-राम पुनियानी-
नालंदा विश्वविद्यालय के नए कैंपस का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 19 जून (2024) को किया। इस मौके पर म्यांमार, श्रीलंका, वियतनाम, जापान और कोरिया के राजदूतों सहित अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। इन देशों में से अधिकांश में बौद्ध धर्म सम्राट अशोक द्वारा भेजे गए प्रचारकों के ज़रिये फैला था। नालंदा को पुनर्जीवित कर उसे एक वैश्विक विश्वविद्यालय का स्वरुप देने का प्रस्ताव सबसे पहले 2006 में तत्कालीन राष्ट्रपति ए।पी।जे। अब्दुल कलाम ने किया था। बाद में बिहार विधानसभा और यूपीए सरकार ने इसका अनुमोदन किया।
इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में भाषण देते हुए, मोदी ने कहा कि बारहवीं सदी में विदेशी हमलावरों ने इस विश्वविद्यालय को जला कर राख कर दिया था। वे इसी आम धारणा को दुहरा रहे थे कि महमूद गौरी के सिपहसालार बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट किया था।
यह धारणा उसी सामाजिक सोच का हिस्सा है जो मानती है कि मुस्लिम आक्रांताओं ने हिन्दू मंदिरों को नष्ट किया और तलवार की नोंक पर लोगों को इस्लाम अपनाने पर मजबूर किया। इस सोच की नींव ब्रिटिश काल में पड़ी थी जब अंग्रेजों ने देश के इतिहास का साम्प्रदायिक नजरिए से लेखन किया। अंग्रेजों के बाद उनकी इस विरासत को आगे बढ़ाने का काम हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिक ताकतों ने किया। मुस्लिम लीग द्वारा हिन्दुओं के बारे में फैलाए गए मिथकों के कारण पाकिस्तान में हिन्दुओं का जीना मुहाल हो गया वहीं आरएसएस ने भारत में मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने का काम बखूबी अंजाम दिया। यहां तक कि सरदार वल्लभ भाई पटेल को आरएसएस के बारे में यह लिखना पड़ा कि “उनके सभी भाषण साम्प्रदायिकता से भरे हुए थे। हिन्दुओं को उत्साहित करने और उनकी सुरक्षा के लिए उन्हें लामबंद करने के लिए यह जहर फैलाना जरूरी नहीं था। इस जहर का अंतिम नतीजा यह हुआ कि देश को गांधीजी के अनमोल जीवन की बलि भोगनी पड़ी।”
मोदी का यह कहना कि नालंदा को विदेशी हमलावरों ने जलाकर नष्ट किया था झूठी बातों की उसी श्रृंखला का हिस्सा है जो मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए बरसों से इस्तेमाल की जा रही हैं। नालंदा विश्वविद्यालय एक अद्भुत शिक्षण संस्थान था। बिहार के राजगीर में एक बड़े क्षेत्र में फैले इस विश्वविद्यालय का निर्माण गुप्त वंश के सम्राटों ने छठवीं सदी में किया था। इस बौद्ध शैक्षणिक संस्थान में, जहां सभी विद्यार्थी वहीं रहकर अध्ययन करते थे, मुख्यतः बौद्ध दर्शन पढ़ाया जाता था। इसके अतिरिक्त वहां गणित, तर्कशास्त्र, ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म के ग्रंथ एवं स्वास्थ्य विज्ञान भी पढ़ाए जाते थे। यह विश्वविद्यालय अपने खुलेपन, बेलाग संवादों और तार्किकता को बढ़ावा देने के लिए जाना जाता था। इसमें पढ़ने के लिए दूर-दूर से विद्यार्थी आया करते थे। इस विश्वविद्यालय का खर्च मौर्य वंश के राजाओं के खजाने से मिलने वाले धन से चलता था। बाद में पाल और सेन राजवंशों का शासन आने के बाद इस विश्वविद्यालय को मिलने वाली मदद कम हो गई और इसकी जगह अन्य विश्वविद्यालयों जैसे ओदंतपुरी और विक्रमशिला को राजकीय सहायता मिलने लगी। यहीं से नालंदा का पतन शुरू हुआ।
नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय, जिसमें दसियों लाख किताबें, पांडुलिपियां और अन्य दुर्लभ वस्तुएं थीं, को आखिर किसने आग लगाई थी? इसका दोष खिलजी पर मढ़ा जाता रहा है, विशेषकर ब्रिटिश राज के बाद से। मगर ऐसा एक भी तत्कालीन स्त्रोत नहीं है, जो इसके लिए खिलजी को जिम्मेदार ठहराता हो। खिलजी का मुख्य और एकमात्र लक्ष्य था लूटपाट। अयोध्या से बंगाल जाते हुए उसने किला-ए-बिहार पर यह सोचकर हमला किया कि उसमें दौलत छिपी होगी। रास्ते में उसने लूटमार की और लोगों को मारा। नालंदा उसके रास्ते में नहीं था, बल्कि जिस रास्ते से वह गुजरा, नालंदा उससे काफी दूर था। और वैसे भी उसके पास किसी विश्वविद्यालय पर हमला करने का कोई कारण नहीं था। उस समय के किसी स्त्रोत में यह नहीं कहा गया है कि खिलजी नालंदा आया था। मिनहाज-ए-सिराज द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘तबकात-ए-नासिरी’ में इस तरह की कोई बात नहीं कही गई है। उस समय दो तिब्बती अध्येता धर्मस्वामिन और सुंपा नालंदा में भारत और विशेषकर यहां बौद्ध धर्म के इतिहास का अध्ययन कर रहे थे। मगर उन्होंने भी अपनी किताबों में यह नहीं लिखा है कि खिलजी नालंदा आया या उसने नालंदा को आग के हवाले किया। एक अन्य बौद्ध अध्येता तारानाथ, जो तिब्बत से था, भी अपनी पुस्तक में इस तरह की चर्चा नहीं करता।
यह दिलचस्प है कि ‘आक्रांताओं’ ने अजंता, एलोरा और सांची स्तूप सहित किसी महत्वपूर्ण बौद्ध ढ़ांचे या संस्थान को नुकसान नहीं पहुंचाया। इतिहासविद् यदुनाथ सरकार और आर। सी। मजूमदार भी इससे सहमत नहीं हैं कि नालंदा को खिलजी ने नष्ट किया था। तो फिर यह विश्वविद्यालय किस तरह नष्ट हुआ और क्यों और कैसे अपना महत्व खो बैठा? इस बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं जिनमें से एक यह है कि उसे खिलजी ने नष्ट किया था।
प्राचीन भारतीय इतिहास के अप्रतिम अध्येता प्रोफेसर डी। एन। झा अपने लेखों के संकलन (‘अगेंस्ट द ग्रेन’, मनोहर, 2020) में प्रकाशित एक लेख ‘रेसपांडिग टू ए कम्युनलिस्ट’ में तिब्बती भिक्षु तारानाथ की भारत में बौद्ध धर्म के इतिहास पर लिखी पुस्तक के प्रासंगिक हिस्सों को उद्धत करते हुए लिखते हैं: “नालेन्द्र (नालंदा) में काकुटसिद्ध द्वारा बनाए गए मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह के दौरान शैतान शमनों ने तीर्थिका भिक्षुकों (ब्राम्हणों) पर गंदगी फैंकी। इससे नाराज होकर उनमें से एक आजीविका का इंतजाम करने चला गया और दूसरे ने एक गहरे गड्ढे में बैठकर सूर्य साधना शुरू कर दी।।।उसने एक यज्ञ किया और पवित्र राख चारों ओर फैला दी जिससे अचानक आग लग गई।”
डी। आर। पाटिल अपनी पुस्तक ‘द एंटीक्वेरियन रेमनेंट्स इन बिहार’ में ‘हिस्ट्री ऑफ इंडियन लाजिक’ को उद्धत करते हुए लिखते हैं कि यह घटना ब्राम्हण और बौद्ध भिक्षुकों के बीच हुए विवाद और संघर्ष की ओर इंगित करती है। ब्राम्हण भिक्षुकों ने सूर्यदेव की उपासना के लिए एक यज्ञ किया और उसके बाद यज्ञ वेदी में से निकालकर जलते हुए अंगारे और गर्म राख बौद्ध मंदिरों में फेंक दी जिसके कारण किताबों के विशाल संग्रह ने आग पकड़ ली।
हमें यह ध्यान में रखना होगा कि भारत में उस समय ब्राम्हणवाद का पुनरूथान हो रहा था और बौद्ध धर्म पर हमले किए जा रहे थे। सम्राट अशोक के शासनकाल में भारत करीब-करीब बौद्ध देश बन गया था। बौद्ध धर्म समानता में आस्था रखता था जिसके कारण आम लोगों में ब्राम्हणवादी कर्मकांडों में रूचि कम हो गई थी। इससे ब्राम्हण बहुत दुःखी और नाराज थे। अशोक के पौत्र और अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने कर दी और उसके बाद उसने बौद्धों का कत्लेआम करवाया।
सभी विश्वसनीय स्त्रोतों से हमें यही पता चलता है कि ब्राम्हणों ने बदला लेने के इरादे से नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में आग लगाई थी। इसके लिए बख्तियार खिलजी को दोषी ठहराने के पीछे दो उद्देश्य हैं – पहला, मुसलमानों से नफरत करने के कारणों की सूची में एक और कारण जोड़ना और दूसरा, इतिहास के उस दौर में ब्राम्हणों और बौद्धों के बीच संघर्ष और बौद्धों की प्रताड़ना को छिपाना।
केवल बौद्ध काल के विश्वविद्यालय के प्रांगण में कार्यक्रम आयोजित करने से कुछ होने वाला नहीं है। बौद्ध शैक्षणिक संस्थाओं से हम जो सीख सकते हैं वह है अकादमिक स्वतंत्रता और खुलापन। आज भारत के विश्वविद्यालयों में वातावरण घुटनभरा है और आज्ञाकारिता को सबसे बड़ा गुण मान लिया गया है। ऐसे वातावरण में ज्ञान का विस्तार और विकास नहीं हो सकता। भारत में ब्राम्हणवाद और बौद्ध धर्म के बीच संघर्ष का त्रासद इतिहास हमें यही सिखाता है।