सके? जब युद्ध के मैदान से सीधी ख़बरें पलक झपकते पूरे विश्व में पहुँच जाती हैं तो मीडिया सम्बोधन में तो वैसे भी विश्व के संवाददाता मौजूद रहते हैं। सब कुछ ‘लाईव’ चल रहा होता है। फिर यह तो बहुत ही बचकानी सी बात है कि राहुल ने यह बात विदेश में क्यों कह दी? और इसी बहाने सत्ता सुख भोगने वालों ने अपने आक़ा को न केवल अपनी ‘आक्रामक सक्रियता’ जताने के लिये बल्कि अपने पद व राजनैतिक भविष्य को सुरक्षित रखने के लिये राहुल गांधी के प्रति तरह तरह के अपशब्द कह डाले।
इस तिलमिलाहट के एक मायने तो यह भी हैं कि यही आरोप राहुल गाँधी भारत में ही लगायें तो कोई बात नहीं, आपत्ति केवल यह है कि उन्होंने यह सब अमेरिका में जाकर क्यों कह दिया? दरअसल राहुल गांधी ने पिछले दिनों अमेरिकी ब्राउन यूनिवर्सिटी में अपने संबोधन में कहा था कि-“यह बिल्कुल स्पष्ट है कि चुनाव आयोग ने समझौता कर लिया है और सिस्टम में कुछ गड़बड़ है। मैंने यह कई बार कहा है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में महाराष्ट्र में वयस्कों की संख्या से ज़्यादा लोगों ने मतदान किया। चुनाव आयोग ने हमें शाम 5:30 बजे तक के मतदान के आंकड़े दिए और शाम 5:30 बजे से 7:30 बजे के बीच 65 लाख मतदाताओं ने मतदान कर दिया? ऐसा होना शारीरिक रूप से असंभव है। एक मतदाता को मतदान करने में लगभग 3 मिनट लगते हैं और अगर आप गणित लगाएं तो इसका मतलब है कि सुबह 2 बजे तक मतदाताओं की लाइनें लगी रहीं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जब हमने उनसे वीडियोग्राफ़ी देने के लिए कहा तो उन्होंने न केवल मना कर दिया, बल्कि उन्होंने क़ानून भी बदल दिया ताकि हम वीडियोग्राफ़ी के लिए न कह सकें।”
यही सवाल कांग्रेस व विपक्ष द्वारा संसद में मीडिया में और चुनाव आयोग के सामने भी उठाये जा चुके हैं। और विदेशी मीडिया अनेक बार इसकी रिपोर्टिंग भी कर चुका है। अमेरिकी अख़बार पूर्व में जहां भारत जैसे विशाल और जटिल देश में बड़े पैमाने पर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की क्षमता, भारतीय चुनाव आयोग की इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) जैसी तकनीकी प्रगति व मतदाता जागरूकता अभियानों की तारीफ़ कर चुके हैं वहीँ इन्हीं अमेरिकी अख़बारों द्वारा 2019 और 2024 के लोकसभा चुनावों के दौरान चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाने वाले लेख भी लिखे जा चुके हैं। द वाशिंगटन पोस्ट और न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे प्रमुख अख़बारों द्वारा अपने लेखों में भारतीय चुनाव आयोग पर सत्तारूढ़ दल (विशेष रूप से भारतीय जनता पार्टी) के प्रति कथित पक्षपात के आरोपों का ज़िक्र किया जा चुका है। इसीतरह 2024 के चुनावों के दौरान, अमेरिकी अख़बारों के कुछ लेखों में भारतीय चुनाव आयोग की कार्रवाइयों, जैसे आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायतों पर कथित निष्क्रियता या देरी, और विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़ जांच को लेकर भी सवाल उठाए जा चुके हैं। द गार्जियन और टाइम मैगज़ीन जैसे प्रकाशनों ने भी इन मुद्दों को प्रमुखता से उठाया जिसे अमेरिका सहित पूरे विश्व में पढ़ा व देखा गया। इन्हीं में ईवीएम की विश्वसनीयता और पारदर्शिता पर भी चर्चा हो चुकी है। यह और बात है कि ऐसे लेख अथवा संपादकीय विदेशी मीडिया में प्रकाशित होने के बाद कुछ सत्ता समर्थक भारतीय विश्लेषकों या सरकारी अधिकारियों, अथवा किसी मंत्री द्वारा ऐसी कवरेज को “पश्चिमी पक्षपात” या “माइंड गेम” कह कर अपना पक्ष रख दिया जाता है। ख़ास तौर पर उस समय जबकि इससे भारत की छवि का नकारात्मक रूप से चित्रण होता हो।
लिहाज़ा राहुल पर भड़ास निकालकर अपनी ‘वफ़ादारी’ का सुबूत देने के बजाये देश के नेता विपक्ष द्वारा उठाये गये सवालों का तार्किक जवाब दिया जाना चाहिये। वे वहां क्यों कह रहे हैं के बजाये यह बताना चाहिये कि उन्हें आख़िर ऐसा क्यों कहना पड़ रहा है? उनके सवालों पर उन्हें घटिया शब्दों से संबोधित करने व उनके ख़िलाफ़ गोदी मीडिया की जुगलबंदी कर राजनैतिक माहौल तैयार करने से बेहतर है कि भारतीय चुनाव आयोग देश को तथा विपक्ष को अपनी बेगुनाही का सुबूत दे और जनता में अपना विश्वास पैदा करे। रहा सवाल देश की छवि बिगाड़ने का तो देश और दुनिया देख रही है कि देश के अपमान की परिभाषा क्या है और देश की छवि कौन और कैसे बिगाड़ रहा है। और कौन देश को कमज़ोर कर रहा है।